पाम तेल पर निर्भरता घटाने के लिए बढ़ाना होगा देसी तेलों का उत्पादन

Edited By ,Updated: 29 Nov, 2021 03:45 AM

production of indigenous oils will have to be increased

विश्व में पाम ऑयल का सर्वाधिक उपयोग भारत में किया जाता है लेकिन भारत को अपनी कुल खपत का 60 प्रतिशत से अधिक तेल इंडोनेशिया और मलेशिया से आयात करना पड़ता है। यही दोनों देश दुनिया में इसके सबसे बड़े उत्पादक हैं। भारत कच्चे तेल और सोने के बाद तीसरा...

विश्व में पाम ऑयल का सर्वाधिक उपयोग भारत में किया जाता है लेकिन भारत को अपनी कुल खपत का 60 प्रतिशत से अधिक तेल इंडोनेशिया और मलेशिया से आयात करना पड़ता है। यही दोनों देश दुनिया में इसके सबसे बड़े उत्पादक हैं। भारत कच्चे तेल और सोने के बाद तीसरा सर्वाधिक कीमत का आयात खाने के तेल का ही करता है। 

गत एक वर्ष के दौरान खाद्य तेलों के आयात पर भारत का खर्च 1.17 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। यह रकम इसलिए भी चौंकाने वाली है क्योंकि इससे ठीक एक वर्ष पहले यह खर्च 71,625 डॉलर था। इसके बावजूद भारत में देसी तेलों को बढ़ावा देने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है। ऐसा नहीं है कि देश में खाद्य तेलों की खपत एक साल में इतनी अधिक बढ़ गई। वास्तव में आयात की मात्रा एक समान-लगभग 13 मिलियन टन -रही लेकिन पाम और सोया तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में बढ़ौतरी के कारण इनके मूल्य में तेजी से वृद्धि हुई। 

दुनिया भर में खाद्य तेलों के मूल्य में वृद्धि के प्रमुख कारण महामारी के कारण हुई श्रम की कमी, चीन से अधिक मांग और जैव ईंधन उत्पादन के लिए तिलहन का प्रयोग बढऩा है। बार-बार शुल्क में कटौती के बावजूद घरेलू खुदरा कीमतों में अक्तूबर में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई जिसने आम लोगों का घरेलू बजट गड़बड़ा दिया है। 

भारत में खाना पकाने के लिए रिफाइंड ऑयल और वनस्पति तेल आदि नाम से मिलने वाले पाम ऑयल का इस्तेमाल सर्वाधिक होता है। इसके अलावा यहां सरसों, नारियल और मूंगफली के तेल का इस्तेमाल भी होता है लेकिन भारत में अन्य खाद्य तेलों में भी पाम ऑयल मिलाया जाता है। इस तरह भारत में इस्तेमाल होने वाले कुल खाद्य तेलों में पाम ऑयल का हिस्सा लगभग दो-तिहाई होता है। खाद्य तेलों के आयात पर अत्यधिक निर्भरता के कारण भारत को इनके लिए भारी मूल्य चुकाना पड़ा। भारत में इनकी आधे से भी कम खपत सरसों, मूंगफली और सोयाबीन जैसे तिलहनों के घरेलू उत्पादन से पूरी होती है। 

1986 और 1995 के बीच उत्पादन लगभग दोगुना होने के बाद 1990 के दशक के मध्य में भारत ने इनमें आत्मनिर्भरता प्राप्त की थी लेकिन मलेशिया और इंडोनेशिया से पाम तेल के सस्ते आयात को नगण्य शुल्क पर अनुमति देने के बाद घरेलू उत्पादकों ने इनके उत्पादन में रुचि खो दी। अब वर्षा आधारित क्षेत्रों में गरीब किसान ही तिलहन उगा रहे हैं, इसलिए कम उत्पादकता है। 1995 के बाद उत्पादन में धीमी वृद्धि बढ़ती मांग को पूरा करने में असमर्थ रही। उपभोक्ताओं को मूल्य वृद्धि से बचाने के लिए सरकार ने अक्सर आयात शुल्क कम किए। इस वर्ष उसने कच्चे पाम तेल पर शुल्क 36 प्रतिशत से घटाकर 8 प्रतिशत कर दिया। कच्चे सोयाबीन तेल पर भी शुल्क 39 प्रतिशत से घटाकर 5.5 प्रतिशत कर दिया गया है। 

दूसरी ओर अगस्त में सरकार ने खाद्य तेलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए 11,000 करोड़ के बजट के साथ पाम ऑयल पर ‘नैशनल मिशन फॉर एडिबल ऑयल-ऑयल पाम’ नामक एक राष्ट्रीय अभियान शुरू किया है परंतु स्थिति को सुधारने की दिशा में ये कदम बहुत सीमित ही कहे जाएंगे क्योंकि पाम ऑयल की उचित पैदावार प्राप्त करने में 5 से 7 वर्ष लगते हैं। भारत में फिलहाल 3 लाख हैक्टेयर भूमि पर पाम की खेती हो रही है, इसमें 6.5 लाख हैक्टेयर अर्थात सिक्किम के बराबर जमीन पर खेती और बढ़ाई जानी है। राष्ट्रीय मिशन का लक्ष्य वर्ष 2030 तक घरेलू उत्पादन में लगभग 2.5 मिलियन टन पाम तेल जोडऩा है। 

बढ़ती जनसंख्या के कारण निकट भविष्य में खपत में मामूली वृद्धि होने पर भी भारत को आयातित तेलों पर ही बहुत अधिक निर्भर रहना होगा। इसके अलावा पाम की खेती में बहुत अधिक पानी की खपत होती है जो मलेशिया जैसे इलाकों के लिए उपयुक्त है जहां साल भर बारिश होती है। देश में इसका सबसे बड़ा उत्पादक आंध्र प्रदेश भूजल पर आश्रित है और वहां इसे उगाना पर्यावरण के लिए हित में नहीं है। सरकार ने तापमान और नमी के मामले में अनुकूल होने के चलते पाम की खेती के लिए पूर्वोत्तर राज्यों तथा अंडेमान-निकोबार को चुना है परंतु इसे लेकर भी जानकारों ने चिंता जाहिर की है। 

उनके अनुसार पूर्वोत्तर राज्य पर्यावरण के लिहाज से अत्यंत संवेदनशील हैं। ‘सैंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर’ के अनुसार सरकार की योजना पाम को बहुत बड़े इलाके में लगाने की है और यह डर का बड़ा कारण भी है। ऐसा करने पर ये तापमान, मौसम और मानसून के पैटर्न को बदल सकते हैं। इसके अलावा खेती में कैमिकल के इस्तेमाल से जमीन तथा आसपास के वनों को भी बहुत क्षति हो सकती है। इन मुश्किलों के बीच प्रश्न पैदा होता है कि ऐसे में सरकार खाद्य तेलों पर आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए क्या कदम उठा सकती है? 

भारत ने 1990 के दशक के मध्य में सरसों और मूंगफली जैसे देसी तिलहनों पर ध्यान केंद्रित करके और तेल सहकारी समितियों को बढ़ावा देकर आत्मनिर्भरता प्राप्त की थी। हम उसी सफलता को दोहरा सकते हैं। केन्द्र सरकार अधिक तिलहन और दलहन उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित कर सकती है जिनकी भारत को कमी है। 

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