फिर अकाली-भाजपा साझेदारी का प्रयास ‘बेवक्त का राग’

Edited By ,Updated: 07 Jun, 2023 05:28 AM

again the attempt of akali bjp partnership  bewak ka raag

शिरोमणि अकाली दल (बादल) के नेताओं ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान जनता के दबाव में भाजपा से किनारा करके खुद को किसान हितैषी पार्टी सिद्ध करने का प्रयास किया था। हालांकि कृषि विरोधी काले कानून बनाने के समय शिरोमणि अकाली दल के सांसदों द्वारा सरकार...

शिरोमणि अकाली दल (बादल) के नेताओं ने ऐतिहासिक किसान आंदोलन के दौरान जनता के दबाव में भाजपा से किनारा करके खुद को किसान हितैषी पार्टी सिद्ध करने का प्रयास किया था। हालांकि कृषि विरोधी काले कानून बनाने के समय शिरोमणि अकाली दल के सांसदों द्वारा सरकार को दिए गए समर्थन से लोग काफी नाराज थे। मगर फिर भी भाजपा से अलग होने का अकालियों का उक्त निर्णय देश तथा पंजाब के बड़े हितों के पक्ष से एक प्रशंसनीय कदम माना गया था। 

मगर वह लोग, जिन्होंने सालों -साल कायम होती रही अकाली दल-भाजपा गठजोड़ की सरकारों के समय सत्ता की मलाई चखने के साथ-साथ पूंजी के अंबार भी खड़े कर दिए थे, को इस बिछोड़े से काफी पीड़ा महसूस हुई थी। इसलिए उन्होंने यह निर्णय सिरे चढऩे में अवरोध डालने के लिए हर जायज-नाजायज हथकंडा भी अपनाया था। 

ये सज्जन यह भी भूल गए कि अकाली-भाजपा गठजोड़ सरकारों की भ्रष्ट कार्रवाइयों, जनविरोधी नीतियों तथा विभिन्न रंगों के माफिया गिरोहों की पुश्तपनाही ने दोनों दलों, विशेषकर अकाली दल को आम लोगों के मनों से काफी दूर कर दिया था। अपनी खुदगर्जी तथा मौकापरस्त राजनीतिक पहुंच के कारण भी अकाली नेता विशेषकर बादल परिवार के सदस्य सिख जनसमूहों में नफरत के पात्र बन गए थे। लोगों के इस गुस्से का प्रकटावा पंजाब विधानसभा के 2017 तथा 2022 में दो बार हो चुके चुनावों में अकाली दल की शर्मनाक हार के रूप में हो चुका है। 

खैर, हमारी चिंता अकाली दल का आधार सिकुडऩे की बिल्कुल भी नहीं है। हां, हमारे मन में शताब्दी पुराने इस दल की उस विचारधारा के सकारात्मक पहलुओं को जीवित रखने की प्रबल इच्छा जरूर है, जिसकी रक्षा के लिए पुराने दौर के अकाली योद्धाओं ने अथाह कुर्बानियां दी थीं। 

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के जनाधार में बड़ी कमी इस पार्टी द्वारा पंजाब तथा सिखों संबंधी लम्बे समय से अपनाए गए अमानवीय पैंतरों तथा लोकतांत्रिक मांगों की ओर से मुंह मोडऩे तथा राज्यों के लिए अधिकारों के मुद्दई होने के पैंतरे से पलट जाने से आई है। केंद्र तथा पंजाब की सरकारों में भाजपा के साथ पड़ी राजनीतिक सांझेदारियों ने अकाली दल को पंजाब के हितों, जैसे नहरी पानियों का न्यायपूर्ण बंटवारा करने, चंडीगढ़ पंजाब के हवाले करने, राज्य से बाहर रह गए पंजाबी भाषी क्षेत्रों को पंजाब में शामिल करवाने, पंजाबी मातृभाषा को पड़ोसी राज्यों तथा देश भर में उचित सम्मान दिलाने आदि की रक्षा करने की दावेदारी से पूरी तरह विमुख कर दिया था। इस मौकापरस्त पैंतरे के कारण ही अकाली दल के नेता जम्मू-कश्मीर से हुए अत्यंत अन्याय, जो संघीय अधिकारों के नुक्सान की ऐसी सबसे निकृष्ट तथा प्रमुख मिसाल है, के समय कुसके तक नहीं। 

दिल्ली तथा देश के अन्य भागों में सरकारी सरपरस्ती में हुए 1984 के सिख विरोधी दंगों के दोषियों को उचित सजा देने की मांग भी अकाली दल के लिए कभी-कभार जिक्र करना औपचारिकता मात्र बनी रह गई थी। सिख भाईचारे से संबंधित कुछ वाजिब शिकायतें दूर करने का विषय भी अकाली नेताओं को राजनीतिक सिरदर्दी लगने लगा था। अकाली-भाजपा गठबंधन सरकारों के 3 कार्यकालों के दौरान अपनाई गई आर्थिक नीतियों में भी कभी पंजाब के हितों के साथ अनुकूल ‘विकास मॉडल’ बनाने या किसानी हितों को केंद्र में रखकर नीति बनाने की तत्परता दिखाई नहीं दी। इसके विपरीत प्रतिदिन पंजाब की आर्थिकता नए पतन की ओर खिसकती गई तथा गौरवशाली पंजाब हाथ में कटोरा पकड़कर केंद्र के आगे सहायता के लिए भिखारियों की तरह मिन्नतें करता देखा गया। 

सत्ता में सांझीदार होने के कारण अकाली नेताओं ने कभी भी केंद्र सरकारों की पंजाब के प्रति भेदभावपूर्ण राजनीतिक पहुंच का डटकर, निर्णायक विरोध नहीं किया था। लाखों कुर्बानियों के कारण अस्तित्व में आईं सिख संस्थाओं को एक दल पर काबिज केवल एक परिवार के हितों की पूर्ति का साधन बनाकर अप्रासंगिक बनाने तथा पंजाब की सरबत के भले वाली मानवतावादी विचारधारा की बजाय अत्यंत अमानवीय तथा क्रूर कर्मकांडी विचारधारा के फलने-फूलने के लिए राह तैयार करने जैसा बड़ा गुनाह सत्ता में रहते हुए अकाली नेताओं ने किया है, उसे इतिहास कभी माफ नहीं करेगा। शानदार कुर्बानियों से संजोई, 5 पानियों की इस धरती को यदि आज डेरावाद, अपराधों तथा नशाखोरी जैसी महामारियों ने कलंकित किया हुआ है तो इन कर्मों के मुख्य दोषी बेशक अकाली नेता ही ठहराए जा सकते हैं। 

अकाली-भाजपा गठजोड़ को उचित सिद्ध करने के लिए अकाली नेता इसे ‘नाखून-मांस का रिश्ता’ कहकर प्रशंसा करते थकते नहीं थे। यही नहीं धर्म के नाम पर लोगों में फूट डालने वाली राजनीति की दुकान चलाने वाली तथा धर्म को राजनीति के साथ मिलाने की मुद्दई दो विभिन्न पार्टियों ने अपने इस सुविधावादी गैर-सैद्धांतिक तथा बेमेल गठजोड़ को ‘हिन्दू-सिख एकता’ का नाम देकर सांझीवालता के पवित्र संकल्प का खूब मजाक भी उड़ाया था। 

इसी संदर्भ में आज जब देश धार्मिक कट्टरता, अंधविश्वास तथा पिछड़े विचारों तथा साम्प्रदायिक विभाजन जैसे बड़े खतरों, जिनके लिए मूल रूप से भाजपा दोषी है, से जूझ रहा है तो ऐसे नाजुक समय में पंजाब जैसे संवेदनशील, सीमांत प्रांत में अकाली-भाजपा की पुरानी सांझेदारियों को पुन: जीवंत करने के लिए कुछ अकाली नेताओं द्वारा की जा रही मिन्नतें इन नेताओं की वैचारिकता तथा राजनीतिक  दिवालिएपन का ही प्रकटावा है। 

दोनों दलों के फिर से आङ्क्षलगनबद्ध होने की जल्दबाजी के चलते ही इन ‘सज्जनों’ ने 2000 रुपए के नोट बंद करने के मोदी सरकार के अत्यंत विवेकहीन तथा संदिग्ध कदम का समर्थन करने का कारनामा भी कर दिखाया है। जब देश की भारी संख्या में राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय पाॢटयों ने संसद की नई बिल्डिंग के मोदी द्वारा किए जा रहे उद्घाटन से संबंधित समारोह का बायकाट करने का लोकतांत्रिक नजरिए से सही फैसला लिया, तब अकाली दल पर काबिज ‘योद्धाओं’ ने इस समारोह में जोर-शोर से शामिल होने की घोषणा करने का नया ‘मार्का’ मारा। 

इस समय ‘अकाली-भाजपा’ सांझेदारी फिर से कायम करने का प्रयास करने तथा ‘बेवक्त का राग’ अलापना छोड़कर देश की सभी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक शक्तियों के साथ मिलकर भाजपा को सत्ता से अलग करना ही सबसे बड़ा तथा पहला कार्य है, जिसे सिरे चढ़ाना भारत जैसे विशाल देश का स्वाभिमान कायम रखने के लिए अत्यंत आवश्यक है।-मंगत राम पासला

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