मतभेद की ‘बुलंद आवाजों’ के बीच कांग्रेस का ‘भविष्य’

Edited By ,Updated: 05 Sep, 2020 02:51 AM

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क्या भारत की सबसे पुरानी पार्टी अपने आपको पुनर्जीवित करने में सक्षम होगी? यह एक लाखों डालर का सवाल है जिसका इतनी जल्दी से  जवाब नहीं दिया जा सकता। कांग्रेस अपनी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में तथा बेटे राहुल तथा बेटी प्रियंका द्वारा...

 क्या भारत की सबसे पुरानी पार्टी अपने आपको पुनर्जीवित करने में सक्षम होगी? यह एक लाखों डालर का सवाल है जिसका इतनी जल्दी से  जवाब नहीं दिया जा सकता। कांग्रेस अपनी अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में तथा बेटे राहुल तथा बेटी प्रियंका द्वारा प्राप्त समर्थन से आज कांग्रेस के चमचमाते भूतकाल की मात्र एक छाया है। मुख्य विपक्षी पार्टी के तौर पर इसकी कार्यप्रणाली बिना चमक के है। 

राहुल गांधी कुछ गंभीर सवालों को सार्वजनिक तौर पर नहीं उठाते बल्कि वह तब से निष्क्रिय साबित हुए हैं जब से उन्होंने पार्टी में कोई भी पद स्वीकार नहीं किया है। वह पलायनवादी के तौर पर जाने जाते हैं और इसका वह प्रमाण देते हैं। जहां तक प्रियंका का सवाल है उनकी पब्लिक उपस्थिति भी कम प्रतीत होती है। सोनिया गांधी राष्ट्रीय परिदृश्य पर राजीव गांधी की हत्या के बाद उभर कर आईं। यह एक चौंकाने वाला तथ्य है कि वह 19 वर्षों से कांग्रेस अध्यक्ष बनी हुई हैं। शायद यही कांग्रेस की पुरानी संस्कृति तथा खुशामदगी का हिस्सा है। 

यह भी कहना चाहिए कि भाजपा नीत एन.डी.ए. सरकार में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को इस बात का श्रेय जाता है कि वह कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गजों को पैंतरेबाजी तथा चतुराई से मात देने में सक्षम हैं। वह जोर-शोर से नेहरू गांधी परिवार पर बरसते हैं। गुजरात के विवादास्पद राजनीतिज्ञ राजनीति की चतुराई से दिल्ली के राज दरबार पर बैठे हैं। प्रधानमंत्री मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व तथा उनके चुनावी फायदों ने कांग्रेस को धराशायी करके रखा हुआ है। हालांकि वह अभी तक अपने  ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ वाले सपने को पूरा नहीं कर पाए। मैं इसे मोदी की गलत जगह पर रखी अभिलाषा तथा जमीनी स्तर की वास्तविकताओं को सही ढंग से समझने में नाकामी समझता हूं। भारत को कभी भी गुजरात के कारोबारी चश्मे से नहीं देखा जा सकता। मोदी को भारत को सही स्वरूप में देखना चाहिए। 

पार्टी में खुशामद करने वाली संस्कृति की कोई जगह नहीं 
भारत के बदलते राजनीतिक स्वरूप में कांग्रेस नेतृत्व को यह महसूस करने की आवश्यकता है कि पार्टी में खुशामद करने वाली संस्कृति की कोई जगह नहीं।  लोकतंत्र के प्रफुल्लित होने के लिए बड़े नेताओं को इस बात की जरूरत है कि अपने आपको बंदी बनाने वाले दिमागों से वह अपने आपको स्वतंत्र करें। इस संदर्भ में मैं यह कहने के लिए खुश हूं कि 23 वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी में बदलावों की मांग को लेकर कांग्रेस की तारणहार को पत्र लिखने में हिम्मत दिखाई। वह चाहते हैं कि सिर से लेकर पांव तक पार्टी में बदलाव आए। यह भी अचम्भित करने वाली बात है कि वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने खुले तौर पर पार्टी मामलों को जिस तरह से हैंडल किया जाता है उसकी आलोचना की। पत्र की विषय वस्तु तथा समय महत्वपूर्ण था। 

यह तर्क दिया जा रहा है कि कांग्रेस का पुनर्जीवित होना एक राष्ट्रीय जरूरत है और यह लोकतंत्र के स्वास्थ्य का मूल आधार भी है। पत्र ने यह भी खेद व्यक्त किया कि पार्टी उस समय ढलान पर आ गई जब देश सबसे गंभीर राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक चुनौतियों को स्वतंत्रता के बाद इस समय झेल रहा है। 

इस पत्र में देश में भय, सुरक्षा, साम्प्रदायिकता, बांटने वाले एजैंडे, आर्थिक मंदी, बेरोजगारी का बढऩा, सीमा पर चुनौती तथा महामारी के बारे में चिंता व्यक्त की गई। मोदी सरकार को चुनौती देने के लिए कांग्रेसी नेतृत्व के लिए यह सबसे बड़े ठोस बिंदू हैं। इसके लिए कांग्रेस को अपने आप में हिम्मत और धैर्य दिखाते हुए विपक्ष की भूमिका निभानी होगी। 

हम सभी जानते हैं कि कांग्रेस इस समय सबसे कमजोर है। लोगों में यह भावना व्याप्त है कि पार्टी ढलान पर है। पत्र को वर्तमान नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह भी नहीं कहा जा सकता। पत्र में कहा गया है कि नेहरू गांधी परिवार पार्टी का एक अखंड हिस्सा रहेगा। बस यही पार्टी की पुरानी सोच को व्यक्त करता है। मैं समझता हूं कि यह पत्र पार्टी के उच्च नेतृत्व को जगाने के लिए है ताकि वह अपने रास्तों में बदलाव लाए ताकि देश के विभिन्न मुद्दों से अच्छी तरह निपटा जाए। हम सभी जानते हैं कि सोनिया के नेतृत्व वाले परिवार ने मध्यप्रदेश तथा राजस्थान में पार्टी के मामलों को किस तरह अधूरे दिल से डील किया। विडम्बना देखिए कांग्रेस कार्यसमिति की 7 घंटों तक चली मैराथन बैठक के दौरान पत्र की विषय-वस्तु के बारे में चर्चा ही नहीं की गई न ही 23 वरिष्ठ कांग्रेसियों द्वारा पार्टी में बदलाव लाने के लिए निॢदष्ट प्रतिबद्धताओं के बारे में चर्चा की। 

दिलचस्प बात यह है कि 23 मतभेद रखने वाले नेताओं के खिलाफ कोई द्वेष की भावना न रखे जाने के भरोसे के बावजूद सोनिया गांधी ने ऐसे नेताओं पर महत्वपूर्ण संगठनात्मक बदलावों की घोषणा करने के दौरान निशाना साधा है। उनकी रणनीति स्पष्ट तौर पर गुलाम नबी आजाद तथा आनंद शर्मा जैसे नाराज नेताओं की शक्ति को घोलने की है। दोनों ही नेताओं ने कांग्रेस नेतृत्व की कार्यप्रणाली के स्टाइल पर सवाल उठाए थे। इन दोनों नेताओं ने भी पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस संदर्भ में यह कहना उचित होगा कि हमारे लोकतंत्र में मतभेद की आवाजें उठाना बेहद लाजिमी है। वास्तव में लोकतंत्र का चलना सभी स्तरों पर स्वतंत्र कार्यप्रणाली तथा स्वतंत्र विचारों के ऊपर निर्भर करता है। 

दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर यदि पीछे मुड़ कर देखें तो वह उस समय कांग्रेस पर अपनी पकड़ बनाए हुई थीं और उनमें लडऩे का जज्बा बरकरार था। अफसोसजनक बात यह रही कि उसके बाद उन्होंने अपने उदारवादी रास्ते से मुख मोड़ लिया। इस परिवेश में देखते हुए सोनिया गांधी को अभी पार्टी के उन दिनों को देखते हुए बहुत कुछ सीखना है। दुर्भाग्यवश वह अपने में लडऩे के जज्बे की कमी रखे हुए हैं। वह एक ठीक-ठाक नेता हैं जो राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं रखती जिससे कि कांग्रेस को एक नया आकार दिया जा सके। विपक्ष के तौर पर एक प्रभावी भूमिका निभाने में भी सोनिया असफल हैं।-हरि जयसिंह 
 

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