उत्तर-पूर्व में सुशासन व विकास की ओर ध्यान दे केन्द्र सरकार

Edited By Pardeep,Updated: 22 Aug, 2018 04:01 AM

central government focusing on good governance and development in the north east

भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर के 7 में से 6 राज्यों में अच्छी तरह जड़ जमा चुकी है। यह कुछ ऐसा है जिसकी कल्पना देश के विभाजन के लिए हो रही बातचीत के समय किसी ने नहीं की थी। उस समय के कांग्रेस के बड़े नेता फखरुद्दीन अली अहमद ने एक बार स्वीकार किया था...

भारतीय जनता पार्टी पूर्वोत्तर के 7 में से 6 राज्यों में अच्छी तरह जड़ जमा चुकी है। यह कुछ ऐसा है जिसकी कल्पना देश के विभाजन के लिए हो रही बातचीत के समय किसी ने नहीं की थी। उस समय के कांग्रेस के बड़े नेता फखरुद्दीन अली अहमद ने एक बार स्वीकार किया था कि ‘‘वोट के लिए’’ पड़ोसी देशों, जैसे पूर्वी पाकिस्तान, जो अब बंगलादेश है, से मुसलमान असम लाए गए थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने यह जानबूझ कर किया क्योंकि हम असम को अपने साथ रखना चाहते थे। 

राज्य के लोगों के लिए इसने गंभीर समस्या पैदा कर दी। उस समय से पूर्वोत्तर, खासकर असम में घुसपैठ की समस्या बहुत बड़ी चिंता बन गई है। अवैध स्थानांतरण को रोकने की प्रक्रिया, जो ब्रिटिश शासन के समय शुरू हुई थी, राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर काफी प्रयासों के बावजूद अधूरी ही रह गई। इसके नतीजे के तौर पर, बड़े पैमाने पर स्थानांतरण ने सामाजिक, आॢथक, राजनीतिक और पर्यावरण से संबंधित असर डाले और पूर्वोत्तर के लोग चिंता व्यक्त करने लगे। 

जब 1950 में प्रवासी (असम से निष्कासन) कानून पास हुआ, जिसके तहत सिर्फ उन्हीं लोगों को रहने की अनुमति दी गई जो पूर्वी पाकिस्तान में लोगों के उपद्रव के कारण विस्थापित हुए थे तो बाकी लोगों को निकालने पर पश्चिम पाकिस्तान में काफी विरोध हुआ। इसके बाद, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लियाकत अली खान के बीच समझौता हुआ, जिसके तहत 1950 में देश से निकाले गए लोगों को वापस आने दिया गया। 

चीन-भारत के बीच 1962 में हुए युद्ध के दौरान सरहद पर पाकिस्तानी झंडा लिए कुछ घुसपैठिए देखे गए। इसके कारण केन्द्र सरकार ने 1964 में असम प्लान बनाया लेकिन 70 के दशक में पूर्वी पाकिस्तान में जारी अत्याचार का नतीजा था कि बड़ी संख्या में शरणार्थियों का बेरोक-टोक आना हुआ। इंदिरा गांधी-मुजीबुर्रहमान के बीच 1972 के समझौते ने अवैध परदेसियों को फिर से परिभाषित किया। इसके तहत 1971 के पहले आने वाले लोगों को गैर-बंगलादेशी घोषित कर दिया गया। असमिया लोगों ने इसका विरोध किया और आंदोलन करने लगे। इसके कारण 1983 में अवैध परदेसी (ट्रिब्यूनल से निर्धारण) कानून लागू हुआ।

इस कानून का उद्देश्य ट्रिब्यूनल के जरिए अवैध परदेसियों की पहचान और उन्हें देश से बाहर निकालना था लेकिन इससे पूर्वोत्तर में वर्षों से चली आ रही इस समस्या का निपटारा नहीं हो पाया। सन् 1985 में असम समझौते के तुरंत बाद अवैध परदेसियों की पहचान के लिए अंतिम तारीख 25 मार्च, 1971 तय की गई, जिस दिन बंगलादेश का जन्म हुआ। समझौते में कहा गया कि जो लोग उस दिन या उसके पहले यहां बस गए उन्हें नागरिक माना जाएगा और जो अवैध परदेसी उसके बाद आए हैं, उन्हें वापस भेज दिया जाएगा। 

विद्रोही समूहों ने आसू (आल असम स्टूडैंट यूनियन) के बैनर तले इसके लिए आंदोलन शुरू कर दिया कि समझौते को रद्द कर दिया जाए और सभी परदेसियों को वापस भेजा जाए चाहे वे किसी भी तारीख में आए हों लेकिन स्थानीय लोगों को कोई राहत नहीं मिली क्योंकि परदेसियों को चुपचाप राशन कार्ड दे दिए गए थे और उनके नाम वोटर लिस्ट में दर्ज कर दिए गए थे। बंगलादेशी परदेसियों के बढ़ते प्रभाव ने असम में परिस्थिति और बिगाड़ दी। वास्तव में, एक आकलन के अनुसार क्षेत्र में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत तक पहुंच गई है। अंत में, सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ी, कानून को 2005 में रद्द करना पड़ा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा,‘‘कानून ने सबसे बड़ी बाधा पैदा कर दी है और अवैध परदेसियों को वापस भेजने में यह एक बड़ी रुकावट है।’’ 

लेकिन बंगलादेश से घुसपैठ बिना रुकावट के जारी रही और अवैध परदेसियों का मामला एक संवेदनशील मुद्दा बना रहा जिसे राजनीतिक स्वार्थी तत्व इस्तेमाल करते रहे। पूर्वोत्तर के विद्र्रोही समूहों, शांतिपूर्ण और ङ्क्षहसक, दोनों ने आंदोलन किए लेकिन उन्हें कोई ठोस सफलता नहीं मिली। दुर्भाग्य से, भाजपा सरकार 1955 के कानून में इस तरह के बदलाव पर तुली है जिसके तहत धार्मिक आधार पर सताए गए परदेसियों को नागरिकता देगी यानी सांप्रदायिक आधार पर उनके बीच भेद किया जाएगा। असम के ज्यादातर लोग इसके खिलाफ हैं क्योंकि समझौते के अनुसार 25 मार्च, 1971 के बाद बंगलादेश से आए सभी अवैध परदेसियों को वापस भेजा जाना तय हुआ था। 

इसके बदले, केन्द्र को राज्यों, मसलन असम के नागालैंड, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के साथ सीमा के लंबित विवादों को सुलझाने के लिए कदम उठाने चाहिएं। अरुणाचल प्रदेश को छोड़ कर बाकी राज्य असम से ही अलग कर बनाए गए हैं। इसी तरह, मणिपुर के नागालैंड तथा मिजोरम के साथ भी सीमा विवाद है, पर वे असम की तरह दिखाई नहीं देते हैं। इसके बावजूद, क्षेत्र के लोग देश की राजधानी समेत इसके दूसरे हिस्सों में पूर्वोत्तर के लोगों, खासकर छात्रों को परेशान करने जैसे कई मुद्दों पर एक साथ हैं। उन्हें लगता है कि केन्द्र की उपेक्षा और उसकी गंभीरता का अभाव राज्यों में इस स्थिति का कारण है। वे क्षेत्र के विकास में और भागीदारी चाहते हैं। बेशक, विकास के कई कदम भाजपा ने उठाए हैं और वहां के लोगों से भावनात्मक जुड़ाव की कोशिश कर रही है। 

लेकिन आम्र्ड फोर्सिज स्पैशल पावर्स एक्ट (अफस्पा) एक असुविधा का ङ्क्षबदू रहा है। कई इलाकों से इसे उठा लिया गया है लेकिन जमीन पर स्थिति सुधरी है, इसे ध्यान में रख कर केन्द्र और ज्यादा कर सकता है। अगर जांच और वापस भेजने के समय जरूरी उपाय नहीं हुए तो अवैध परदेसियों का मामला सुरक्षा के लिए बड़ी चुनौती बना रहेगा। सत्ताधारी भाजपा को जरूर ध्यान रखना चाहिए कि हिंदी पट्टी के विपरीत पूर्वोत्तर का समाज विविधता वाला है जहां सांप्रदायिक ङ्क्षहसा नहीं है इसलिए केन्द्र को सुशासन और विकास पर ध्यान देना चाहिए, न कि हिंदुत्व के दर्शन को फैलाने पर। 

अगले साल हो रहे आम चुनाव के मद्देनजर भाजपा पूर्वोत्तर की समस्याओं को नजरअंदाज नहीं कर सकती। असम में पूर्वोतर की सबसे ज्यादा 14 सीटें हैं। हाल के उप-चुनावों में बुरे प्रदर्शन और ज्यादातर क्षेत्रीय पाॢटयों के अलग चुनाव लडऩे की संभावना को देखकर प्रधानमंत्री के लिए हर सीट को जीतना महत्वपूर्ण है। आखिरकार, प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को मालूम है कि पूर्वोत्तर में लोग आसानी से पाला बदल लेते हैं।-कुलदीप नैय्यर

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