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उप-चुनाव नतीजों का राजनीतिक संदेश भी समझिए

Edited By ,Updated: 14 Sep, 2023 04:36 AM

also understand the political message of the by election results

भाजपा को जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजन की तारीखों का आभारी होना चाहिए, वरना उसे जोर का झटका धीरे से देने वाले उप-चुनाव परिणाम समाचार माध्यमों की सुर्खियां बन कर उसके आत्मविश्वास पर बड़ा सवालिया निशान लगा गए होते।

भाजपा को जी-20 शिखर सम्मेलन आयोजन की तारीखों का आभारी होना चाहिए, वरना उसे जोर का झटका धीरे से देने वाले उप-चुनाव परिणाम समाचार माध्यमों की सुर्खियां बन कर उसके आत्मविश्वास पर बड़ा सवालिया निशान लगा गए होते। अक्सर उप-चुनाव परिणामों को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता, पर जब वे 5 राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले हुए हों, तो उन्हें हल्के में लेना राजनीतिक समझदारी नहीं। 

फिर 6 राज्यों की 7 विधानसभा सीटों के लिए ये उप-चुनाव तो विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ बनने के बमुश्किल डेढ़ महीने बाद हुए हैं, और परिणाम उसका हौसला  बढ़ाने वाले ही आए हैं। सत्ता-राजनीति कोई खेल नहीं कि ‘इंडिया’-एन.डी.ए. चुनावी संघर्ष के परिणाम को 4-3 बता कर इतिश्री कर ली जाए। इस तरह की आंकड़ेबाजी पूरा सच भी बयान नहीं करती। 5 राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव से चंद महीने पहले यह आंकड़ा सत्ता पक्ष के लिए खुशफहमी वाला नहीं माना जा सकता। बेहतर होगा कि सीट-दर-सीट राजनीतिक संदेश को समझने की कोशिश की जाए। 

हर राज्य का चुनाव परिणाम महत्वपूर्ण होता है, पर घोसी उप-चुनाव परिणाम कई कारणों से खास है। 2014 और ‘19 में भाजपा के लिए स्पष्ट बहुमत से केंद्र्रीय सत्ता का रास्ता देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से ही निकला था। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भाजपा के भविष्य के रूप में देखना भी कम नहीं। मंडल राजनीति का जैसा कमंडलीकरण भाजपा उत्तर प्रदेश में कर पाई है, बिहार में नहीं कर पाई। भव्य राम मंदिर निर्माण भी वहीं चल रहा है। फिर भी भाजपा प्रत्याशी दारा सिंह चौहान 42 हजार से भी ज्यादा वोटों से धराशायी हो गए। भावी चुनावी रणनीति के तहत लाए गए चौहान उसी सीट पर चूक गए, जिस पर 2022 में सपा के टिकट पर 22000 हजार वोटों से भाजपा के मुकाबले जीते थे। वह भी तब, जब भाजपा ने दो दर्जन से ज्यादा मंत्रियों और 3 दर्जन से भी ज्यादा विधायकों को चुनाव प्रचार मोर्चे पर लगाया हुआ था। अति पिछड़े वोटों के दो बड़े सौदागर संजय निषाद और ओमप्रकाश राजभर भी उसके पाले में थे, जबकि अर्से से भाजपा की ‘बी’ टीम की तरह राजनीति करने का आरोप झेल रही मायावती की बसपा ने अपना उम्मीदवार ही नहीं उतारा था। 

मायावती ने अपने वोटरों से अपील की कि वे मतदान के लिए न जाएं और अगर चले भी जाएं तो नोटा का बटन दबाएं। 90 हजार अनुसूचित तथा 95 हजार अल्पसंख्यक मतदाताओं वाली इस सीट पर बसपा को पिछले चुनाव में लगभग 54 हजार वोट मिले थे। उसके बावजूद उम्मीदवार न उतारना मायावती की किस राजनीति-रणनीति का संकेत है? बहरहाल बसपा के अलावा शेष विपक्ष ने सपा उम्मीदवार सुधाकर सिंह का डट कर साथ दिया, और परिणाम सामने है। बसपा की अपील के बावजूद 51 प्रतिशत मतदान हुआ और सपा यानी इंडिया के उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट मिले। भाजपा स्वयं को सांत्वना दे सकती है कि घोसी सीट तो पहले से ही सपा के पास थी, पर सवाल यह है कि दारा सिंह चौहान सरीखे दलबदलू को लाकर अपनी यह फजीहत करवाने की क्या जरूरत थी? 

वैसे पश्चिम बंगाल में तो भाजपा अपनी सीट भी हार गई वह भी तब, जबकि ‘इंडिया’ वहां एकजुट नहीं था। धुनगुड़ी सीट पिछली बार भाजपा ने जीती थी, लेकिन उप-चुनाव में एक शहीद की विधवा पर दांव लगाने के बावजूद वह सीट नहीं बचा पाई। तृणमूल उम्मीदवार निर्मल चंद रॉय ने भाजपा उम्मीदवार तापसी रॉय को चार हजार वोटों से हरा दिया, जबकि वहां कांग्रेस ने माकपा उम्मीदवार ईश्वर चंद्र रॉय को समर्थन दिया था, जिन्हें लगभग 23 हजार वोट मिले। बेशक भाजपा पश्चिम बंगाल में तृणमूल के मुकाबले मुख्य विपक्षी दल बने रहने के लिए अपनी पीठ थपथपा सकती है, पर त्रिकोणीय संघर्ष में भी अपनी ही सीट गंवा देना बहुत कुछ कहता है। हां, त्रिपुरा में भाजपा ने जरूर कमाल किया है। उसने केंद्रीय राज्य मंत्री प्रतिमा भौमिक के इस्तीफे के चलते उप चुनाव वाली धनपुर सीट तो बरकरार रखी ही है, आश्चर्यजनक रूप से अल्पसंख्यक उम्मीदवार उतार कर बॉक्सानगर सीट माकपा से छीन ली है। पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा ही नहीं, केरल उप चुनाव परिणाम भी वामपंथ की राजनीति पर सवालिया निशान लगाने वाला है। 

केरल में पूर्व मुख्यमंत्री ओमान चांडी के निधन के चलते हुए पुथुप्पली उप चुनाव में उनके बेटे कांग्रेसनीत यू.डी.एफ. उम्मीदवार के रूप में जीतने में सफल रहे। बेशक कांग्रेस और वाम दल, ‘इंडिया’ का ही हिस्सा हैं, पर केरल में तो मुख्य चुनावी संघर्ष इन दोनों के ही बीच होना है। उत्तराखंड की बागेश्वर और झारखंड की डुमरी सीट के लिए हुए उप-चुनाव के परिणाम अवश्य परंपरा -अनुरूप माने जा सकते हैं। बागेश्वर में भाजपा विधायक चंदन राम दास की मृत्यु के चलते उप-चुनाव हुआ और उनकी विधवा पार्वती दास सीट बरकरार रखने में सफल रहीं।  इसी तरह झारखंड के शिक्षा मंत्री जगर नाथ महतो के निधन के चलते हुए डुमरी उप चुनाव में झामुमो ने उनकी पत्नी बेबी देवी को उम्मीदवार बनाया और वह एन.डी.ए. के घटक दल आजसू की उम्मीदवार यशोदा देवी को 13 हजार वोटों से हराने में सफल रहीं। पश्चिम बंगाल में अंतॢवरोध उजागर होने के बावजूद ये उप-चुनाव परिणाम ‘इंडिया’ के लिए उत्साहवर्धक हैं और एन.डी.ए. के लिए चेतावनी। अच्छी बात यह है कि चुनाव प्रबंधन में माहिर मानी जाने वाली भाजपा को यह चेतावनी समय से मिल गई है।-राज कुमार सिंह
 

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