घोर उपेक्षा और व्यर्थ के दावों की कहानी है बिहार

Edited By Updated: 02 Nov, 2025 04:18 AM

bihar is a story of utter neglect and empty claims

बिहार के बारे में बोलना या लिखना कष्टदायक है। बिहार घोर उपेक्षा और व्यर्थ के दावों की कहानी है। 1947 में, भारत के सभी राज्य एक ही शुरुआती रेखा पर खड़े थे। कोई भी राज्य यह नहीं कह सकता कि वह आज़ादी के समय या 1950 में पीछे छूट गया था। चूंकि केंद्र और...

बिहार के बारे में बोलना या लिखना कष्टदायक है। बिहार घोर उपेक्षा और व्यर्थ के दावों की कहानी है। 1947 में, भारत के सभी राज्य एक ही शुरुआती रेखा पर खड़े थे। कोई भी राज्य यह नहीं कह सकता कि वह आज़ादी के समय या 1950 में पीछे छूट गया था। चूंकि केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी का शासन था, इसलिए पूरे देश में एक जैसी नीतियां और कार्यक्रम लागू किए गए। वास्तव में, कुछ प्रगतिशील विचारों का प्रयोग सबसे पहले बिहार में किया गया और बाद में उन्हें अन्य राज्यों में भी लागू किया गया। उदाहरण के लिए, भूमि सुधार और वितरण।

बिहार में कद्दावर नेता थे। इसका प्रशासन एक कुशल और मजबूत था और इसके पास प्रख्यात नौकरशाह थे। इसकी जमीन सबसे उपजाऊ थी और गंगा एक सदाबहार नदी थी। यह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध था, और पहली स्टील मिलें अविभाजित बिहार में ही स्थित थीं। और देश के चार प्रमुख उच्च न्यायालयों में से एक (पटना में) और एक मजबूत न्याय प्रणाली भी यहां मौजूद थी। फिर बिहार असफल क्यों हुआ?

एक असफल राज्य: बिहार के आधिकारिक आंकड़े निराशाजनक हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि जमीनी स्तर पर स्थिति और भी बदतर है। हालांकि हर सरकार को दोष देना होगा लेकिन  नीतीश कुमार 24 नवंबर,2005 से मुख्यमंत्री हैं (सिवाय उन 278 दिनों के जब उन्होंने अपने प्रतिनिधि को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया था) यानी 20 साल। अगला लंबा शासन  लालू प्रसाद यादव (या उनकी पत्नी) ने 1990 से 2005 के बीच चलाया। 35 साल से कम उम्र के मतदाता केवल एक ही मुख्यमंत्री को जानते हैं -  वह हैं नीतीश कुमार। 2025 में बिहार विधानसभा के चुनाव 1990 के दशक या उससे पहले की सरकारों के बारे में नहीं बल्कि नीतीश कुमार और उनके 20 साल के शासन के बारे में हैं।

2025 में बिहार की अनुमानित जनसंख्या 13.43 करोड़ है। यह भी अनुमान है कि 1 से 3 करोड़ नागरिक राज्य से बाहर चले गए हैं। मुख्य कारण बिहार में व्याप्त बेरोजग़ारी और गरीबी की स्थिति है।’ युवा बेरोजगारी दर 10.8 प्रतिशत है। विडंबना यह है कि शिक्षा के स्तर के साथ बेरोजगारी दर बढ़ती जाती है। औद्योगिक उद्यमों में केवल 1,35,464 व्यक्ति कार्यरत हैं, जिनमें से केवल 34,700 स्थायी कर्मचारी हैं। ’ नीति आयोग की 2024 की एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में भारत में सबसे ज्यादा गरीबी दर है। 64 प्रतिशत परिवार 10,000 रुपए प्रति माह से कम कमाते हैं और केवल 4 प्रतिशत परिवार 50,000 रुपए प्रति माह से अधिक कमाते हैं।

’ बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एम.पी.आई.) के अनुसार, बिहार सबसे खराब प्रदर्शन करने वाला राज्य (33.76 प्रतिशत) है। अभाव के हर पैमाने  बाल जीवन, मातृ स्वास्थ्य, स्वच्छ रसोई ईंधन, स्वच्छता  में बिहार सर्वोच्च स्थान पर है। ‘शिक्षा की गुणवत्ता’ सूचकांक और ‘सभ्य कार्य एवं आर्थिक विकास’ सूचकांक में बिहार सबसे निचले पायदान पर है। (स्रोत: नीति आयोग, बिहार आर्थिक सर्वेक्षण 2024-25, राष्ट्रीय एम.पी.आई. सूचकांक, ए.आई.सी.सी. अनुसंधान विभाग)।

नीतीश कुमार की सरकार वर्तमान वृहद आॢथक स्थिति के लिए जिम्मेदार है। बिहार में भारत की 9 प्रतिशत जनसंख्या रहती है लेकिन भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान केवल 3.07 प्रतिशत है। 2023-24 में प्रति व्यक्ति आय 32,174 रुपए थी  जो राष्ट्रीय औसत 106,744 रुपए का एक-तिहाई है। इससे भी अधिक चिंताजनक बात यह है कि बिहार की प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम दर से बढ़ रही है और यह अंतर बढ़ता ही जा रहा है। 

धर्म और जाति का जाल : मेरे विचार से, अपनी संभावनाओं के बावजूद, बिहार अपनी राजनीति के कारण गरीब बना हुआ है। इसकी सरकार और इसकी संस्थाएं धर्म और जाति के स्वनिर्मित जाल में फंसी हुई हैं। धर्म बिहार में एक बड़ी विभाजक दीवार है। सरकार में भाजपा की उपस्थिति ने शासन के हर पहलू में धर्म को घुसा दिया है। गिरिराज सिंह की ‘नमक हराम’ वाली टिप्पणी देखिए कि मुसलमान कृतघ्न हैं और इसलिए उन्हें उनके वोट नहीं चाहिएं। यह उस राज्य में है जहां मुसलमानों की आबादी 17 प्रतिशत है (ङ्क्षहदुओं की 82 प्रतिशत के मुकाबले)। जाति लोगों के बीच हर बातचीत, यहां तक कि राजनीतिक विमर्श पर भी हावी है। इसके अलावा, बहुसंख्यक ङ्क्षहदू समुदाय को ओ.बी.सी., एम.बी.सी. और ई.बी.सी. जैसे वर्गीकरणों का उपयोग करके विभाजित किया गया है। ई.बी.सी. की 112 जातियों में से 4 को अधिक महत्वपूर्ण और इसलिए अधिक प्रभावशाली माना जाता है।

कोई बदलाव नहीं- नीतीश कुमार : बिहार की राजनीति बदलनी ही चाहिए। इसे कौन बदलेगा? जवाब अलग-अलग हो सकते हैं  लेकिन यह स्वाभाविक है कि  नीतीश  कुमार वह व्यक्ति नहीं हैं जो बदलाव की शुरूआत करेंगे। वे अपनी 20 साल पुरानी आदतों में जकड़े हुए हैं। इसके अलावा, उनके स्वास्थ्य और उनके अप्रत्याशित व्यवहार को लेकर वास्तविक ङ्क्षचताएं भी हैं। यह सोचना मूर्खता है कि  नीतीश कुमार खुद को बदलेंगे या बिहार के शासन में कोई आमूल-चूल परिवर्तन लाएंगे। 
 नीतीश कुमार भी उन्हीं मेमनों की तरह बलि का बकरा बन जाएंगे जिन्हें भाजपा ने पंजाब, हरियाणा, ओडिशा और महाराष्ट्र में बलि का बकरा बनाया था। भाजपा ने जिस भी क्षेत्रीय दल को अपनाया, उसका पतन या अंत हो गया है। जद-यू का भाग्य भी शायद इससे अलग नहीं होगा। -पी. चिदम्बरम

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