भारत के ‘बीमार सरकारी अस्पताल’ और ‘असंतोषजनक चिकित्सा’ सेवाएं

Edited By ,Updated: 27 Dec, 2015 12:59 AM

india s ailing public hospital and unsatisfactory medical services

जैसा कि हम लिखते रहते हैं कि आम लोगों को सस्ती व स्तरीय शिक्षा, चिकित्सा, बिजली और स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी है

जैसा कि हम लिखते रहते हैं कि आम लोगों को सस्ती व स्तरीय शिक्षा, चिकित्सा, बिजली और स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाना सरकार की जिम्मेदारी है परंतु इन सभी क्षेत्रों में हमारी केंद्र और राज्य सरकारें असफल रही हैं। 
 
हालांकि दिल्ली देश की राजधानी है और देश की सत्ता का केंद्र होने के अतिरिक्त यहां विश्व भर के देशों के दूतावास और अन्य बड़े-बड़े प्रतिष्ठान भी हैं इसके बावजूद चिकित्सा सुविधाओं में यह फिसड्डी सिद्ध हो रही है।
 
कहने को तो यहां देश का सबसे बड़ा सरकारी चिकित्सा केंद्र ‘एम्स’ भी है जहां देश के कोने-कोने से गंभीर रोगों से पीड़ित सामान्य लोगों से लेकर सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़े नेतागण तक इलाज के लिए आते हैं लेकिन इसके बावजूद यह गंदगी, सुविधाओं और स्टाफ की कमी से जूझ रहा है। 
 
प्रतिदिन यहां ओ.पी.डी. में 10,000 से अधिक रोगी आते हैं जबकि यह अधिकतम 6000 रोगी ही संभाल सकता है। ओ.पी.डी. में रोगियों की संख्या उपलब्ध सुविधाओं व डाक्टरों की क्षमता से कहीं अधिक है। इस कारण यहां रोगियों को इलाज के लिए इतनी लम्बी-लम्बी अवधियों की तारीखें दी जा रही हैं जिन्हें सुनकर ही व्यक्ति चौंक जाता है। 
 
इस समय इसे आरक्षित श्रेणी में ही कम से कम 329 डाक्टरों की कमी का  सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा यहां सहायक प्रोफैसरों और नर्सिग में लैक्चरारों के 84 पद, सीनियर रैजीडैंट डाक्टरों के 128 व जूनियर रैजीडैंट्स के 117 पद खाली पड़े हैं। 
 
स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा के अनुसार यहां फैकल्टियों और डाक्टरों के पद विभिन्न कारणों से नहीं भरे जा सकते हैं जिनमें चुने गए डाक्टरों का ड्यूटी ज्वाइन करने में असफल रहना एवं अनुकूल तथा उपयुक्त उम्मीदवारों का न मिलना, वर्तमान स्टाफ का रिटायर होना आदि शामिल हैं। 
 
जब देश के अग्रणी चिकित्सा संस्थान की यह हालत है तो ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा राज्यों में 10 नए एम्स खोलने की दिशा में पग बढ़ाना उचित  प्रतीत नहीं होता क्योंकि जब देश के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान ‘एम्स’ में ही रोगियों को वांछित सुविधाएं उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं तो नए बनाए जाने वाले एम्स में कैसे दी जा सकेंगी। 
 
इसी परिप्रेक्ष्य में देश के अन्य सरकारी अस्पतालों की स्थिति का भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अभी 19 दिसम्बर को ही हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि राज्य में 25 हजार डाक्टरों की जरूरत है जबकि इसके पास केवल 10,000 डाक्टर ही हैं।
 
पंजाब की स्थिति भी कुछ भिन्न नहीं है। यहां भी सरकारी अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में बड़ी संख्या में डाक्टरों के स्थान रिक्त हैं। हालांकि हाल ही में 250 नए डाक्टर भर्ती करने के लिए स्वीकृति मिल चुकी है तथा 401 डाक्टर पहले ही भर्ती किए जा चुके हैं परंतु अभी भी पंजाब के सरकारी अस्पताल डाक्टरों व अन्य सुविधाओं से वंचित हैं। अनेक स्थानों पर चिकित्सा के लिए जरूरी उपकरण नहीं हैं और जहां हैं भी या तो वे गोदामों में बंद पड़े हैं या उनका समुचित इस्तेमाल नहीं किया जा रहा। 
 
उल्लेखनीय है कि भारत में अन्य देशों की तुलना में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर बहुत कम धन खर्च किया जाता है। वर्ष 2012 में भारत ने अपने कुल जी.डी.पी. का मात्र 4 प्रतिशत के लगभग ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया था जबकि ब्राजील और चीन जैसे देशों ने इस अवधि में इस मद पर क्रमश: 9.3 प्रतिशत और 5.4 प्रतिशत राशि खर्च की। 
 
कुल मिलाकर भारत में चिकित्सा का परिदृश्य अत्यंत निराशाजनक है जिसमें ऊपर से लेकर नीचे तक प्रत्येक स्तर पर लापरवाही और जवाबदेही के अभाव का बोलबाला है। अव्वल तो अस्पतालों में रोगियों के लिए दवाओं और समुचित सुविधाओं का प्रबंध हो नहीं पाता और होता भी है तो कर्मचारियों की लापरवाही के चलते आम लोगों तक उनका लाभ पहुंच ही नहीं पाता।
 
इसके लिए न सिर्फ चिकित्सा संस्थानों में नवीनतम मशीनें, उन्हें चलाने के लिए सक्षम तकनीकी व अन्य स्टाफ के साथ-साथ दूसरी सभी जरूरी सुविधाएं उपलब्ध करवाने तथा संबंधित स्टाफ की जवाबदेही तय करना भी जरूरी है ताकि उन सुविधाओं का लाभ जरूरतमंदों तक पहुंचे।       

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