बिहार : अब वादे भी पूरे होंगे कि नहीं?

Edited By Updated: 16 Nov, 2025 03:59 AM

bihar will the promises be fulfilled now or not

बिहार की जनता ने अपनी बात कह दी है। एन.डी.ए. को 202 सीटें और महागठबंधन को 35 सीटें मिली हैं। सभी नागरिकों को इस फैसले को स्वीकार करना होगा। नई सरकार, चाहे मुख्यमंत्री कोई भी हो, हमारी शुभकामनाओं की हकदार है क्योंकि हमारी शुभकामनाओं की सबसे ज्यादा...

बिहार की जनता ने अपनी बात कह दी है। एन.डी.ए. को 202 सीटें और महागठबंधन को 35 सीटें मिली हैं। सभी नागरिकों को इस फैसले को स्वीकार करना होगा। नई सरकार, चाहे मुख्यमंत्री कोई भी हो, हमारी शुभकामनाओं की हकदार है क्योंकि हमारी शुभकामनाओं की सबसे ज्यादा हकदार बिहार की जनता है। बिहार चुनावों की कवरेज में मीडिया ने खुद को गौरवान्वित नहीं किया। कुछ मीडिया संस्थान (अखबार और टैलीविजन चैनल) जिन्होंने थोड़ा अलग रास्ता अपनाया था वे भी इस भीड़ में शामिल हो गए। जमीनी स्तर पर मौजूद पत्रकार एक स्वर में बोल रहे थे कि लोग जाति के आधार पर वोट कर रहे हैं। नीतीश कुमार के खिलाफ कोई सत्ता-विरोधी लहर नहीं है। तेजस्वी यादव ने अभियान में ऊर्जा जरूर दिखाई लेकिन अपने पारंपरिक आधार से आगे अपनी अपील का विस्तार नहीं कर पाए। प्रशांत किशोर ने मतदाताओं के सामने नए विचार रखे लेकिन उन्हें एक नौसिखिया और अप्रमाणित माना जा रहा है। नरेंद्र मोदी का मतदाताओं से तुरंत जुड़ाव है। राहुल गांधी वोट चोरी और बेरोजगारी वगैरह-वगैरह जैसे अपने मुख्य मुद्दों पर अड़े रहे। एकमात्र नया गाना था ‘दस हजारी’ (मतदान से पहले, मतदान के दौरान और मतदान के बाद हर घर की एक महिला को 10,000 रुपये का नकद हस्तांतरण)।

सबसे निचले पायदान पर : बिहार के लोगों की याददाश्त बहुत तेज है। उन्हें लालू प्रसाद (या उनकी पत्नी) की 15 साल की सरकार (1990-2005) याद है और उन्होंने  तेजस्वी यादव को गलत तरीके से दोषी ठहराया  जो उस सरकार के सत्ता से बाहर होने के समय मुश्किल से 16 साल के थे। उन्होंने नीतीश कुमार (या उनके प्रतिनिधि) की 20 साल की सरकार को भी याद किया लेकिन ऐसा लग रहा था कि उन्हें कई नाकामियों से कोई नाराजगी नहीं है। क्या बिहार गरीब है? क्या बड़े पैमाने पर बेरोजगारी है? करोड़ों लोग रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन कर रहे हैं? क्या बहुआयामी गरीबी लोगों के एक बड़े वर्ग को प्रभावित कर रही है? क्या शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा की स्थिति भयावह है? ‘निषेध’ के बावजूद  क्या शराब खुलेआम उपलब्ध है? प्रत्येक प्रश्न का उत्तर ‘हां’ है। यदि ऐसा है तो इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि लोगों ने हाल ही में संपन्न चुनावों में जिस तरह से मतदान किया, उसी तरह से मतदान क्यों किया। एक कॉलम में शेखर गुप्ता ने व्यंग्यात्मक रूप से लिखा कि ‘बिहार आज जो सोचता है, बिहार परसों भी वही सोचता था’। बहरहाल, शायद कुछ कारण थे जो चुनाव बाद के सर्वेक्षणों में सामने आएंगे।

मैं बिहार के लोगों से चंपारण युग की भावना को पुन: खोजने का आग्रह करता हूं। छात्रों को अयोग्य शिक्षकों,शिक्षकों, पुस्तकालयों और प्रयोगशालाओं से रहित कॉलेजों-स्कूलों, पेपर लीक, परीक्षाओं में सामूहिक नकल, हेर-फेर किए गए परिणाम, बेकार डिग्रियां और हास्यास्पद सार्वजनिक सेवा भर्ती को दयापूर्वक बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। युवाओं को चुपचाप अपने राज्य में नौकरियों की कमी को स्वीकार नहीं करना चाहिए और ऐसे राज्य में किसी भी नौकरी के लिए लंबी दूरी तय नहीं करनी चाहिए जहां के लोग, भाषा, भोजन और संस्कृति उनके लिए अजनबी हों। माता-पिता और परिवारों को यह भाग्यवादी रूप से स्वीकार नहीं करना चाहिए कि पुरुष अपने रिश्तेदारों के साथ नहीं रहेंगे। बिहार के लोगों को अब अपने पिता और दादी की तरह नहीं रहना चाहिए।

संगठन ही कुंजी है : स्पष्टत:, विपक्षी राजनीतिक दल लोगों के सामने एक वैकल्पिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करने और परिवर्तन की इच्छा जगाने में विफल रहे। प्रशांत किशोर ने ऐसा करने की कोशिश की लेकिन वे कई कमियों से ग्रस्त थे। अगर यह सच है तो दोष पूरी तरह से विपक्षी राजनीतिक दलों का है। योग्य नेताओं और संसाधनों का होना ही पर्याप्त नहीं है, उनके पास जमीनी स्तर पर लाखों पैर और एक मजबूत संगठन होना चाहिए। पार्टी के नेताओं या उम्मीदवारों से ज्यादा, पार्टी संगठन और कार्यकत्र्ता ही चुनाव जीतते हैं। एक नियम के रूप में (दुर्लभ अपवादों को छोड़कर) हर चुनाव एक पार्टी या पार्टियों के गठबंधन द्वारा जीता जाता है, जिसके पास संगठनात्मक शक्ति होती है जो मतदाताओं को अपने पक्ष में मतदान करने के लिए प्रेरित करती है। परिणामों को देखते हुए, ऐसा लगता है कि बिहार में भाजपा और उसके बाद जद-यू के पास वह संगठनात्मक शक्ति थी।

जिम्मेदारी कहां है : भारत के चुनाव आयोग की भूमिका संदिग्ध रही। बिहार चुनावों की पूर्व संध्या पर, इसने मतदाता सूचियों के विवादास्पद विशेष गहन पुनरीक्षण की घोषणा की। केवल बिहार में और बहस को मोड़ दिया। मतदान प्रतिशत में वृद्धि आंशिक रूप से इसलिए हुई क्योंकि मतदाता सूचियों में कुल मतों की संख्या कम थी। चुनाव आयोग ने मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की ओर से आंखें मूंद लीं, जिसे प्रधानमंत्री ने मतदान की तारीखों की घोषणा से 10 दिन पहले शुरू किया था। 10,000 रुपए का हस्तांतरण घोषणा से पहले शुरू किया गया था और चुनाव प्रचार के दौरान जारी रहा। चुनाव आयोग ने इसे किसी भी स्तर पर नहीं रोका। यह धन हस्तांतरण मतदाताओं को एक जबरदस्त रिश्वत थी। मुझे इस बात की ज्यादा चिंता है कि अगले 5 सालों में राज्य सरकार को उसके वादों और जवाबदेही के लिए कौन जिम्मेदार ठहराएगा। दुर्भाग्य से, बिहार के लोगों ने राज्य विधानसभा में एक मजबूत विपक्ष के लिए वोट नहीं दिया और इससे जिम्मेदारी फिर से लोगों पर ही आ जाती है।-पी. चिदम्बरम

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