दान करने में क्यों पीछे हैं भारतीय रईस

Edited By ,Updated: 08 Apr, 2019 03:45 AM

why are indians behind the donation

दान करना भारतीय परम्परा का अहम हिस्सा रहा है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी इसके कितने ही महान उदाहरण हमें मिलते हैं। राजा हरिश्चंद्र से लेकर ऋषि दधीचि तक परोपकार के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने के आदर्श हमारे समक्ष हैं। परंतु भारत वर्ष में बिना...

दान करना भारतीय परम्परा का अहम हिस्सा रहा है। हमारे धार्मिक ग्रंथों में भी इसके कितने ही महान उदाहरण हमें मिलते हैं। राजा हरिश्चंद्र से लेकर ऋषि दधीचि तक परोपकार के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने के आदर्श हमारे समक्ष हैं। परंतु भारत वर्ष में बिना शोर-शराबा किए दान देना बहुत कम हो चुका है। 

हाल ही में आई.टी. उद्योग के दिग्गज भारतीय अरबपति अजीम प्रेमजी अपनी सम्पत्ति के एक बड़े हिस्से को दान करने को लेकर सुर्खियों में थे। 52,750 करोड़ रुपए (7.5 अरब डॉलर) मूल्य के शेयर दान करने की इस घोषणा के साथ ही अब तक वह कुल 1,45,000 करोड़ रुपए अर्थात 21 अरब डॉलर की राशि दान कर चुके हैं। इसके साथ ही उनका नाम विश्व के उन दानवीरों की सूची में शामिल हो गया है जिनमें बिल व मेलिंडा गेट्स और वॉरेन बफेट जैसे दानियों का नाम आता है जो अपनी लगभग सारी सम्पत्ति परोपकार के लिए दे चुके हैं। 

हालांकि, जो बात अजीम प्रेमजी को उनसे अलग करती है, वह यह है कि उनकी तरह वह दुनिया के 5 सबसे धनाढ्य लोगों में से एक नहीं हैं। इस मामले में वह 51वें स्थान पर हैं। फिर भी वह भारतीय तथा विश्व के सबसे अधिक दान करने वाले धनाढ्यों में से एक हैं। 2013 में वह ‘गिविंग प्लैज’ पर हस्ताक्षर करने वाले पहले भारतीय अरबपति बन गए। बिल गेट्स तथा वारेन बफेट की यह पहल धनी लोगों को परोपकार के लिए अधिक से अधिक दान करने के लिए प्रोत्साहित करती है। 21 साल की उम्र में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई छोड़ कर अजीम प्रेमजी ने अपने पिता द्वारा शुरू की गई कम्पनी विप्रो का कामकाज सम्भाला था। उनके नेतृत्व में वनस्पति तेलों की रिफाइनरी विप्रो देश की सबसे बड़ी और सफल आई.टी. कम्पनी में बदल गई। 

मितव्ययी जीवनशैली के लिए प्रसिद्ध अजीम प्रेमजी को सुर्खियों से दूर रहना पसंद है। उनकी इस आदत के चलते भी उनके प्रशंसकों की एक बड़ी जमात है। उन्हें सार्वजनिक रूप से या मीडिया से बात करते भी कम ही सुना जाता है। उनके दान के बारे में अजीम प्रेमजी फाऊंडेशन की ओर से एक सादा-सा बयान जारी हुआ था और जब यह खबर खूब सुर्खियां बटोरने लगी तो इस पर उन्होंने हैरानी जाहिर की थी। वैसे दान के प्रति उदार भारतीय धनाढ्यों में प्रेमजी अकेले नहीं हैं। आई.टी. अरबपति नंदन और रोहिणी नीलेकणी ने अपनी सम्पत्ति का 50 प्रतिशत हिस्सा परोपकार के लिए रखा है, बायोकॉन की किरण मजूमदार शॉ ने 75 प्रतिशत हिस्सा और कई अन्य औद्योगिक परिवार अस्पतालों, स्कूलों, सामुदायिक रसोइयों, कला से लेकर वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए फंड देते रहे हैं। भारत के सबसे बड़े और सबसे पुराने औद्योगिक घरानों में से एक टाटा ट्रस्ट दशकों से भारत का सबसे बड़ा परोपकारी संगठन रहा है। 

फिर भी अजीम प्रेमजी दान के मामले में उन सबसे कहीं आगे निकल चुके हैं। इसका पता इस तथ्य से चलता है कि साल 2018 में देश के धनाढ्यों द्वारा दिए गए धन का 80 प्रतिशत हिस्सा उनकी ओर से ही आया है। हालांकि, जानकारों की मानें तो भारत में परोपकार अवश्य बढ़ रहा है लेकिन पर्याप्त तेजी से नहीं। भारत में परोपकार की दर 2014 से 2018 के बीच प्रतिवर्ष 15 प्रतिशत रही है जबकि गत 5 वर्षों के दौरान भारतीय धनाढ्यों की विकास दर 12 प्रतिशत थी और उनकी सम्पदा के 2022 तक दोगुना होने का अनुमान है। हर साल अमेरिका में किए जाने वाले दान से तुलना करें तो भारतीय रईस सालाना 5 से 8 बिलियन डॉलर तक अधिक दान कर सकते हैं। 

सवाल है कि आखिर कौन-सी बात उन्हें ऐसा करने से रोकती है? परोपकार के क्षेत्र में काम करने वाले कुछ विशेषज्ञों की मानें तो एक डर उन्हें आयकर विभाग का भी है। दूसरी वजह दान दी गई राशि का उचित इस्तेमाल न होने का संशय हो सकता है। तीसरी वजह हो सकती है कि भारत में कई लोगों के पास धन-दौलत केवल एक पीढ़ी पुरानी है इसलिए खूब पैसा होने के बावजूद वे खुद को इतना सुरक्षित नहीं समझते कि खुल कर दान करें। वैसे तो भारतवर्ष में हिन्दुओं में गुप्तदान, मुसलमानों में जकात तथा सिखों में दसवंद की प्रथा है परंतु केवल धन की ही नहीं समाज और देश को श्रमदान की भी जरूरत है। यदि हमें वास्तव में समाज को बदलना है तो हमें अजीम प्रेम जी जैसे लोगों की जरूरत होगी। 

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