पैसे की लालसा ने हमसे छीन लिया ‘पशुधन’

Edited By ,Updated: 04 Jun, 2015 12:08 AM

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पैसे की लालसा ने हमारा पशुधन हमसे छीन लिया। जंगली जीव-जन्तु समाज से नदारद हो गए। ‘जागी चिडिय़ा, जागे कां, जागी साडी गोरी गां।’

(मास्टर मोहन लाल): पैसे की लालसा ने हमारा पशुधन हमसे छीन लिया। जंगली जीव-जन्तु समाज से नदारद हो गए। ‘जागी चिडिय़ा, जागे कां, जागी साडी गोरी गां।’ बीस-बीस पशु होते थे घरों में। भीनी-भीनी खुशबू आती थी आंगन में, मां दूध दोह रही है, बछड़ा रम्भा रहा है। नव-नवेली दुल्हनें पनघट पर सुबह कुओं-झरनों से पानी भर रही हैं। पौ-फटते ही (पाली) रेवड़ खोल चरागाहों में चल देते। चाटी में मधानी से छाछ रिड़की जा रही है। गांवों-कस्बों में पशुओं की आवाजों का अलग ही स्वर सुनने को मिलता था। दोपहर होते-होते हांडी में गुलाबी दूध की खुशबू लालायित कर देती।
 
चाची कलेवा ले खेतों में बैलों की घंटियों से ताल मिला पहुंच जाती। हम बैलों को थपकी दे ठहरा देते, पेड़ा दोनों बैलों को खिलाते। सूरज ढलते ही गांव का रेवड़ धूल उड़ाता घरों को लौट आता। पशु हमारे जीवन का आवश्यक अंग थे। हमारी आर्थिकता की धुरी थे। प्रकृति में एक अपनी तरह का ‘भोजन जाल’ है। सजीव और निर्जीव प्रकृति के अंगों से यह वायुमंडल बना है। पशु-प्राणी-जीव-जन्तु और मनुष्य इनसे मिल कर एक तंत्र बना है। सम्पूर्ण वनस्पति ने इस प्राकृतिक तंत्र को संवारा है। किसान की रोजी-रोटी है उसका पशुधन।
 
आज भी इस छोटे से पंजाब में 24.30 लाख गऊएं और 51.52 लाख भैंसें हैं। पंजाब की आर्थिकता में 13' हिस्सा पशुधन का है। दूध के उत्पादन का 8' हिस्सा आज भी हमारे पंजाब का पशुधन है। पर शिवालिक पहाड़ी क्षेत्र को छोड़ कर पशुधन पंजाब से गायब हो गया। बैल तो हमने अपने जीवन से ही निष्कासित कर दिया। अब बैल शहरों, कस्बों और कूड़े के ढेरों पर ही मिलेंगे। नंदीशाला कहीं भी नहीं, कोई भी नहीं। शहर और कस्बे आवारा सांडों से भरे पड़े हैं। 
 
कहीं भी बकरों, सांडों, बैलों-भैंसों की  भिड़ंत नहीं दिखी। कभी-कभार बंदर और रीछ का खेल दिखाने मदारी आ जाया करते थे। अब वह भी नहीं। तीतर-बटेर और मोर तो गायब ही हो गए। चिडिय़ों, चीलों और कबूतरों का अकाल पड़ गया। हमारा पशुधन हमसे छिन गया। प्राकृतिक संतुलन बिगड़ गया। आपदाएं तो आनी ही थीं। 
 
ऐसा क्यों हुआ। पशुधन हमारे कृषि जीवन की रीढ़ की हड्डी। लुप्त हो गए पशु। हमारी खेती यांत्रिक हो गई। दैत्यनुमा मशीनों ने बेकार कर दिया हमारा पशुधन। शुक्र करो, फसलों के उगने से पकने तक में जैविक क्रिया का हाथ है अन्यथा ये मशीनें फसलों को भी दिनों में उगा-पका देतीं। मशीनी युग ने पशुओं को ही बेकार नहीं किया, मनुष्य भी बेकार हो गया है। ट्रैक्टर- ट्राली, कम्बाइन, हार्वैस्टर, थ्रैशर, काटने वाली मशीनें, क्रश करने वाली मशीनों, रस निकालने वाली मशीनों ने हमारे पशुधन को कहीं का नहीं छोड़ा। मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु, धरती, मिट्टी, पेड़-पौधे, नमी और वाष्पीकरण सबका एक ‘सकल’ है जिसे ‘भोजन जाल’ कहा जाता है।
 
किसी एक तत्व का कम होना प्राकृतिक आपदाओं को निमंत्रण देना है। अत: इन सब में ‘बैलेंस’ बना रहे तो अच्छा है अन्यथा प्राकृतिक आपदाओं को स्वयं बुलाना है। पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा नहीं कि आपदा आई नहीं। भूकम्प की सूचना वैज्ञानिक भले सटीक न दें पर खूंटे पे बंधे पशु तत्काल प्राकृतिक आपदा की ओर इशारा करेंगे। 
 
मशीनों के प्रयोग ने सब गुड़-गोबर कर दिया। समाज में जब वस्तु- विनिमय प्रणाली प्रचलित थी तो यही पशुधन मनुष्य के काम आता था। गौधन, गजधन, बाजधन (घोड़ों की सम्पत्ति) सब मानवीय धन थे। जिसके पास अधिक गाएं वह उतना ही अमीर और प्रतिष्ठित। ‘पशवा: च गोष्टे, भार्या गृह द्वारे।’ पशु मरे लख काज संवारे, नर मरे कछु काज न आवे। सब उदाहरण पशुधन के महत्व को दर्शाते हैं। 
 
अजीब विडम्बना है जब हमारे घरों में 80 प्रतिशत पशु थे तो दूध की कमी थी, आज हमारे घरों में 20 प्रतिशत पशु हैं पर दूध की कोई कमी नहीं अर्थात हम पशुओं के अभाव में नकली दूध पीते हैं।
 
कीटनाशक रासायनिक खादों के प्रयोग से धरती कसैली हो गई है। टीके लगे पशुओं को मरने के बाद खाने से चीलें खत्म हो गईं। पशुओं की गंदगी उठाने वाली चीलें नहीं रहीं। भारत चीलों को आयात करने लगा है। हाथी, चीते, शेर सबकी कमी हो रही है। शहद के छत्ते कहीं मिलते ही नहीं। शहद भी नकली। पशुधन के अभाव ने सब खाद्य-पदार्थों का अभाव पैदा कर दिया।
 
यही नहीं, हिन्दी-पंजाबी के शब्दकोषों से पशुधन के घटने से शब्दों, लोकोक्तियों, मुहावरों का भी अकाल पडऩे लगा है। कोल्हू के बैल को कहां ढूंढोगे। ऊंट के मुंह में जीरा, बैलों के गलों में टल्लियां, कुत्ती मरे फकीर दी जेहड़ी चऊं, चऊं नित करे, बागों में मोर अब कहां बोलेंगे? ये शब्द अब पशुधन के न होने से कहां मिलेंगे? हल-पंजाली, रम्बा, दातरी, खुरपा, फलाह, गाह, शाहबेला, तंगड़ी तरौंगल, उखल, मोहली, गड्डा, रहर, टेहरा, चरखा, पिन्ना-पीढ़ी, जोतरा, बैल, चौणा, गो-धूली, जंगल-बेला, छज्ज, फूहल, केही, सुहागा,, तकला और टिन्डा वाला खूह वगैरह-वगैरह अनगिनत शब्द पशुधन के आलोप होने से हिन्दी-पंजाबी शब्दकोषों से नदारद हो जाएंगे।
 
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