Edited By ,Updated: 02 Jun, 2019 01:28 AM
भारत विश्व का सबसे बड़ा गौरवमयी प्रजातांत्रिक शासन पद्धति सम्पन्न राष्ट्र है। 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुसार 1952 में पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में चुनाव हुए। जिन्हें सम्पन्न करने में 5 महीने से अधिक का समय लगा।...
भारत विश्व का सबसे बड़ा गौरवमयी प्रजातांत्रिक शासन पद्धति सम्पन्न राष्ट्र है। 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के अनुसार 1952 में पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में चुनाव हुए। जिन्हें सम्पन्न करने में 5 महीने से अधिक का समय लगा। तब से लेकर आज तक 17वां संसदीय चुनाव सम्पन्न हुआ है। राजनीतिक दल को सत्तासीन करना या सत्ताहीन करना लोगों की इच्छा पर निर्भर करता है।
2019 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में दूसरी बार भाजपा सत्ता में आई। कांग्रेस को पहले 2014 और अब 2019 में शिकस्त का सामना करना पड़ा है। हकीकत में जीत और हार जम्हूरियत की तर्जे हकीकत है, हारने वाले दल को भी इस जनादेश को खुशी से शिरोधार्य करना चाहिए। 2019 के संसदीय चुनाव ने भारतीय राजनीति की शक्लोसूरत ही बदल कर रख दी है क्योंकि भाजपा की जीत बड़ी हैरतअंगेज और अप्रत्याशित है। चुनाव में भाजपा ने अपने दम पर 303 सीटें जीत कर राष्ट्र में एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है जबकि कांग्रेस 2014 में 44 से 2019 में मात्र 52 सीटों तक ही सिमट कर रह गई है।
आजादी और विकास में अहम योगदान
कांग्रेस भारत का ग्रैंड ओल्ड राजनीतिक दल है जिसने महात्मा गांधी के नेतृत्व में लम्बे संघर्ष के बाद देश को ब्रिटिश हुकूमत से आजाद करवाया और स्वतंत्रता के बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में हर क्षेत्र के विकास की मजबूत बुनियाद रखी। इस तरह देश की आजादी और स्वतंत्रता के बाद विकास की प्रगति के पथ पर लाने का श्रेय कांग्रेस को जाता है। चुनाव में पराजय के बाद ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के प्रैजीडैंट राहुल गांधी और कई प्रदेशों के अध्यक्षों ने इस्तीफे देने शुरू कर दिए हैं। हकीकत में हार के बाद त्यागपत्र देना कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं है। यह तो अपनी जिम्मेदारी से भागने का एक आसान तरीका है।
वास्तव में राजनीतिज्ञों को इस्तीफा केवल अनैतिक, आपराधिक या भ्रष्टाचार के मामले में ही देना चाहिए न कि हार और जीत इसका माप बने क्योंकि पद से इस्तीफा किसी समस्या का समाधान नहीं होता। कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष राहुल गांधी को हार की दुविधा से बाहर निकलकर मजबूती के साथ संगठन को चलाना चाहिए और ढिलमुल नीति को दरकिनार करके दृढ़ता से मैदान में उतरना चाहिए क्योंकि प्रजातंत्र में चुनाव में एक पार्टी की हार पर ही दूसरी की जीत होती है। श्रीमती इंदिरा गांधी 1977 में खुद भी चुनाव हार गई थीं, परंतु अपने दृढ़ और नेक इरादों से वह 1980 में पुन: सत्ता में आ गई थीं।
संगठनात्मक ढांचे में हो बदलाव
भारतीय जनता पार्टी के पास अब नरेन्द्र मोदी एक मजबूत नेता उभर कर सामने आए हैं और कांग्रेस को पहली बार एक शक्तिशाली राजनीतिक दल का मुकाबला करना पड़ा है। सबसे पहले कांग्रेस को पुन: अपने पांव पर खड़े होने के लिए अपने संगठनात्मक ढांचे में मूलभूत परिवर्तन करना होगा। पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा शीर्ष नेताओं द्वारा इस ओर गंभीरता से ध्यान न देने से कमजोर होता चला गया। कांग्रेस का सेवा दल और भाजपा का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करीब-करीब एक ही समय में अस्तित्व में आए थे। आर.एस.एस. के पास अब 65000 से अधिक शाखाएं हैं जहां नौजवानों को प्रशिक्षित किया जाता है। जबकि कांग्रेस का सेवा दल जो कभी एक बड़ी मजबूत संस्था थी और नौजवानों को कांग्रेस की विचारधारा से अवगत करवाती थी, आज सारे देश में लडख़ड़ा गई है।
इसी तरह इंटक एक शक्तिशाली संगठन था, जिसमें औद्योगिक और कृषि क्षेत्र के मजदूर होते थे और जिनकी तादाद हर प्रदेश में लाखों थी। आज यह संगठन भी पूरी तरह चरमरा गया है। देश की आबादी में करीब आधी महिलाएं हैं और महिला कांग्रेस एक बड़ा प्रगतिशील संगठन था, धीरे-धीरे इसकी ओर ध्यान न देने से इसकी संख्या ही कम नहीं हुई बल्कि इसका प्रभाव भी शून्य तक पहुंच गया है। युवा कांग्रेस जो कांग्रेस पार्टी की रीढ़ की हड्डी थी, यह संगठन नई चुनावी प्रक्रिया के कारण अनगिनत गुटों में बंट गया है जिससे कांग्रेस इस स्थिति में पहुंच गई है।
कांग्रेस को खुशामदियों, जी हजूरियों और चाटुकारों से छुटकारा पाना होगा क्योंकि ये लोग निजी स्वार्थों के कारण नेताओं को अक्सर भ्रमित करते रहते हैं और जमीनी हकीकत से कोसों मील दूर रखते हैं। ठीक समय पर ठीक आदमी को ठीक स्थान पर लगाना ही बुद्धिमता और विवेकशीलता होती है। नेताओं को गुजरे जमाने की दास्तां और जख्मों को कुरेदने से कोई फायदा होने वाला नहीं, बल्कि भारत के उज्ज्वल भविष्य के निर्माण के लिए उन्हें लोगों के सामने सुनिश्चित एवं सुविचार रखने होंगे ताकि लोग पुन: कांग्रेस के नजदीक आ सकें। नकारात्मकता कभी भी फलीभूत नहीं होती, हमेशा सकारात्मक और सृजनात्मकता ही राष्ट्र को प्रगति के पथ पर लेकर चलती है।
इस हकीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस पार्टी के कुछ बेलगाम नेताओं ने शालीनता और भद्रता को त्याग कर अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल करना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप समूची पार्टी का देश में नुक्सान हुआ। हकीकत में कांग्रेस के नीति निर्माताओं में नीति निपुणता की कमी थी, जो लोगों के जज्बात समझने में बुरी तरह असफल हुए। जिन नेताओं को मीडिया, प्रचार और संगठन की जिम्मेदारी दी गई थी, उन्होंने जानबूझकर कोताही की या उनमें कुछ बुनियादी कमियां थीं। कांग्रेस पार्टी ने पिछले 25 सालों से न तो कांग्रेस की नीतियों का प्रचार करने के लिए किसी को प्रोत्साहित किया और न ही देश में अच्छे वक्ताओं को आगे आने का मौका दिया। बल्कि वे लोग पार्टी के ऊंचे पदों पर अवश्य पहुंच गए जिन्होंने अनैतिक ढंग से दौलत पैदा की।
हकीकत में कांग्रेस गरीब लोगों का राजनीतिक दल रहा है और इन्हीं की सहायता से राष्ट्र को आजादी भी मिली और देश प्रगति के रास्ते पर भी चला। गरीब लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कांग्रेस को नई नीतियों का निर्माण करना होगा। देश के लोग एक ऐसे नेता की तलाश में रहते हैं जो पाक-साफ दामन हो, प्रतिभाशाली हो, प्रभुत्व सम्पन्न हो, उनकी आंतरिक समस्याओं का समाधान करने में समर्थ और दुश्मन देशों के साथ निडरता से पेश आने वाला हो। उनकी भावनाओं की कदर करने वाला हो क्योंकि आज के नौजवानों में वर्तमान इंफर्मेशन और टैक्नोलॉजी के सहयोग से क्रांतिकारी परिवर्तन आ चुका है। इसलिए न तो वे जात-पात, न प्रदेश वाद में और न ही सम्प्रदायवाद में विश्वास रखते हैं बल्कि अपने आर्थिक साधनों को मजबूत करने के लिए सारे विश्व को एक परिवार के रूप में समझते हैं।
पांच सितारा संस्कृति से नुक्सान
पिछले कुछ वर्षों से कांग्रेसी नेताओं ने पांच सितारा संस्कृति को अपना लिया है जबकि पुराने प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित नेता ही अक्सर सॢकट हाऊस में ठहरते थे, जहां लोग आसानी से उनसे मिलकर अपनी दरपेश समस्या का जिक्र करते थे और जहां पर कांग्रेस के दफ्तर होते थे वे अक्सर वहां भी जाकर कार्यकत्र्ताओं के साथ खाना खाते और उनकी बातचीत सुनते परंतु वर्तमान संस्कृति ने नेताओं को कार्यकत्र्ताओं और आम लोगों से बिल्कुल ही काटकर रख दिया है। पांच सितारा होटलों में जनसाधारण का जाना ही हकीकत में मुश्किल है। नेताओं और कार्यकत्र्ताओं की दूरी को खत्म करने के लिए इस संस्कृति को ही खत्म करना होगा।
इन चुनावों के परिणामों से कुछ कड़वी सच्चाइयां निकलकर सामने आई हैं, भारत हकीकत में तो संसदीय पद्धति वाला देश है परंतु चुनाव के समय यह अमरीका की तरह प्रैजीडैंशियल पद्धति का रूप धारण कर लेता है। लोग राजनीतिक दल की नीतियों की सराहना की बजाय शख्सियत परस्ती को अपना लेते हैं। एक ही नेता को सर्वोपरि और सर्वश्रेष्ठ मान कर उसके पीछे खड़े हो जाते हैं। जैसा कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेन्द्र मोदी को अपनी प्रतिभा का फायदा हुआ है।
कांग्रेस का उभरना राष्ट्र हित में
जैसे अमरीका, इंगलैंड, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और यूरोप के अन्य देशों में दो दल ही आमने-सामने होते हैं। भारत भी वह स्थान अवश्य हासिल कर लेगा। पराजय निराशा या मायूसी का ही प्रतीक नहीं होती, बल्कि मुश्किल से निकलने के लिए एक नई सोच को जन्म देती है। यह भी एक हकीकत है कि जो लड़ते हैं, जीत और हार भी उनके मुकद्दर में होती है। मगर हार से घबरा कर भाग जाना व्यक्तिगत बुजदिली ही नहीं है बल्कि प्रजातंत्र का ही अपमान है। राष्ट्र हित तथा स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए कांग्रेस का पुन: एक शक्तिशाली दल के रूप में उभरना अति आवश्यक है। राष्ट्र के महान नेता और प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने एक बार संसद में कहा था। गिरते हैं शाह सवार ही.. मैदान -ए-जंग में वो तिफल क्या गिरे, जो घुटनों के बल चले।-प्रो. दरबारी लाल पूर्व डिप्टी स्पीकर, पंजाब विधानसभा