Edited By ,Updated: 20 Oct, 2025 03:12 AM

आज हर जगह दलित समुदाय के सदस्य ङ्क्षहसा का शिकार हो रहे हैं। अकेले अक्तूबर के महीने में ही दलितों के विरुद्ध ङ्क्षहसा और उत्पीडऩ की अनेक घटनाएं सामने आई हैं जिससे लोगों में भारी रोष व्याप्त है।
अभी हाल ही में 6 अक्तूबर को एक दलित लड़का कालेज में...
आज हर जगह दलित समुदाय के सदस्य हिंसा का शिकार हो रहे हैं। अकेले अक्तूबर के महीने में ही दलितों के विरुद्ध हिंसा और उत्पीडऩ की अनेक घटनाएं सामने आई हैं जिससे लोगों में भारी रोष व्याप्त है। अभी हाल ही में 6 अक्तूबर को एक दलित लड़का कालेज में जातिवादी हिंसा का शिकारहुआ और इसके कुछ ही दिन बाद एक अन्य लड़के का मामला सामने आया कि वह यू.के. में है और पुणे में उसके कालेज ने उसे दलित होने केकारण सर्टीफिकेट नहीं दिया।
मध्य प्रदेश के ‘कटनी’ जिले में अवैध खनन का विरोध करने पर एक दलित युवक पर हमला करके उसके साथ मारपीट और उसके मुंह पर पेशाब किया गया। इसी प्रकार रोहड़ू (हिमाचल प्रदेश) में एक जातिवादी घटना के परिणामस्वरूप 12 वर्षीय एक दलित बालक ने आत्महत्या कर ली। 7 अक्तूबर को हरियाणा के इंस्पैक्टर जनरल वाई. पूरन कुमार ने आत्महत्या कर ली और इसके लिए उन्होंने अपने सुसाइड नोट में अपने ही विभाग के चंद सहकर्मियों पर जातिवाद के आधार पर उत्पीडऩ करने के आरोप लगाए।
इन सब घटनाओं को देखते हुए मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है? क्योंकि वैदिक काल के आरंभिक दौर (1500-1000 ई.पू.) में जब ऋग्वेद की रचना हुई तब जाति प्रथा शुरू हुई और समाज को 4 वर्णों में बांटा गया। तब जाति प्रथा लचीली थी। ऋग्वेद की एक ऋचा में कहा गया है कि ‘मैं एक कलाकार हूं, मेरे पिता एक व्यापारी हैं और मेरी मां अनाज पीसने का काम करती है’ जो इस बात का संकेत है कि वह शूद्र है, पिता वैश्य और वह स्वयं कलाकार है अर्थात तब किसी भी व्यक्ति के व्यवसाय के आधार पर जाति का निर्धारण होता था, जन्म के आधार पर नहीं और वह काम के आधार पर बदला भी जा सकता था।
इसी ऋचा से स्पष्टï है कि पिता का व्यवसाय कुछ और, मां का कुछ और तथा बेटे का व्यवसाय कुछ और होता था तथा उसी के आधार पर जाति का निर्धारण होता था। यही नहीं, राजा का पद भले ही वंशानुगत होता था परंतु उसे सम्पूर्ण शक्तियां नहीं दी जाती थीं। ऐसा नहीं था कि यदि वह क्षत्रिय है तो उसे सर्वोच्च अधिकार मिल गए, उसके ऊपर धर्म गुरू तथा सभा समितियां होती थीं। वैश्य समुदाय (व्यापारी) पर भी यही सिद्धांत लागू होता था और मंदिरों के पुजारियों तक भी यह सिद्धांत लागू होता था। परंतु उत्तर वैदिक काल में जाति प्रथा में कट्टïरता आ गई और जन्म के आधार पर जाति तय की जाने लगी अर्थात लोगों के प्रगति के साधनों और शिक्षा को सीमित कर दिया गया कि तुम बढ़ नहीं सकते, समाज में जहां तुम पैदा हुए हो तुम वहीं रहोगे। इस कुरीति में सुधार करने के लिए भारत में 17वीं तथा 18वीं सदी में अनेक सुधारवादी आंदोलन चले।
स्वामी नारायण जो उस समय एक युवा थे, ने 1781 में ‘स्वामी नारायण सम्प्रदाय’ की स्थापना की और ‘अक्षर धाम’ के नाम से देश-विदेश में सैंकड़ों मंदिरों का निर्माण करवाया। उनका यही कहना था कि कोई ऊंच-नीच और छोटा-बड़ा नहीं है। उन्होंने लोगों को एकांतिक धर्म, अङ्क्षहसा,भक्ति और उच्च नैतिकता की शिक्षा दी। फिर 18वीं शताब्दी में जब फिर से यह चर्चा शुरू हुई तो उसी दौर में भारत में उभरने वाले रामकृष्ण परमहंस, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद आदि सभी समाज सुधारकों ने समझाया कि जाति प्रथा को हमने इस रूप में नहीं अपनाना है क्योंकि सब जन एक समान हैं। वास्तव में उसके बाद जब महात्मा गांधी ने यह कहा कि कोई व्यक्ति समाज में तथाकथित छोटी जाति कहलाने वालों को शूद्र कह कर नहीं बुलाएगा क्योंकि सब लोग एक समान हैं और उन्होंने उनके घर में जाकर खाना खाया तब महात्मा गांधी का अधिकांश विरोध इस बात को लेकर हो रहा था कि वह समाज के हर सदस्य को एक समान बनाना चाहते थे। इससे भी बड़ी बात यह है कि जब हमारा संविधान ही यह कहता है कि सब जन एक समान हैं तो फिर किसी के छोटा या बड़ा होने की बात कहां से आती है?
अपने पाठकों और शुभङ्क्षचतकों को दीवाली की बधाई देते हुए और उनकी सुख-समृद्धि की कामना करते हुए कहना चाहते हैं कि हमें भगवान राम की इस शिक्षा को याद रखने की आवश्यकता है कि चाहे शबरी थी, या कोई और था, भगवान राम ने किसी के साथ भेदभाव नहीं किया बल्कि भगवान राम ने तो शबरी के जूठे बेर भी खाए थे। तो यदि हमने सही अर्थों में श्री राम के प्रति अपनी आस्था को प्रकट और राम राज्य की कल्पना को साकार करना है तो हम भगवान श्री राम के आदर्शों और सिद्धांतों का पालन करें। उन्होंने समाज में समानता का पक्ष लिया और उनके लिए कोई छोटा-बड़ा या छूत-अछूत नहीं था। यदि हम आज के दिन विष्णु के सातवें अवतार श्री राम को याद करते हैं तो इसके लिए सिर्फ मिठाई खाने या पटाखे फोडऩे से बात नहीं बनेगी, हमें श्री राम के सिद्धांतों को भी अपने जीवन में उतारना और सिद्ध करना होगा कि समाज में सब एक समान हैं और सबको भयमुक्त समाज में सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है।