नागरिकता संशोधन कानून : मधुमक्खियों का छत्ता

Edited By ,Updated: 17 Dec, 2019 12:29 AM

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असम जल रहा है और पूर्वोत्तर में आग लगी हुई है। पूर्वोत्तर के सभी 7 राज्यों में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं किन्तु असम सर्वाधिक प्रभावित है। लोग सड़कों पर उतर आए हैं, कार्यालयों में तोडफ़ोड़ हो रही है, सुरक्षा बल उत्तेजित भीड़ को नियंत्रित करने का...

असम जल रहा है और पूर्वोत्तर में आग लगी हुई है। पूर्वोत्तर के सभी 7 राज्यों में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं किन्तु असम सर्वाधिक प्रभावित है। लोग सड़कों पर उतर आए हैं, कार्यालयों में तोडफ़ोड़ हो रही है, सुरक्षा बल उत्तेजित भीड़ को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं, कफ्र्यू लगा दिया गया है, कश्मीर की तरह वहां भी इंटरनैट सेवा बंद कर दी गई है और राज्य के लोग पिछले सप्ताह संसद द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध कर रहे हैं। वे लोग इस कानून को हिन्दुत्व की राजनीति की बलिवेदी पर राज्य के हितों की बलि चढ़ाने और अवैध आप्रवासियों को पिछले दरवाजे से प्रवेश देने के रूप में देख रहे हैं। 

इस संशोधन के माध्यम से बंगलादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में धार्मिक रूप से उत्पीड़ित उन हिन्दू, सिख, जैन, ईसाई, बौद्ध और पारसी लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान किया गया है जिन्होंने 31 दिसम्बर 2014 से पहले भारत में शरण ली। इसमें मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहते हुए लोगों को शांत करने का प्रयास किया कि नागरिकता संशोधन कानून नागरिकता देने के लिए है न कि नागरिकता लेने के लिए और इससे मुसलमानों सहित कोई भी भारतीय प्रभावित नहीं हो रहा है तथा अवैध आप्रवासियों के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया गया है। किन्तु विपक्ष अैर पूर्वोत्तर के लोग उनकी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं। 

पश्चिम बंगाल, केरल, पंजाब, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश ने पहले ही इस कानून को लागू करने से मना कर दिया है। विपक्ष का कहना है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम भारत के संविधान की मूल भावना के विपरीत है क्योंकि इसमें धर्म को नागरिकता देने का आधार बनाया गया है और यह अनुच्छेद 14 में वॢणत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा भेदभावकारी है क्योंकि इसमें मुसलमानों को शामिल नहीं किया गया है जिनकी देश में 15 प्रतिशत जनसंख्या है।

यह कानून विभाजन से पहले की गलतियों को सुधारने के लिए है
सरकार का दावा है कि यह कानून विभाजन से पहले की गलतियों को सुधारने के लिए है और इन 3 देशों में न तो मुसलमानों का उत्पीडऩ किया गया है और न ही उनके साथ भेदभाव किया गया। किन्तु यह दलील झूठी है क्योंकि पाकिस्तान में शिया और अहमदी धार्मिक हिंसा के शिकार रहे हैं। यदि इस विधेयक का आधार पड़ोसी देशों में अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव और उत्पीडऩ है तो फिर उसमें म्यांमार और श्रीलंका को क्यों छोड़ा गया है? म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों तथा श्रीलंका में तमिलों का उत्पीडऩ हो रहा है और इससे उन देशों में उन धर्म के अनुयायियों का उत्पीडऩ बढ़ सकता है जिन्हें इस कानून द्वारा संरक्षण दिया जा रहा है। एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता के अनुसार ‘‘नागरिकता संशोधन अधिनियम भाजपा के हिन्दू राष्ट्र के राजनीतिक एजैंडा में फिट बैठता है जिससे मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाया जाए। भगवा संघ का विचार सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने या एक समुदाय पर दूसरे समुदाय का वर्चस्व स्थापित करने के लिए प्रवास को बढ़ावा देना है।’’ 

इस कानून से इस क्षेत्र की जनांकिकी में असंतुलन आएगा
असम के लोगों का मानना है कि इस कानून से इस क्षेत्र की जनांकिकी में असंतुलन आएगा, जिससे राज्य के संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा और स्थानीय लोगों के रोजगार के अवसर कम होंगे। उन्हें संदेह है कि राजग असम समझौते के खंड 6 का पालन करेगा जो असमी लोगों के संरक्षण, उनकी सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान को बढ़ावा देने और विरासत को संरक्षण देने के बारे में है और असम को नागरिकता संशोधन अधिनियम के प्रतिकूल प्रभावों से बचाएगा। यह उन क्षेत्रों को संरक्षित करेगा जहां पर बाहरी लोगों को जाने के लिए इनर लाइन परमिट लेना पड़ता है। 

इनर लाइन परमिट वाले क्षेत्रों में बाहरी लोग परमिट लेकर भी नहीं बस सकते हैं और यह व्यवस्था पूर्वोत्तर के अधिकतर क्षेत्रों में लागू है। इसका उपयोग इन क्षेत्रों को नागरिकता संशोधन अधिनियम से बाहर रखने के लिए किया जा रहा है इसकी क्या गारंटी है। इनर लाइन परमिट नागालैंड, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश में दशकों से लागू है और यह वहां अप्रभावी रहा है। हालांकि केन्द्र इस प्रावधान का उपयोग असम और त्रिपुरा के छठी अनुसूची के क्षेत्रों में करने का प्रयास कर रहा है किन्तु इससे इस क्षेत्र की जटिल स्थिति और चुनौतीपूर्ण बन गई है। 

असम में 19 लाख लोग अभी भी इससे बाहर हैं
नागरिकता संशोधन अधिनियम को उचित समय पर नहीं लाया गया है क्योंकि अभी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के कारण पैदा हुए लोगों के घाव भी नहीं भरे हैं। असम में 19 लाख लोग अभी भी इससे बाहर हैं जिनमें अधिकतर हिन्दू हैं। भाजपा असम की सूची को स्वीकार नहीं करती है किन्तु राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से छूटे हुए हिन्दू और जनजातीय लोग मानते हैं कि इस व्यवस्था में बहुत सारी कमियां थीं और वे अपने भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं तथा उन्हें कानूनी सहायता का भी भरोसा नहीं है जिसके चलते इस कानून के बारे में लोगों का आक्रोश इसलिए भी भड़का कि लोग समझ रहे हैं कि केन्द्र राज्य की चिंताओं पर ध्यान नहीं दे रहा है। हालांकि इस कानून को इन चिंताओं को दूर करने के लिए ही लाया गया था। 

असमियों को आशंका है कि यह कानून राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को निष्प्रभावी कर देगा जिसके चलते बंगलादेश से आए लाखों हिन्दू राज्य में भारत के नागरिक बन जाएंगे जिससे स्थानीय समुदायों की पहचान के लिए संकट पैदा होगा, संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा, उनकी भाषा, संस्कृति और परम्पराओं के लिए खतरा पैदा हो जाएगा। नागरिकता संशोधन अधिनियम में समय सीमा 2014 रखी गई है। असम में प्रदर्शनकारियों का कहना है कि वहां पर लोगों का आप्रवास 1951 से 1971 के बीच हुआ जिसके चलते छात्रों ने हिंसक आंदोलन किया था, फलस्वरूप 1985 में असम समझौता किया गया जिसमें विदेशियों की पहचान और उन्हें वापस भेजने के लिए 25 मार्च 1971 की तारीख निर्धारित की गई थी। इसलिए उनका मानना है कि राज्य पर और जनसंख्या थोपना गलत है। 

वे केन्द्र पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उनका मानना है कि इस कानून से असम समझौता निष्प्रभावी हो जाएगा। इस कानून से नागरिकता की स्वत: प्रक्रिया में आमूल-चूल बदलाव आ जाएगा। वर्तमान में अवैध आप्रवासी भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन नहीं करते हैं किन्तु इस कानून द्वारा ऐसा कर दिया गया है। इसमें प्रतीक्षा अवधि भी 11 वर्ष से कम कर 6 वर्ष कर दी गई है। भाजपा का मानना है कि नागरिकता संशोधन अधिनियम विभाजन के पीड़ित लोगों की समस्याओं का सर्वोत्तम उपाय है और यह उन हिन्दुओं को भी संरक्षण देगा जो राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर से छूट गए हैं। इससे पार्टी को पश्चिम बंगाल में भी लाभ मिलेगा जहां पर बड़ी संख्या में बंगलादेश से आए आप्रवासी हिन्दू हैं। 

केन्द्र और राज्य दोनों ही दोषी हैं
असम अवैध आप्रवासियों की समस्या से जूझ रहा है तथा इसके लिए केन्द्र और राज्य दोनों ही दोषी हैं। दोनों जानते हैं कि असम में साम्प्रदायिक ङ्क्षहसा का इतिहास रहा है और इस ओर दोनों ने ध्यान नहीं दिया है। असम न केवल बहुजातीय, बहुधार्मिक राज्य है, बल्कि यहां पर संप्रभुता का विस्फोटक मिश्रण भी है। यहां पर लोगों में भावना है कि उनका शोषण और उनके साथ अन्याय किया गया है। वहां पर आतंकवाद भी रहा है, संसाधनों को लेकर टकराव भी रहा है और राजनीतिक धु्रवीकरण तथा प्रतिस्पर्धी पहचान के कारण मूल निवासियों और आप्रवासियों के बीच तनाव बढ़ता रहा है। 

प्रश्न उठता है कि क्या सरकार स्थानीय भावनाओं को शांत कर पाएगी क्योंकि सम्पूर्ण क्षेत्र में हिंसा फैल गई है और इसका प्रभाव दिल्ली में भी देखने को मिल रहा है। इस स्थिति को सावधानी से संभालना पड़ेगा। कुछ लोगों को आशंका है कि सरकार असम में भी कश्मीर जैसे कदम उठा सकती है। किन्तु प्रदर्शनकारियों ने चेतावनी दी है कि उन्हें बलपूर्वक नहीं रोका जा सकता है। समय आ गया है कि सरकार स्थानीय लोगों के साथ निरंतर वार्ता करे और उन्हें स्वतंत्रता, समानता और समावेशी संस्कृति के बारे में बताए। पूर्वोत्तर के युवकों द्वारा हथियार उठाने से इस क्षेत्र में 80 और 90 के दशक से भी गंभीर स्थिति बन सकती है। सरकार के लिए यह कानून मधुमक्खियों का छत्ता साबित हो रहा है।-पूनम आई. कौशिश

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