राजनीतिक दल और बेनामी चंदे का ‘मायाजाल’

Edited By ,Updated: 24 Dec, 2016 12:23 AM

anonymous donations to political parties and clutches

पढऩे-सुनने में अटपटा सा लगता है! क्या झोलाछाप दल भी होते हैं जो राजनीति की आड़ में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या बड़े दलों द्वारा पर्दे के पीछे छिपकर किन्हीं ....

पढऩे-सुनने में अटपटा सा लगता है! क्या झोलाछाप दल भी होते हैं जो राजनीति की आड़ में अपने व्यक्तिगत स्वार्थ या बड़े दलों द्वारा पर्दे के पीछे छिपकर किन्हीं विशेष उद्देश्यों को लेकर बनाए जाते हैं। ये दल वे हैं जो कभी चुनाव नहीं लड़ते बल्कि चुनाव के समय ऐसी अदृश्य भूमिका निभाते हैं जिससे योग्य उम्मीदवार हारने की स्थिति में आ सकता है और समाज विरोधी काम करने वाले, अपराध जगत के सरगना तथा धनकुबेर राजनीति में वह मुकाम हासिल करने में कामयाब हो जाते हैं जो जीवन भर की सेवा,तपस्या, कर्मठता और राष्ट्रहित के बारे में सोचने  और काम करने के पश्चात ही हासिल हो सकता है।

हमारे यहां इस बारे में जो कानून है उसके मुताबिक राजनीतिक दल बनाने के लिए ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है, न ही उसका पैमाना जीवन की कोई उपलब्धि, सेवाभाव या समाज की भलाई के लिए काम करने का अनुभव है। यह भी कहीं नहीं लिखा कि दल बनाते समय उसके पदाधिकारियों की माली हालत कैसी होनी चाहिए, उनकी शिक्षा का स्तर कैसा हो और उनके पास दफ्तर खोलने, कार्यकत्र्ताओं को प्रशिक्षित करने तथा स्थानीय, राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर दल को चलाने के लिए आवश्यक सुविधाएं भी हैं या नहीं! इसके विपरीत केवल थोड़ी-बहुत कागजी कार्रवाई के बाद राजनीतिक दल बनाया जा सकता है जिसे मिलने वाले लाभों की सूची तो बहुत लम्बी है लेकिन दायित्व के नाम पर कोई जिम्मेदारी नहीं होती।

इन दलों की भूमिका समझना भी जरूरी हो जाता है, चुनाव इन्हें लडऩा नहीं होता, डोनेशन के रूप में प्राप्त धन राशि का हिसाब-किताब रखने की कोई बाध्यता नहीं, आयकर से छूट मिली हुई है इसलिए बेनामी चंदे को अच्छे-बुरे कामों में खर्च करने की  पूरी छूट है। इन दलों का एक काम और होता है और वह है बड़ी पाॢटयों के उम्मीदवारों के वोट काटना। ये दल मोहल्लाछाप भी कहे जाते हैं क्योंकि इनकी धाक अपने मोहल्ले में ही होती है। जाति, धर्म के बल पर कुछ वोट ये जुटा लेते हैं और कई बार ऐसी परिस्थिति आती है कि इनकी वजह से राजनीति के चतुर खिलाड़ी भी चुनाव हार जाते हैं। इसलिए बड़ी राजनीतिक पाॢटयां इन्हें साध कर 
रखती हैं ताकि इनके पल्लू में जितने वोट हैं वे विरोधी उम्मीदवार को न मिल सकें।

राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए जिस तरह केवल विरोधियों के वोट काटने के लिए निर्दलीय उम्मीदवार खड़े करते हैं उसी तरह वे झोलाछाप दलों को भी पाल-पोस कर रखते हैं। यह बात तब आसानी से समझ में आ जाती है जब  कोई योग्य उम्मीदवार हार जाता है और कोई ऐसा व्यक्ति जीत जाता है जो अयोग्य होने के साथ-साथ दागदार पृष्ठभूमि से भी आता है।

इस पृष्ठभूमि के साथ अब हम इस ओर आते हैं कि किसी राजनीतिक दल की आमदनी का जरिया क्या है, उसे चंदे में कितना पैसा मिलता है और उसके पास पार्टी के नाम पर या उसके सर्वेसर्वा लोगों के पास कितनी चल और अचल सम्पत्ति है। अब चूंकि दल बनाने, चुनाव लडऩे और चंदे को ही आमदनी का स्त्रोत बताने का चलन है तो फिर ईमानदार दिखाई देने के लिए हिसाब-किताब रखना भी जरूरी है।

कार्यकत्र्ताओं से कहा जाता है कि वे ज्यादा से ज्यादा चंदा जमा करें और आमतौर से टिकट उसी को मिलता है जो पार्टी को मालामाल कर सके। पार्टी को चंदा देने, जिसे टिकट बेचना भी कहते हैं, के बाद अगला कदम होता है कि चुनाव जीतने पर सांसद, विधायक से लेकर मंत्री और मुख्यमंत्री बनने पर एक ही कार्यकाल में कई गुना आमदनी कैसे सुनिश्चित की जाए। वे न तो किसी लाभ के पद पर होते हैं और न ही कोई उद्योग-धंधा करते दिखाई देते हैं, इसके विपरीत सत्तारूढ़ होने पर उनकी जमीन-जायदाद, बैंक बैलेंस दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ता जाता है जोकि नियमानुसार मिलने वाले वेतन और भत्तों में कतई संभव नहीं है।

लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में उम्मीद होती है कि लोग दान के रूप में मोटी रकम देंगे। सभी दलों के लोग बड़े घरानों के साथ रिश्ते मधुर बनाए रखते हैं जैसे टाटा, रिलायंस, बजाज, महिन्द्रा आदि। इन्होंने अपने-अपने ट्रस्ट बना लिए हैं। ऐसा इसलिए किया गया कि पारदॢशता बनी रहे और यह भी उजागर होता रहे कि किसने किसको कितना पैसा दिया है। वर्तमान लोकसभा चुनावों से पहले इस तरह के 14 ट्रस्ट थे जो राजनीतिक दलों को दान देने के लिए पंजीकृत हुए।

 कुछ ने कहा कि हम पहले देंगे तो कुछ ने कहा कि हम चुनाव के बाद देंगे। कम्पनी कानून के मुताबिक ये ट्रस्ट बिना लाभ के बनाए उद्यम हैं, कार्पोरेट घरानों को इस काम के लिए टैक्स में रियायत भी मिलती है। इनमें नकद पैसे नहीं दिए जा सकते और विदेशी नागरिक भी पैसे नहीं दे सकते। इन ट्रस्टों में कोई भी कम्पनी राजनीतिक दलों को देने के लिए धन जमा करा सकती है।

चुनाव आयोग के मुताबिक हमारे देश में 6 राष्ट्रीय दल हैं और 46 मान्यता प्राप्त तथा 1112 गैर मान्यता प्राप्त दल हैं। इन्हें 20 हजार रुपए तक का चंदा लेने पर हिसाब-किताब रखने के पचड़े में पडऩे की ज्यादा जरूरत नहीं होती और ये चाहें तो अपनी पूरी आमदनी इसी दायरे में दिखा सकते हैं। इसीलिए अब यह मांग जोर पकड़ रही है कि केवल 2 हजार रुपए तक का चंदा ही नकद लिया जा सकता है। यदि यह राशि 2 हजार रुपए हो गई तो कालेधन को सफेद करने का खेल सामने आने की उम्मीद है।

हमारे राजनीतिक दल चाहे आपस में कितने विरोधी हों पर इस बात में सब एक मत हैं कि न तो उन्हें मिलने वाले चंदे के बारे में कोई पूछताछ होनी चाहिए और न ही उनके खिलाफ  कोई कानूनी कार्रवाई हो तथा आर.टी.आई. के दायरे में तो उन्हें कतई रखना ही नहीं चाहिए।  20 हजार रुपए से कम चंदा देने वालों के बारे में बताया जाना जरूरी नहीं है, आयकर से छूट मिली हुई है और चाहें तो पूरे चंदे को 20 हजार से कम मिला हुआ घोषित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए बहुजन समाज पार्टी कहती है कि उसे कोई भी 20 हजार से ज्यादा चंदा नहीं देता और इसलिए वह गरीब लोगों की पार्टी है। इस दल के नेता कितने गरीब हैं, यह किसी से छिपा नहीं है।

राष्ट्रीय दल तो रिटर्न फाइल करते हैं वहीं कुछ ही क्षेत्रीय दल ऐसा करते हैं। जो चंदा नकद मिलता है वह कालाधन भी हो सकता है और राजनीतिक दलों के पास जाकर सफेद धन में बदल जाता है।  20 हजार रुपए से कम की रकम पर न तो देने वाला और न ही लेने वाला इस धन के स्त्रोत के रूप में जवाबदेह होता है। दोनों ही जानते हैं कि चंदे के बदले में क्या लेना-देना करना है। ये हमारे ही देश में है कि राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाला धन 75 प्रतिशत तक अज्ञात रहता है जबकि विकसित देशों से लेकर नेपाल, भूटान जैसे देशों में बताना पड़ता है कि किसने कितना चंदा दिया है।

हमारे देश की संसद और विधानसभाओं की कार्रवाई देखकर कभी-कभी लगता है कि सत्तापक्ष हड़बड़ी होने जैसी जल्दबाजी कर रहा है और बहुत से बिल आनन-फानन में मामूली या बिना बहस कराए पास हो जाते हैं। विपक्ष ऐसी भूमिका निभाता दिखाई देता है कि लगता है कि उसकी रुचि उस बिल की बजाय शोर-गुल करने में ज्यादा है। मतलब यह कि दोनों ही पक्ष चलाऊ शैली में ‘सब कुछ हो सकता है, की उक्ति को चरितार्थ करते दिखाई देते हैं। बहुत से मामलों में तो लगता है कि जहां समर्थन होना चाहिए वहां विरोध और जहां तगड़ी बहस होनी चाहिए वहां लीपापोती होती दिखाई देती है। ऐसा लगता है राजनीतिक दल ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ की तरह व्यवहार कर रहे हैं।

सरकार और चुनाव आयोग चाहें तो ऐसे दलों पर प्रतिबंध लगा सकते हैं जो केवल काले धन को सफेद करने, योग्य उम्मीदवारों को हराने और अपराध जगत को संरक्षण देने के लिए ही बनाए जाते हैं। वर्तमान सरकार चुनाव सुधारों की बात करती है। अगर वह राजनीति को कलंकित करने वाली इस गतिविधि पर भी अंकुश लगाने की पहल करे तो हमारे देश की राजनीतिक व्यवस्था में काफी सुधार हो सकता है।
 

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