ऋण माफी से बढ़ेगा राज्य सरकारों का वित्तीय घाटा

Edited By ,Updated: 14 Apr, 2017 11:26 PM

debt waiver will increase with fiscal deficit of state governments

‘‘प्रादेशिक सरकारों द्वारा जैसे-जैसे ऋण लेने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है उससे  न केवल...

‘‘प्रादेशिक सरकारों द्वारा जैसे-जैसे ऋण लेने का सिलसिला बढ़ता जा रहा है उससे न केवल सरकारी हुंडियों (बांड) पर  बुरा प्रभाव पड़ता है बल्कि ईमानदारी भरी ऋण संस्कृति को भी सेंध लगती है। ऐसे प्रयासों के फलस्वरूप ऋण लेने वाले प्राइवेट व्यक्ति बाजार से बाहर धकेल दिए जाते हैं क्योंकि सरकारी उधारी में वृद्धि होने के कारण अन्य लोगों के लिए ऋण लेना बहुत महंगा हो जाता है।’’

ये शब्द रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल ने तब कहे जब गत सप्ताह एक पत्रकार सम्मेलन में उन्हें कृषि ऋण माफी के बारे में सवाल पूछे गए। इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए पटेल ने सुझाव दिया कि इस मुद्दे पर आम सहमति बनाने की जरूरत है ताकि ऋण माफी के वायदे करने से बचा जाए। उनकी यह टिप्पणी  हाल ही में यू.पी. सरकार द्वारा कृषि ऋण माफ किए जाने के परिप्रेक्ष्य में की गई थी। अन्य राज्यों से भी इस प्रकार की मांग उठ रही है। 

ऋण माफी से जहां राज्य सरकारों का वित्तीय घाटा बढ़ेगा, वहीं सरकारी खर्च की गुणवत्ता भी बदतर होगी, यानी कि यह खर्च  उपजाऊ मदों की बजाय ऋण माफी में चला जाएगा। उदाहरण के तौर पर यू.पी. सरकार ने घोषणा की कि वह ऋण माफी के वित्त पोषण के लिए हुंडियां (बांड) जारी करेगी। बेशक इसका वास्तविक प्रभाव राज्य सरकार द्वारा बजट प्रस्तुत करने के बाद ही आंका जा सकेगा तो भी एक बात तय है कि इसकी वर्तमान और भविष्य की देनदारियों में निश्चय ही वृद्धि होगी। 

महाराष्ट्र और पंजाब जैसे अन्य राज्यों में ऋण माफी कार्यान्वित किए जाने की संभावना के प्रभाव भी इसी तरह के होंगे और इनसे राष्ट्रीय बैलेंस शीट पर बुरा प्रभाव पड़ेगा। बेशक वित्त मंत्री अरुण जेतली ने कहा है कि ऋण माफी की वित्तीय जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर है तो भी इससे केन्द्र सरकार को अवश्य ही चिंतित होना चाहिए क्योंकि ऐसे कदमों से किसी राज्य की क्रैडिट रेटिंग को अपडेट करने की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी। 

चूंकि समूचे तौर पर राज्य सरकारें देश के सम्पूर्ण सरकारी खर्च में लगभग 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखती हैं इसलिए प्रादेशिक स्तर पर वित्तीय अनुशासन और खर्च की गुणवत्ता बनाए रखना अधिक से अधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है। वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंधन (एफ.आर.बी.एम.) के नियमों के कार्यान्वयन के चलते गत दशक दौरान राज्य सरकारों की वित्तीय कारगुजारी  में महत्वपूर्ण सुधार लाने में सहायता मिली थी। 

14वें वित्त आयोग द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार राज्यों के मामले में ऋण का सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) से अनुपात राष्ट्रीय स्तर पर 2004-05 में 31.1 प्रतिशत था जोकि 2014-15 तक घट कर 21 प्रतिशत पर आ गया था। इसी प्रकार सकल वित्तीय घाटा भी जी.डी.पी. के 3.3 प्रतिशत से घट कर इसी अवधि दौरान 2.4 प्रतिशत रह गया था। गत वर्ष आर.बी.आई. द्वारा प्रदेश सरकारों के वित्त का विश्लेषण प्रकाशित किया गया था जिसमें दिखाया गया था कि बेशक अभी भी प्रादेशिक बजट में राजस्व खर्च का ही वर्चस्व है तो भी खर्च की व्यापक  गुणवत्ता में सुधार हुआ है। 

फिर भी यह देखने में आ रहा है कि गत वर्षों दौरान जो वित्तीय अनुशासन लागू किया गया था उसे कुछ हद तक उलटा घुमाया जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण था सरकार के चालू खर्च में वृद्धि। रिपोर्ट में उम्मीद व्यक्त की गई है कि चालू वित्त वर्ष में यह घाटा इसी प्रकार ऊंचे स्तर पर बना रहेगा। बढ़ा हुआ वेतन बिल और ‘उदय बांड’ जैसी योजनाओं पर ब्याज के प्रावधान के कारण बजट के अंतिम नतीजे प्रभावित होंगे। यदि विभिन्न राज्यों में कृषि ऋण माफ किए जाते हैं तो इससे  स्थिति और भी बिगडऩे की संभावना बढ़ जाएगी। 

ये दो बड़े कारण हैं जिनके चलते प्रादेशिक बजट की ओर वर्तमान में  दी जा रही तवज्जो की तुलना में अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। देश का आम वित्तीय घाटा पहले ही अन्य समकक्ष अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में सबसे ऊंचा है और यदि प्रादेशिक वित्तीय घाटा भी बढ़ता है तो देश की समूची अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधारने से होने वाले लाभ परिसीमित होकर रह जाएंगे। वित्तीय बाजारों में ब्याज दरें ऊंची उठेंगी जिससे प्राइवेट निवेशक बाहर धकेल दिए जाएंगे। उल्लेखनीय है कि केन्द्रीय टैक्स राजस्व में अब राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़ कर 42 प्रतिशत हो गई है। ऐसे में यह जरूरी है कि प्रदेश सरकारें समझदारी से खर्च करें और क्षमता निर्माण का लक्ष्य तय करें ताकि दीर्घकालिक रूप में वे आॢथक वृद्धि के मार्ग पर अग्रसर हो सकें।     

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