Opinion: BJP लोगों के ‘बदलते मूड’ की अनदेखी नहीं कर सकती

Edited By Punjab Kesari,Updated: 27 Jun, 2018 11:11 AM

bjp can not ignore peoples changing mood

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपाध्यक्ष अमित शाह के आक्रामक बयानों को यदि एक पैमाना माना जाए तो यह कहना पड़ेगा कि भाजपा चुनाव के लिए तैयारियां कस रही है। मीडिया में दिए गए विज्ञापन भी 2019 के चुनाव से पूर्व ‘मोदी शाइनिंग’ के मूड का संकेत दे रहे...

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा भाजपाध्यक्ष अमित शाह के आक्रामक बयानों को यदि एक पैमाना माना जाए तो यह कहना पड़ेगा कि भाजपा चुनाव के लिए तैयारियां कस रही है। मीडिया में दिए गए विज्ञापन भी 2019 के चुनाव से पूर्व ‘मोदी शाइनिंग’ के मूड का संकेत दे रहे हैं। अपने माइक्रो प्रबंधन के लिए विख्यात अमित शाह ने पहले ही कमजोर राज्यों को सीमित करके चुनाव हलका स्तर पर कार्रवाई शुरू कर दी है। लेकिन इस सबके बीच नए गठबंधन आकार ग्रहण कर रहे हैं तथा 2019 तक राजनीतिक समीकरण बदल चुके होंगे। 

दिलचस्प बात यह है कि पहले ही ऐसी अटकलें लगनी शुरू हो गई हैं कि क्या मोदी का जादू फीका पड़ रहा है और क्या 2019 में भाजपा बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करेगी। इसके साथ ही यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि भाजपा के 3 प्रमुख गठबंधन सहयोगी शिवसेना, तेलगु देशम पार्टी (तेदेपा) और पी.डी.पी. अब इससे अलग हो चुके हैं। जहां 2014 में भाजपा 282 सीटें जीतने में सफल हुई थी, वहीं अब की बार कम से कम 15 राज्यों में इसे बहुत कठोर परिश्रम करना होगा। 

2014 से लेकर अब तक भाजपा काफी मंजिल तय कर चुकी है। आज यह 10 करोड़ से अधिक सदस्यों वाली और सबसे अमीर पार्टी है, इसने अपने पंजे दूर-दूर तक फैला लिए हैं और राष्ट्रव्यापी पार्टी बन गई है। यहां तक कि पूर्वोत्तर भारत में भी इसने कुछ राज्यों में अपनी सरकार बना ली है। फिर भी ओडिशा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी जैसे राज्यों में इसका रास्ता आसान नहीं है, क्योंकि वहां इसका पार्टी संगठन काफी कमजोर है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर में पी.डी.पी. के साथ इसका संबंध विच्छेद ही राज्य में अनिश्चितता की ओर संकेत करता है। 

तेदेपा द्वारा इसी वर्ष में राजग को अलविदा कहने के बाद अब दक्षिणी राज्यों में भाजपा का कोई भी गठबंधन सहयोगी नहीं। तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में क्रमश: सी. चंद्रशेखर राव और चंद्रबाबू नायडू जैसे क्षेत्रीय नेता मजबूती से अपने पैर जमाए हुए हैं। तमिलनाडु अफरा-तफरी की तस्वीर पेश करता है। क्योंकि वहां द्रविड़ पार्टियां अपनी बुलंदियां छूने के बाद अब आपस में लड़-झगड़ रही हैं। इन सब बातों के बावजूद भी भाजपा के लिए दक्षिण भारत में अपनी स्थिति सुधार पाना काफी मुश्किल होगा क्योंकि इन राज्यों में यह किसी करिश्माई नेता को विकसित नहीं कर पाई। बेशक हाल ही में कर्नाटक में यह बहुत थोड़े अंतर से सरकार गठित करने में विफल हो गई तो भी यदि कांग्रेस-जद (एस.) गठबंधन बढिय़ा ढंग से चलता रहता है तो भाजपा काफी घाटे में रहेगी। केरल सदा की भांति संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे (यू.डी.एफ.) तथा आवाम लोकतांत्रिक मोर्चे (एल.डी.एफ.) के बीच झूलना जारी रखे हुए है। पुड्डुचेरी में कांग्रेस मजबूती से सत्ता में बनी हुई है।

2014 में 6 प्रमुख राज्यों की 248 सीटों में से राजग की झोली में 224 सीटें आई थीं परन्तु अब की बार इन राज्यों में इसकी डगर आसान नहीं होगी। गुजरात विधानसभा के चुनाव ने दिखा दिया है कि पार्टी को काफी मुस्तैदी से काम लेना होगा। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव की तरह ही अब की बार सभी 26 लोकसभा सीटें जीतना इसके लिए आसान नहीं होगा। किसानों और युवाओं का पार्टी से मोह भंग हो चुका है और विधानसभा चुनावी अभियान के ऐन अंतिम पलों में मोदी ने स्वयं रात-दिन एक करके गुजरात में पार्टी की इज्जत बचाई थी। 

सबसे अधिक जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश को भाजपा घर की मछली जैसा मानती थी। लेकिन गोरखपुर और फूलपुर संसदीय उपचुनाव में इसको मिली पराजय ने इसे कुछ चिन्ता में डाल दिया है। भाजपा के लिए चुनावी दाव बहुत ऊंचा है क्योंकि 2014 में इसने यू.पी. में 71 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी और उसके बाद विधानसभा चुनावों में बहुत शानदार कारगुजारी दिखाई थी। लेकिन लोगों के बदलते मूड की अब अनदेखी नहीं की जा सकती। राजस्थान में भाजपा ने 2014 में सभी 25 संसदीय सीटों पर जीत दर्ज की थी लेकिन जनता के वर्तमान मूड के हिसाब से देखा जाए तो मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे अब लोकप्रिय नहीं हैं लेकिन फिर भी भाजपा उनसे पिंड नहीं छुड़ा पा रही। राजस्थान में एंटी इनकम्बैंसी की लहर भाजपा को भयभीत किए हुए है। हाल ही के उपचुनावों के परिणामों के मद्देनजर कांग्रेस फिर से शक्ति अर्जित कर रही है। आगामी विधानसभा चुनाव से पता चल जाएगा कि 2019 के लोकसभा चुनाव का रुख क्या होगा? 

मध्य प्रदेश में भी पार्टी को ऐसी ही एंटी इनकम्बैंसी भावनाओं का सामना करना पड़ रहा है, जहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगातार चौथी बार सत्तासीन होने का दाव खेल रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में वहां भी एंटी इनकम्बैंसी बहुत निर्णायक भूमिका अदा करेगी। यदि कांग्रेस अपनी अन्तर्कलह पर काबू रखने में सफल हो जाती है तो भाजपा की जीत की संभावना संदिग्ध हो जाएगी। मध्य प्रदेश में इसने 2014 में 29 में से 27 संसदीय सीटों पर जीत दर्ज की थी।नीतीश कुमार नीत जद (यू) की राजग में वापसी के चलते बिहार की स्थिति बहुत रोचक बनी हुई है। पिछली बार नीतीश कांग्रेस और राजद के साथ महागठबंधन का हिस्सा थे। 2014 में भाजपा और उसके सहयोगियों ने राज्य की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर जीत दर्ज की थी, लेकिन बदले हुए राजनीतिक समीकरणों के चलते भाजपा पर अच्छी कारगुजारी दिखाने के लिए बहुत भारी दबाव होगा। पिछली जीत को दोहराने के लिए इसे छोटी-छोटी पार्टियों के साथ अपने गठबंधन को अक्षुण्ण बनाए रखना होगा। 

महाराष्ट्र में भाजपा की सबसे पुरानी गठबंधन सहयोगी शिवसेना ने आखिर इसके साथ संबंध विच्छेद कर लिया है और घोषणा की है कि अगला चुनाव यह अकेले दम पर लड़ेगी। हालांकि इसके मंत्री मोदी सरकार में यथावत बने हुए हैं। शिवसेना राजग से गठबंधन तोडऩे वाली सबसे पहली पार्टी थी। 2014 में भाजपा और सेना के गठबंधन ने राजग की सभी 48 सीटों में से 42 को अपनी झोली में डाल लिया था। लेकिन कांग्रेस और शरद पवार की राकांपा यदि मिल कर काम करते हैं तो भाजपा की राह कठिन हो जाएगी। फिर भी भाजपा अनेक लिहाज से लाभ की स्थिति में भी है। सर्वप्रथम तो इसके पास एक प्रतिबद्ध काडर और असीमित वित्तीय संसाधन हैं। 

दूसरे नम्बर पर इसके पास बहुत बढिय़ा ढंग से अपनी बात को प्रस्तुत कर सकने वाले नेता हैं और कुछ राज्यों में बहुत प्रभावी गठबंधन सहयोगी भी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भाजपा संचार कौशल के मामले में अन्य दलों से कोसों आगे है। फिर भी अंततोगत्वा तो महत्वपूर्ण बात यही होगी कि मतदाताओं का मूड कैसा है? यदि भाजपा अर्थव्यवस्था का भली-भांति प्रबंधन करती है और जी.डी.पी. अपेक्षित 7.6 प्रतिशत के आंकड़े तक पहुंच जाती है, मानसून भी बढिय़ा रहता है, उम्मीदवारों का चयन सही ढंग से किया जाता है, गठबंधन सहयोगी प्रभावी ढंग से काम करते हैं और चुनाव अभियान भी बहुत उत्कृष्ट ढंग से चलाया जाता है तो यह सरकार गठित करने के लिए अच्छी-खासी सांसद संख्या हासिल कर लेगी। यदि विपक्ष बंटा रहता है तो किस्मत एक बार फिर भगवा पार्टी पर मेहरबान हो सकती है।
-कल्याणी शंकर

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