‘मुफ्त के चुनावी तोहफों पर’ ‘सुप्रीमकोर्ट एक्शन में’

Edited By ,Updated: 28 Jul, 2022 03:31 AM

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देश स्वतंत्र होने के बाद भी चुनावों पर उम्मीदवारों का खर्च होता था, परंतु राशि आज की तुलना में नाममात्र ही होती थी। उन दिनों ज्यादातर उम्मीदवार घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते थे। अब तो एक पार्षद के चुनाव पर भी 10 लाख रुपए तक खर्च आ जाता है, जबकि बड़े...

देश स्वतंत्र होने के बाद भी चुनावों पर उम्मीदवारों का खर्च होता था, परंतु राशि आज की तुलना में नाममात्र ही होती थी। उन दिनों ज्यादातर उम्मीदवार घर-घर जाकर चुनाव प्रचार करते थे। अब तो एक पार्षद के चुनाव पर भी 10 लाख रुपए तक खर्च आ जाता है, जबकि बड़े शहरों में यह राशि 20-25 लाख रुपए तक पहुंच जाती है।

विधायक के चुनाव पर 2-3 करोड़ और सांसद के चुनाव पर 10 करोड़ रुपए से कम खर्च की कल्पना करना ही व्यर्थ है। जब भी चुनाव निकट आते हैं, राजनीतिक पाॢटयां मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रलोभनों का पिटारा खोल देती हैं। इसकी बड़े पैमाने पर शुरूआत तमिलनाडु की दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने की थी और तब से यह सिलसिला देश में हर आने वाले चुनाव के साथ-साथ बढ़ता ही जा रहा है। अब तक तो पार्टियां मतदाताओं को लुभाने के लिए विभिन्न रियायतों और सुविधाओं के अलावा शराब, साइकिल, नकद राशि, साडिय़ां, चावल, गेहूं, आटा, मिक्सर ग्राइंडर आदि बांटती रही हैं, परंतु अब इनमें और वस्तुएं जुड़ गई हैं।

यही नहीं, चुनाव जीतने पर विभिन्न पाॢटयों द्वारा मुफ्त बिजली, पानी, चिकित्सा, देश तथा विदेश में मुफ्त शिक्षा, छात्राओं को स्कूटरी, स्मार्ट फोन, लैपटॉप, बेघरों को घर, नौकरियों में आरक्षण, नौकरी, बेरोजगारी भत्ता, बुढ़ापा पैंशन देने, महिलाओं को मुफ्त यात्रा और बुजुर्गों को तीर्थ यात्रा, सस्ती दरों पर राशन, किसानों को ऋण माफी, फ्री गैस कनैक्शन और गैस सिलैंडर, सरकारी कर्मियों को वेतन वृद्धि आदि की घोषणाएं भी की जाती हैं।

यही कारण है कि इन दिनों देश में राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी प्रलोभनों की घोषणाओं से सरकारी खजाने पर पडऩे वाले बोझ को लेकर बहस छिड़ी हुई है। इसी सम्बन्ध में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए 31 मार्च, 2021 को मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था कि : लोक-लुभावन वायदे करने के मामले में हर राजनीतिक पार्टी एक-दूसरे से आगे निकल जाना चाहती है। यह तमाशा दशकों से जारी है, जो हर पांच वर्ष बाद दोहराया जा रहा है।’’ इसी प्रकार हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में दायर एक जनहित याचिका में चुनाव जीतने के लिए जनता को मुफ्त सुविधाएं या चीजें बांटने के वायदे करके उनके वोट खरीदने की कोशिश करने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द करने की मांग की गई है,‘‘क्योंकि इससे चुनाव प्रक्रिया दूषित होती है और सरकारी खजाने पर अनावश्यक बोझ पड़ता है।’’

इस पर सुनवाई करते हुए 26 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एन.वी. रमन्ना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली पर आधारित पीठ ने चुनावों में मुफ्त सुविधाएं या चीजें बांटने का वादा करने वाली राजनीतिक पार्टियों पर नियंत्रण बारे केंद्र सरकार को अपना रुख स्पष्ट करने को कहा है। राजनीतिक दलों द्वारा अव्यावहारिक चुनावी वायदों को गंभीर समस्या बताते हुए जस्टिस रमन्ना ने कहा, ‘‘यह अत्यंत गंभीर मामला है। आखिर केंद्र सरकार इस पर अपना रुख स्पष्ट करने में क्यों हिचक रही है? सरकार वित्त आयोग से इस विषय पर राय पूछकर कोर्ट को अवगत कराए।’’

चुनाव आयोग के वकील के यह कहने पर कि आयोग ऐसी घोषणाओं पर रोक नहीं लगा सकता, माननीय न्यायाधीशों ने कहा,‘‘यदि मुफ्त के उपहारों के जरिए मतदाताओं को रिश्वत देने के मामले में भारत का चुनाव आयोग केवल मजबूरी में अपने हाथ ही मल सकता है, तब तो इसका भगवान ही रखवाला है।’’ अदालत ने इस बारे अगली सुनवाई के लिए 3 अगस्त की तारीख तय कर दी है।

अत: सुप्रीमकोर्ट के माननीय न्यायाधीशों की चुनावी उपहारों पर नियंत्रण पाने के बारे में की गई टिप्पणियों का संज्ञान लेते हुए केंद्र सरकार को यह बात यकीनी बनानी चाहिए कि राजनीतिक दल अव्यावहारिक वायदे न करें। मुफ्त के चुनावी उपहार कह कर बांटी गई वस्तुओं की कीमत सरकारें टैक्स के रूप में वसूल करती हैं, जो केवल अमीर लोगों को ही नहीं बल्कि गरीबों को भी अदा करना पड़ता है।

चुनाव के दौरान जनता को मुफ्त की सुविधाएं देने वाले देशों के बढ़े हुए खर्च के चलते उन पर कर्ज भी लगातार बढ़ रहा है और इस मामले में श्रीलंका का उदाहरण हमारे सामने है जो किसी सरकार द्वारा लोगों को अंधाधुंध रियायतें देने के कारण कंगाल हो गया है। अत: इस मामले में वित्त आयोग को पूरी पड़ताल करके कोर्ट को सही रिपोर्ट देनी चाहिए ताकि देश की राजनीति में मतदाताओं को लालच देकर वोट प्राप्त करने के रुझान पर लगाम लग सके और चुनाव निष्पक्ष हो सकें।—विजय कुमार

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