Edited By ,Updated: 13 Feb, 2024 05:28 AM
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 10 साल के कार्यकाल के आखिरी महीनों में जिस तरह से भारत रत्न देने की बात को आगे बढ़ाया है, उससे देश के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान भारत रत्न का अवमूल्यन हुआ है। नि:संदेह वह पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं, जिन्होंने किसी...
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने 10 साल के कार्यकाल के आखिरी महीनों में जिस तरह से भारत रत्न देने की बात को आगे बढ़ाया है, उससे देश के सर्वोच्च राष्ट्रीय सम्मान भारत रत्न का अवमूल्यन हुआ है। नि:संदेह वह पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं, जिन्होंने किसी राष्ट्रीय सम्मान का राजनीतिकरण किया है। हालांकि चुनाव से पहले अपनी साप्ताहिक घोषणाओं से उन्होंने राजनीतिकरण को स्पष्ट कर दिया है। पिछले महीने से सप्ताह दर सप्ताह नामित 5 व्यक्तियों पर हमें विचार करना होगा जिनमें कर्पूरी ठाकुर, लाल कृष्ण अडवानी, चरण सिंह, पी.वी. नरसिम्हाराव और एम.एस. स्वामीनाथन शामिल हैं। यदि उन सभी को सम्मान के योग्य माना जाता तो उन सभी का नाम 2015 में मोदी सरकार के पहले गणतंत्र दिवस पर रखा जा सकता था।
आखिरकार जिन उपलब्धियों का श्रेय उन्हें दिया जाता है, वे बहुत पुरानी हैं। किसी भी स्थिति में, सभी 5 नामों की घोषणा इस साल के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर की जा सकती थी। जिस तरह से इन नामों की घोषणा की गई है, उसे देखते हुए यह संभव है कि चुनाव पूर्व पाइपलाइन में और भी नाम हो सकते हैं। इन नामों में बीजू पटनायक, एन.टी. रामाराव, एच.डी. देवेगौड़ा और जयललिता शामिल हैं। ये सभी राजनीतिक दलों के नेता जो संभावित सहयोगी हैं, को भारत रत्न क्यों नहीं?
नरसिम्हाराव का नामांकन अभी किया गया है न कि 2021 में उनके जन्म शताब्दी वर्ष के दौरान। जब तेलंगाना राज्य विधायिका ने सर्वसम्मति से तेलंगाना के सबसे बड़े राजनीतिक नेता और एक ऐसे प्रधानमंत्री के सम्मान की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जिन्होंने भारत और भारतीय अर्थव्यवस्था को बदल कर इतिहास रच दिया। अब मौकाप्रस्त राजनीति की गंध आती है। आज शायद यह उम्मीद है कि कर्पूरी ठाकुर और चरण सिंह की तरह और भी कुछ होगा। भारत में कई प्रधानमंत्री हुए लेकिन सभी ने इतिहास नहीं बनाया। जवाहर लाल नेहरू भारत के पहले प्रधानमंत्री के रूप में अपने भारत रत्न के हकदार थे और इंदिरा गांधी बंगलादेश के निर्माण के लिए इस सम्मान की हकदार थीं। नरसिम्हाराव के पास राजीव गांधी का नाम लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं था लेकिन वह खुद इस सम्मान के बड़े हकदार थे।
यह राव का राजनीतिक नेतृत्व था जिसने भारत के आर्थिक बदलाव और उसके बाद के उत्थान के लिए वास्तव में नए और उभरते भारत की नींव रखी। राव को इस राष्ट्रीय सम्मान को हासिल करने के लिए 1991 के बाद 33 साल का इंतजार करना पड़ा। अपनी ओर से प्रधानमंत्री राव एकमात्र ऐसे प्रधानमंत्री थे, जिन्होंने जनवरी 1992 में जे.आर.डी. टाटा का नाम लेते हुए किसी उद्योगपति को भारत रत्न के रूप में नामित किया था। जे.आर.डी. की पसंद न केवल इसलिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि वह इतना सम्मानित होने वाले पहले और एकमात्र व्यापारिक नेता थे बल्कि इसलिए भी क्योंकि यह राव की ‘नई आर्थिक नीतियों’ और अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के मद्देनजर बॉम्बे के लिए नई दिल्ली का नीतिगत संकेत था। उनकी अन्य दो पसंद मौलाना आजाद और सत्यजीत रे थे।
भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न एक ऐसा पुरस्कार है जिसके लिए राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत रूप से किसी व्यक्ति का नाम देने की शक्ति मिलती है। अन्य सभी पद्म पुरस्कार विजेताओं के चयन की एक प्रक्रिया है। अधिकारियों और गैर-अधिकारियों का एक समूह बाद वाले को विश्वसनीय नेता माना जाता है। तत्कालीन सरकार द्वारा सभी पद्म पुरस्कार विजेताओं की एक सूची तैयार करने के लिए कई दिनों तक बैठना पड़ता है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री अधिकारियों की इस समिति को नामों का सुझाव दे सकते हैं। इससे पहले कि उनकी सूची अनुमोदन के लिए प्रधानमंत्री को भेजी जाए और उसके बाद राष्ट्रपति को भेजी जाए। पिछले दशक में इस प्रक्रिया को और अधिक विस्तृत बना दिया गया है और बड़े पैमाने पर जनता को उचित माध्यम से पद्म पुरस्कार के लिए किसी व्यक्ति का नाम देने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है।
ऐसे भी उदाहरण हैं जब राष्ट्रपति ने सर्वोच्च सम्मान के लिए किसी नाम का चयन करने की पहल की। ऐसा पहला मामला तब था जब 1955 में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने प्रधानमंत्री नेहरू का नाम चुना था। कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि यह राष्ट्रपति प्रसाद ही थे जिन्होंने सबसे पहले एक वर्तमान प्रधानमंत्री का नाम देकर पुरस्कार का राजनीतिकरण किया। संयोगवश चूंकि पुरस्कार की घोषणा और इसे सौंपना राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है इसलिए प्रसाद को तब तक इंतजार करना पड़ा जब तक वह राष्ट्रपति नहीं रहे ताकि प्रधानमंत्री नेहरू उनका नाम तय कर सकें। सी.एस. राजगोपालाचारी को छोड़ कर पहले कुछ पुरस्कार विद्वतापूर्ण व्यक्तियों को देकर नेहरू ने स्वयं एक अच्छी मिसाल कायम की।
शायद पहली बार भारत रत्न पूरी तरह राजनीतिक हो गया जब प्र्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपने पूर्व पार्टी अध्यक्ष और तमिलनाडु के कांग्रेस पार्टी नेता के.के. कामराज को सम्मानित किया। वह नि:संदेह एक लोकप्रिय राजनेता और मिलनसार व्यक्ति थे लेकिन उनका बड़ा योगदान देश की बजाय अपनी पार्टी के लिए था। इंदिरा गांधी ने अपने दूसरे कार्यकाल में मदर टैरेसा और गांधीवादी आचार्य विनोबा भावे का नाम लेकर खुद को बचा लिया। उसके बाद राजीव गांधी ने मरणोपरांत एम.जी. रामचंद्रण का नाम लेकर इस रिकार्ड को और धूमिल कर दिया।
हालांकि मोदी भारत रत्न का राजनीतिकरण करने वाले पहले प्रधानमंत्री नहीं हैं। हाल के वर्षों में उनके पूर्ववर्तियों ने इस सम्मान की प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी, सी. सुब्रह्मण्यम, जयप्रकाश नारायण, अमत्र्य सेन, गोपीनाथ बोरदोलोई, पंडित रविशंकर, लता मंगेशकर और उस्ताद बिस्मिल्लह खान का नाम लिया लेकिन वाजपेयी और राव दोनों ने राजनीतिक लाभ के लिए राजनेताओं का नाम लेने से परहेज किया। मनमोहन सिंह ने भीमसेन जोशी, सचिन तेंदुलकर और वैज्ञानिक सी.एन.आर. राव का नाम लेते हुए उनका उदाहरण दिया।
चंद्रशेखर जैसे अल्पकालिक प्रधानमंत्रियों ने इस अवसर का उपयोग कुछ राजनीतिक विकृतियों को ठीक करने के लिए किया और बी.आर. अम्बेदकर तथा सरदार वल्लभ भाई पटेल को मरणोपरांत सम्मान दिया। मोरारजी देसाई का नाम लेने के उनके फैसले का विरोध किया जा सकता है लेकिन इतना सम्मानित होने वाले एकमात्र गैर-भारतीय नैल्सन मंडेला का नाम रखना बुद्धिमानी भरा फैसला था।
(लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड(1999-2001) के सदस्य और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार थे)-संजय बारू