जम्मू-कश्मीर में नई सुबह ला सकती है बदलाव का दौर

Edited By Pardeep,Updated: 09 Sep, 2018 04:36 AM

a new dawn in jammu and kashmir can change

पी.डी.पी. -भाजपा गठबंधन सरकार का पतन होने के बाद से जम्मू-कश्मीर बदलाव के दौर से गुजर रहा है। राज्य में राज्यपाल शासन लागू है और लम्बे अर्से के बाद राज्यपाल पद का जिम्मा भी एक राजनेता के कंधों पर आ गया है। पुलिस महानिदेशक पद पर नए अधिकारी की...

पी.डी.पी. -भाजपा गठबंधन सरकार का पतन होने के बाद से जम्मू-कश्मीर बदलाव के दौर से गुजर रहा है। राज्य में राज्यपाल शासन लागू है और लम्बे अर्से के बाद राज्यपाल पद का जिम्मा भी एक राजनेता के कंधों पर आ गया है। पुलिस महानिदेशक पद पर नए अधिकारी की नियुक्ति हुई है। राज्य में पंचायतीराज संस्थाओं और शहरी स्थानीय निकाय चुनावों की घोषणा हो चुकी है। निश्चित तौर पर इससे नई सुबह का आभास होता है, लेकिन राज्य प्रशासन के समक्ष बाधाएं और चुनौतियां भी कम नहीं हैं।

एक तरफ तो ऑप्रेशन ऑलआऊट से बौखलाए आतंकवादियों ने छुट्टी पर आए पुलिस कर्मचारियों और उनके रिश्तेदारों को निशाना बनाना शुरू कर दिया है, दूसरी तरफ  कश्मीर आधारित दोनों प्रमुख दलों नैशनल कांफ्रैंस एवं पी.डी.पी. ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35-ए की आड़ लेकर पंचायतीराज संस्थाओं और शहरी निकायों के आगामी चुनावों का बहिष्कार करने की घोषणा कर दी है। ऐसे में, मामला चाहे चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों की सुरक्षा सुनिश्चित करके चुनाव सम्पन्न करवाने का हो, आतंकवाद के खात्मे का हो, अलगाववाद पर अंकुश लगाने का हो या 35-ए पर सर्वोच्च न्यायालय में न्यायोचित रुख स्पष्ट करने का हो, केंद्र सरकार और राज्यपाल सत्यपाल मलिक को किसी दबाव में आए बिना, दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कड़े निर्णय लेने से परहेज नहीं करना चाहिए। 

दिलचस्प पहलू यह है कि आज जो दल चुनावों का बहिष्कार कर रहे हैं, वही दल पिछले माह 27 अगस्त को कारगिल में हुए लद्दाख पहाड़ी स्वायत्त विकास परिषद के चुनाव मैदान में बढ़-चढ़कर उतरे थे। इन चुनावों में नैशनल कांफ्रैंस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। सवाल यह उठता है कि यदि 35-ए इस समय मुद्दा है तो कुछ दिन पूर्व ही कारगिल के चुनावों में मुद्दा क्यों नहीं था। नाटकीय ढंग से पहले हुर्रियत कांफ्रेंस ने चुनाव बहिष्कार का आह्वान किया, फिर नैशनल कांफ्रैंस ने चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर दी और इसके बाद अब पी.डी.पी. ने भी चुनाव बहिष्कार की घोषणा कर दी है। इस प्रकार अलगाववादियों और मुख्यधारा की पाॢटयों के बीच इस मुद्दे पर सहमति बनती दिखाई पड़ रही है। संभव यह भी है कि इन पार्टियों को कश्मीर में लोगों की नाराजगी के चलते अपना सूपड़ा साफ होने का डर सता रहा हो। 

नि:संदेह, कश्मीर की राजनीति को समझना बेहद मुश्किल काम है और कश्मीरी नेता हैं कि उनका हर कदम पूर्व नियोजित होता है। नैशनल कांफ्रैंस अध्यक्ष एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री डा. फारूक अब्दुल्ला चाहे अलगाववादी विचारधारा के कश्मीरी युवाओं को आकॢषत करने के लिए आतंकवादियों को कौम के सिपाही बताएं या पाक अधिकृत कश्मीर पर भारत के दावे को सिरे से नकार दें और फिर नई दिल्ली पहुंचकर राष्ट्रवादी ताकतों को आकॢषत करने के लिए ‘जय हिन्द’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाएं, उनके भाषणों की पटकथा बहुत सोच-समझकर लिखी गई होती है। हालांकि, नैशनल कांफ्रैंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला और पी.डी.पी. अध्यक्षा महबूबा मुफ्ती का अंदाज डा. फारूक अब्दुल्ला से थोड़ा अलग है। ये दोनों पूर्व मुख्यमंत्री अलग-अलग जगह अलग-अलग भाषणबाजी के लिए तो बेशक बदनाम नहीं हैं, लेकिन कुछ मुद्दों पर उनकी चुप्पी व कुछ पर मुखरता उन्हें भी कटघरे में खड़ा करती है। विशेष तौर पर हर मुद्दे पर ट्वीट करने वाले उमर अब्दुल्ला उनके पिता के विरोधाभासी बयानों पर हमेशा टिप्पणी करने से कतराते हैं। 

जहां तक कानून व्यवस्था का सवाल है तो जम्मू-कश्मीर अब शांति एवं सामान्य हालात की तरफ बढ़ रहा है। ऐसे में बौखलाहट के मारे आतंकवादी अब छुट्टी में घर गए पुलिस कर्मचारियों और उनके रिश्तेदारों को निशाना बना रहे हैं। पिछले दिनों आतंकवादियों द्वारा कई पुलिस कर्मचारियों की हत्या कर दी गई और फिर एक साथ 11 पुलिस कर्मचारियों एवं अधिकारियों के सगे-संबंधियों का अपहरण इसका पुख्ता उदाहरण है। इस मुद्दे पर भी मुख्यधारा के राजनेताओं का रुख चौंकाने वाला है। राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती इसे सुरक्षा बलों द्वारा आतंकवादियों के परिजनों को हिरासत में लेने की प्रतिक्रिया के रूप में देखती हैं। वह पहले भी आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन के संस्थापक सैयद सलाहुद्दीन के बेटे को हिरासत में लेने को गलत करार दे चुकी हैं, चाहे एन.आई.ए. के पास उसके हवाला कारोबार में शामिल होने के पुख्ता साक्ष्य ही क्यों न हों। 

बहरहाल, अब राज्य में किसी पार्टी की सरकार नहीं है और गृह विभाग भी स्वतंत्र रूप से कार्य करने में सक्षम है। ऐसे में, केंद्र सरकार के पास राज्य में आतंकवाद का खात्मा करके शांति व्यवस्था स्थापित करने, पंचायतीराज संस्थाओं एवं शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव करवाने और धारा 35-ए एवं 370 को हटाने से कन्नी काटने का कोई बहाना नहीं बचा है। यदि केंद्र सरकार वास्तव में कश्मीर समस्या को लेकर संजीदा है तो उसे कड़े निर्णय लेकर ठोस समाधान निकालना चाहिए, अन्यथा अलगाववादी एवं आतंकवादी ताकतों को ऑक्सीजन देने वाले कश्मीर आधारित राजनीतिक दल इस मुद्दे का समाधान कभी नहीं होने देंगे।-बलराम सैनी

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