‘एक गणतंत्र एक लोकतंत्र से ज्यादा है’

Edited By ,Updated: 11 Jan, 2021 02:56 AM

a republic is more than a democracy

जनवरी माह में हम गणतंत्र दिवस मनाएंगे जो स्वतंत्रता दिवस से कुछ अलग है। इसका फर्क पूरी तरह से समझा नहीं गया या फिर इसकी सराहना नहीं हुई। 15 अगस्त को हम उस दिन को मनाते हैं जिसने विदेशियों को हम पर शासन करने से रोका



जनवरी माह में हम गणतंत्र दिवस मनाएंगे जो स्वतंत्रता दिवस से कुछ अलग है। इसका फर्क पूरी तरह से समझा नहीं गया या फिर इसकी सराहना नहीं हुई। 15 अगस्त को हम उस दिन को मनाते हैं जिसने विदेशियों को हम पर शासन करने से रोका। इसे हम आजादी के रूप में इसका उल्लेख करते हैं। 

26 जनवरी पर हम उन कानूनों को लागू करने में सफल हुए जिसने भारत को सम्प्रभु बनाया। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कुछ कारणों से हम गणतंत्र दिवस को सैनिक शासन के तौर पर मनाते हैं। हथियारबंद सेना  अपने हथियारों के साथ मार्च करती है। हम भारत के उन भागों से पूछ सकते हैं जिन्होंने सेना का अनुभव किया है जैसे कि पूर्वोत्तर तथा कश्मीर। क्या वे  गणतंत्र दिवस को मनाने के लिए एक सही रास्ता समझते हैं। 

एक गणतंत्र एक लोकतंत्र से ज्यादा है। एक लोकतंत्र ऐसी प्रणाली है जिसमें बहुमत वाली सरकार अपने चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन करती है। सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार का मतलब इन चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए मत का अधिकार होना है। एक गणतंत्र होने के लिए यह एकमात्र पहलू है। अन्य दो पहलू मूलभूत अधिकार तथा नागरिक स्वतंत्रता है। यह समानांतर तौर पर महत्वपूर्ण है और उनके बिना आपके पास लोकतंत्र हो सकता है मगर गणतंत्र नहीं। इसमें अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार, शांतमयी ढंग से एकत्रित होने का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, किसी भी संगठनों के गठन का अधिकार या फिर किसी भी पेशे को अपनाने का अधिकार तथा जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार शामिल है। 

आपके पास एक ऐसा राष्ट्र हो सकता है जहां वयस्क मतदान कर सकते हैं और चुनाव करवाए जा सकते हैं लेकिन इनमें से कोई भी अधिकार तथा स्वतंत्रता सार्थक रूप से मौजूद नहीं है। यह एक लोकतंत्र होगा मगर एक गणतंत्र नहीं। अधिकार लोगों के साथ वास्तव में नहीं होंगे बल्कि सरकार के साथ होंगे। इसका मतलब यह है कि सरकार और उसे चलाने वाले। एक उदाहरण देने के लिए भारतीयों को शांतिपूर्ण एकत्रित होने का अधिकार है। यह वास्तव में एक मौलिक अधिकार है जिसका अर्थ है कि अतिक्रमण से उच्च स्तर की सुरक्षा आपको प्राप्त है लेकिन क्या भारतीयों को शांतिपूर्ण एकत्रित होने का अधिकार है? उन्हें ऐसा नहीं है। उन्हें यह अधिकार है कि उन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शन के लिए अधिकारियों तथा पुलिस से अनुमति प्राप्त करने के लिए एक आवेदन करने का अधिकार है। 

सरकार के पास इसे स्वीकृति देने, अस्वीकार करने या प्रतिक्रिया न देने का अधिकार है। इसी तरह से किसी काम को करने का अधिकार (यहां पर सुप्रीमकोर्ट की व्यवस्था है जो कहती है कि गाय का अधिकार एक कसाई से अधिक है), न ही धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार जैसा कि यू.पी. तथा एम.पी. में नए कानून कहते हैं, भी मौजूद नहीं है। भारत में अभिव्यक्ति की आजादी कानूनी तौर पर राजद्रोह, मानहानि और अवमानना के माध्यम से अपराध  है। वास्तव में संविधान में शुरू से देखे गए अधिकार तथा स्वतंत्रता मूल रूप से आज मौजूद नहीं है। यह निष्कर्ष निकालना सुरक्षित है कि भारत एक लोकतंत्र है मगर एक गणतंत्र नहीं? वास्तविकता यह है कि आज नागरिकों के साथ अधिकार ही नहीं है। वे तो मुख्य तौर पर सरकार के साथ हैं। 

समय के बीतने के साथ यह ऐसा हुआ है। संविधान ने शुरू में सभी भारतीयों को अधिक या कम अप्रतिबंधित रूप में उपरोक्त सभी अधिकार दिए क्योंकि वे अमरीका जैसे अन्य गणराज्यों में मौजूद थे। ये संशोधन थे जो बाद में आए जिन्होंने उस स्तर तक आजादी को काटना शुरू कर दिया जिसे अब ईमानदारी से कहा जा सकता है कि वह भारत में बिल्कुल भी मौजूद नहीं हैं। 

सरकार ने लोगों से सम्प्रभुता का अनुमोदन किया। ऐसा हुआ भी क्योंकि कइयों ने जाना कि संविधान में फुटनोट के माध्यम से पार्ट-3 के लिए संशोधन जोड़ा गया जोकि मौलिक अधिकारों का एक हिस्सा है। बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार अब योग्य था। फुटनोट में लिखा है कि सरकार को स्वतंत्र भाषण पर उचित प्रतिबंध लगाने वाले किसी भी कानून को बनाने से नहीं रोका जाएगा जो भारत की सम्प्रभुता, अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या फिर नैतिकता को प्रभावित करता है। इसके अलावा न्यायालय की अवमानना, मानहानि या अपराध के संबंध में भी ऐसा ही है। 

कौन निर्धारित करेगा कि यह प्रतिबंध उचित है? सरकार। संवैधानिक सभा के माध्यम से लोगों ने खुद को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया था जो आज उनकी सरकार के अधीन हो गया है। प्रतिबंध लोकप्रिय मांग के कारण नहीं आए बल्कि सरकार ने सोचा कि लोगों को और अधिक स्वतंत्रता की अनुमति नहीं दी जा सकती। इसी तरह फुट नोट्स और उनकी व्याख्याओं ने अन्य अधिकारों के वास्तविक अर्थ को छीन लिया जिसमें जीवन और स्वतंत्रता शामिल है। 

भारत में सरकार अपराध किए बिना लोगों को जेल में डाल सकती है। इसे निवारक हिरासत कहा जा सकता है और एक फुटनोट के माध्यम से यह आॢटकल 21 और 22 को समाप्त कर देती है। एक सरकार जो ऐसी शक्ति अपने नागरिकों के ऊपर चाहती है तथा ब्रिटिश राज के बीच फर्क क्या है? सवाल यह है कि इसके बारे में क्या किया जा सकता है? स्पष्ट तौर पर इसका समाधान यह है कि सरकार उस क्षति को पूरा करने की कोशिश करे जो वर्षों से होती चली आई है। -आकार पटेल

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