दिल्ली की एंटी इनकम्बैंसी लहर को ‘भूल गई’ भाजपा

Edited By ,Updated: 02 Mar, 2015 02:01 AM

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वित्त मंत्री ने मोदी सरकार का प्रथम सम्पूर्ण बजट बहुत ‘गरिमामयी भ्रम’ में प्रस्तुत किया है। 2019 में मनाई जाने वाली हमारी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के जश्न के संबंध में उन्होंने ...

(सीताराम येचुरी) वित्त मंत्री ने मोदी सरकार का प्रथम सम्पूर्ण बजट बहुत ‘गरिमामयी भ्रम’ में प्रस्तुत किया है। 2019 में मनाई जाने वाली हमारी स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ के जश्न के संबंध में उन्होंने उन लक्ष्यों को सूचीबद्ध किया है जिनको तब तक पूरा किया जाना है। 
 
यह सूची हमारे संविधान में दर्ज सरकारी नीति के उन निर्देशक सिद्धांतों की केवल दोहराई मात्र है जिनके अनुसार ये लक्ष्य 1960 तक हासिल किए जाने थे। स्पष्ट है कि जेतली ने यह मानकर ऐसा किया है कि 2019 के आम चुनाव में फिर से मोदी सरकार ही सत्तासीन होगी। यानी कि दिल्ली के चुनाव में मोदी के विरुद्ध चली एंटी इनकम्बैंसी लहर को भाजपा ने बहुत आसानी से भुला दिया है।
 
यदि हर प्रकार के शब्दाडाम्बर को एक तरफ रख दिया जाए तो लोगों के लिए इस बजट का क्या अर्थ है? आर्थिक वृद्धि, रोजगार और लोगों की रोजी-रोटी के लिए सार्वजनिक खर्चे में वृद्धि करने की बजाय बजट में इसे संकुचित कर दिया गया है। 2014-15 में सरकार का कुल खर्च पिछले बजट की तुलना में 7 प्रतिशत यानी कि 1.14 लाख करोड़ कम होगा। 2015-16 में अनुमानित कुल राजस्व जी.डी.पी. के 10.3 प्रतिशत के बराबर रहने की उम्मीद है जोकि पिछले बजट के 10.8 प्रतिशत के आंकड़े से कम है।
 
सामाजिक क्षेत्र में किए जा रहे बड़े-बड़े खर्चों को लक्ष्य बनाते हुए घरेलू मांग को प्रोत्साहित करने की बजाय बजट ने वित्तीय घाटे को 3.9 प्रतिशत पर रोके रखने के लिए बिल्कुल ही विपरीत सुझाव दिए हैं। मनरेगा और खाद्यान्न सबसिडी के लिए आबंटन वास्तविक अर्थों में वहीं का वहीं खड़ा है जिसका यह अर्थ है कि खाद्य सुरक्षा, रोजगार सृजन और लोगों का जीवन सुधारने की सरकार को कोई खास चिंता नहीं। 
 
जी.डी.पी. में सबसिडी का अनुपात 2.1 प्रतिशत यानी कि 2.60 लाख करोड़ रुपए से घटकर 1.7 प्रतिशत यानी कि 2.44 लाख करोड़ रुपए रह गया है। स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के लिए आबंटन में गत वर्ष के 35,163 करोड़ से फिसल कर 29,663 करोड़ रुपए रह गया है। आवास तथा शहरी गरीबी उन्मूलन के लिए बजट का कुल आंकड़ा भी  6008 करोड़ से फिसलकर 5634 करोड़ रह गया है। 
 
जनजातीय उपयोजना के लिए आबंटन में भी इसी प्रकार भारी गिरावट आई है और गत वर्ष की तुलना में यह 5,000 करोड़ रुपए कम है, जबकि अनुसूचित जनजाति उपयोजना के लिए आबंटन 12,000 करोड़ रुपए घट गया है। महिला कल्याण और उत्थान योजनाओं के लिए आबंटन पर भी 20,000 करोड़ रुपए यानी कि 20 प्रतिशत कटौती की कैंची चलाई गई। समेकित सामुदायिक वितरण कार्यक्रम के लिए आबंटन 16,000 करोड़ से घटकर केवल 8,000 करोड़ रुपए रह गया है।
 
इसके विपरीत भारतीय धन्नासेठों तथा देशी व विदेशी कार्पोरेटों को भारी लाभ पहुंचाया गया है। बजट प्रस्तावों में प्रत्यक्ष कर में 8315 करोड़़ रुपए की कटौती करके अमीर लोगों को लाभ पहुंचाया गया है जबकि 23,383 करोड़ की अप्रत्यक्ष कर वृद्धि से आम जनता पर बोझ लादा गया है। भारतीय धन्नासेठों को सीधे कर का लाभ देने के अलावा सम्पत्ति कर को समाप्त कर दिया गया है, जबकि कार्पोरेट टैक्स को 30 प्रतिशत घटाकर 25 प्रतिशत करने की योजना है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों (एफ.डी.आई.) और संस्थागत विदेशी निवेशकों (एफ.आई.आई.) को अधिक रियायतें देने के साथ-साथ उनका रास्ता भी आसान किया गया है और अब उन्हें पूंजी लाभांश कर और न्यूनतम वैकल्पिक टैक्स (मैट) से भी मुक्त कर दिया गया है। 
 
इससे भी बढ़कर ‘टैक्स प्रोत्साहन’ के नाम पर अमीरों को दी जा रही केन्द्रीय सबसिडियों से राजस्व में जो कमी होगी वह वास्तविक वित्तीय घाटे से कहीं अधिक होगी। 2014-15 में यह कमी वित्तीय घाटे के 5,55,649 करोड़ रुपए बजटीय आकलन की तुलना में 5,89,285.2 करोड़ रुपए रहने का अनुमान है। यानी कि हमारी अर्थव्यवस्था घाटे के बजट का बोझ केवल अमीरों को दी जा रही सबसिडियों के कारण ही वहन कर रही है न कि गरीबों को दी जाने वाली सबसिडियों के कारण। इन स्थितियों के मद्देनजर सरकार के राजस्व में वृद्धि करने के लिए बजट ने 70 हजार करोड़ रुपए की भारी-भरकम सीमा तक आक्रामक ढंग से सार्वजनिक क्षेत्र में अपनिवेश करने की घोषणा की है।
 
मोदी सरकार का यह बजट इसलिए डा. मनमोहन सिंह के सुधारों  का केवल अधिक आक्रामक संस्करण ही है। दोनों एक ही दलील का अनुसरण करते हैं कि हमारा आर्थिक विकास देशी व विदेशी पूंजीपतियों को भारी-भरकम रियायतें देकर बड़े पैमाने पर निवेश आकॢषत करके ही संभव हो सकता है। फिर भी इसी अकेली बात के बूते अपने आप ही उच्च वृद्धि और उच्च रोजगार सृजन का लक्ष्य हासिल नहीं हो सकता। यह केवल तभी हो सकता है यदि हमारे लोगों की खरीद शक्ति में वृद्धि होती है क्योंकि ऐसा होने पर ही वे बढ़े हुए उत्पादन को खरीद सकेंगे। लगातार आर्थिक मंदी जारी रहने के कारण वैश्विक व्यापार सिकुड़ रहा है। ऐसे में हमारा निर्यात काफी कम रहेगा। ऊपर से बजट की मेहरबानी से लोगों की खरीद शक्ति और भी कम हो जाएगी।
 
निवेश आकर्षित करने के लिए बेशक लाखों करोड़ रुपए की रियायतें  दी जाएं, इनसे न तो वृद्धि होगी और न ही जनकल्याण का स्तर सुधरेगा। इसकी बजाय इन राशियों को अतिवांछित आर्थिक और सामाजिक आधारभूत ढांचा खड़ा करने के लिए सार्वजनिक निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है तो आर्थिक वृद्धि भी अधिक होगी तथा विषमता में भी कमी आएगी।
 
लेकिन यदि मोदी सरकार ऐसा करती है तो जिन लोगों ने इसके चुनावी अभियान का वित्त पोषण किया था उनके एहसानों का बदला यह कैसे चुका पाएगी? वित्त मंत्री ने तो आत्मविश्वास से इतराते हुए कहा है कि भारत के लिए उड़ान भरने का समय आ गया है। इस बजट के साथ अमीर लोग तो शायद सातवें आसमान पर पहुंच जाएं लेकिन गरीब लोगों को औंधे मुंह धड़ाम से गिरने की भयावह संभावना के लिए तैयार होना होगा।
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