अपना सब कुछ बेटों के हवाले कर देने वाले ‘एक बुजुर्ग की दुखद कहानी’

Edited By Punjab Kesari,Updated: 31 Aug, 2017 11:31 PM

the sad story of an elderly who handed over everything to his sons

प्राचीन काल में माता-पिता के एक ही आदेश पर संतानें सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहती...

प्राचीन काल में माता-पिता के एक ही आदेश पर संतानें सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार रहती थीं पर आज जमाना बदल गया है। बुढ़ापे में जब बुजुर्गों को बच्चों के सहारे की सर्वाधिक जरूरत होती है, अपनी गृहस्थी बन जाने के बाद अधिकांश संतानें जमीन-जायदाद अपने नाम लिखवाकर माता-पिता की ओर से आंखें फेर कर उन्हें अकेला छोड़ देती हैं। 

अक्सर ऐसे बुजुर्ग मेरे पास अपनी पीड़ा व्यक्त करने के लिए आते रहते हैं जिनकी दुख भरी कहानियां सुन कर मन बेचैन हो उठता है। अपने 18 अगस्त के संपादकीय सशीर्षक ‘होना एक औद्योगिक घराने के मालिक का बेटे के हाथों मोहताज’ में मैंने रेमंड समूह के मालिक डा. विजयपत सिंघानिया की दुखद गाथा का उल्लेख किया था जो अपनी ही सम्पत्ति का अधिकार दोबारा प्राप्त करने के लिए अपने पुत्र गौतम सिंघानिया के साथ कानूनी लड़ाई में उलझे हुए हैं। इसी संबंध में मुझे जालंधर के एक गांव से एक भाई श्री कुलदीप कुमार (बदला हुआ नाम) का पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने अपनी दुख भरी कहानी व्यक्त की है। वह लिखते हैं:

‘‘मुझे नहीं मालूम कि कानून के अनुसार डा. सिंघानिया अपनी सम्पत्ति आदि वापस ले सकते हैं या नहीं परंतु संतान के लिए यह अत्यंत लज्जाजनक है और यदि सिंघानिया जी सम्पत्ति वापस ले सकते हों तो अवश्य ऐसी संतान को सबक सिखाना चाहिए।’’ ‘‘इसी विषय में मैं भी अपनी गलती को स्वीकार करते हुए कुछ शब्द लिखना चाहता हूं और चाहता हूं कि इसे पढ़ कर प्रत्येक मां-बाप इससे कुछ सबक लें और अपना भविष्य सुरक्षित करें।’’ ‘‘लगभग 10 वर्ष पूर्व मेरे दोनों बेटों की शादी के बाद घर में अशांति रहने लगी तो आखिरकार मैंने अपने दोनों कारोबार और मकान उन दोनों में बांट कर उनके हवाले कर दिए। उसी के अनुसार यह तय हुआ कि दोनों बेटे मुझे प्रति मास एक निश्चित रकम मेरे खर्चे के लिए देंगे।’’ 

‘‘इसके बाद मैं चौकीदार की तरह उन दोनों के काम में हाथ बंटाता रहा। कुछ समय तक तो सब ठीक-ठाक चलता रहा परंतु 2 वर्ष के बाद उन्होंने मुझे खर्च के लिए पैसे देना बंद कर दिया। मेरे पास कुछ रकम थी सो मैं अपना काम उससे चलाता रहा।’’ ‘‘आज हालत यह है कि मैं अपने ही घर में एक अजनबी की तरह रहता हूं और मुझे किसी प्रकार का कोई अधिकार अपने ही घर में प्राप्त नहीं है।’’ ‘‘मेरा एक एन.आर.आई. मित्र इसी दौरान यहां आया तो उसने मुझे बताया कि इंगलैंड में तो मां-बाप अपने बच्चों का तब तक ख्याल रखते हैं जब तक वे बालिग नहीं हो जाते। इसके बाद वे उनसे साफ कह देते हैं कि यदि हमारे साथ रहना है तो घर का किराया व बाकी सब खर्चे दो। नहीं तो जहां जी चाहे वहां जाकर रहो।’’ 

‘‘हमारे समाज में यह बात भले ही अजीब लगे परंतु यह बात बच्चों को बेकार इधर-उधर घूमने और मां-बाप की दौलत पर ऐश करने की सुविधा देने की बजाय उन्हें एक जिम्मेदार नागरिक तो बनाती ही है। जब हम पाश्चात्य समाज की चंद बुरी बातें अपना रहे हैं तो क्या हमें उनकी अच्छी बातें नहीं अपनानी चाहिएं? और यहां जो बच्चे अपने माता-पिता की परवाह नहीं करते उन्हें अपनी सम्पत्ति से बेदखल नहीं करना चाहिए?’’ ‘‘आशा है कि आप मेरे अनुभव को अपने समाचारपत्रों के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाएंगे ताकि वे इससे सबक लेकर अपना बुढ़ापा खराब न होने दें।’’ 

उक्त पत्र में व्यक्त श्री कुलदीप कुमार के विचारों से मैं पूर्णत: सहमत हूं। इसीलिए हम अपने लेखों में यह बार-बार लिखते रहते हैं कि माता-पिता अपनी सम्पत्ति की वसीयत तो (बच्चों के नाम) अवश्य कर दें परंतु उन्हें जायदाद ट्रांसफर न करें। ऐसा करके वे अपने जीवन की संध्या में आने वाली अनेक परेशानियों से बच सकते हैं।—विजय कुमार 

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