अति गरीबों के लिए ‘न्याय’ समय की मांग

Edited By ,Updated: 31 Mar, 2019 03:14 AM

demand for  justice  time for the poor

आखिरकार, एक राजनीतिक दल ने एक कठिन निर्णय लेने का साहस दिखाया है। लम्बे समय से हम इस मुद्दे से कन्नी काट रहे थे, नैतिक तर्क का सामना करने से इंकार कर रहे थे और गरीबी को हटाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने से बचने की कोशिश कर रहे थे। भारत के अधिकतर...

आखिरकार, एक राजनीतिक दल ने एक कठिन निर्णय लेने का साहस दिखाया है। लम्बे समय से हम इस मुद्दे से कन्नी काट रहे थे, नैतिक तर्क का सामना करने से इंकार कर रहे थे और गरीबी को हटाने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने से बचने की कोशिश कर रहे थे। 

भारत के अधिकतर लोग हमेशा गरीब थे। (मुझ पर राष्ट्र विरोधी होने का आरोप लग सकता है)आजादी के समय हम बहुत गरीब थे। प्रति व्यक्ति आय 247 रुपए थी। कृषि के अलावा बहुत कम लोग नौकरी करते थे। साक्षरता दर 17 प्रतिशत थी। जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 32 वर्ष थी। ये सभी सूचक भारी गरीबी की ओर इशारा करते हैं। 72 वर्षों में सभी सूचकों में सुधार हुआ है। लाखों लोग कृषि से निकलकर संगठित क्षेत्र में नौकरियां कर रहे हैं। साक्षरता दर 73 प्रतिशत हो गई है, जन्म के समय जीवन प्रत्याशा 68 वर्ष तथा प्रति व्यक्ति आय (2018) 1,12,835 रुपए हो गई है। 

आश्चर्यजनक आंकड़े
हमें खुश होना चाहिए; साथ ही हमें शॄमदा होना चाहिए कि 25 करोड़ लोग आज भी अति गरीब हैं। यदि इनमें उन लोगों को भी जोड़ लिया जाए जिनके पास घर नहीं हैं अथवा भूमि का टुकड़ा नहीं है अथवा जिन्हें कई बार भूखा रहना पड़ता है अथवा जिनके पास आय का नियमित साधन नहीं है, तो यह आंकड़ा दोगुना हो जाएगा। हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि लाखों लोग गरीबी के कुचक्र से बाहर आ गए हैं। प्रत्येक सर्वे में यह बात सामने आई है कि 2004-05 से 2013-14 (यू.पी.ए. शासन) में कम से कम 14 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से ऊपर उठाए गए। एन.डी.ए. के कार्यकाल में भी कुछ लोगों ने गरीबी की रेखा को तोड़ा होगा, जबकि कुछ लोगों पर नोटबंदी और दोषपूर्ण जी.एस.टी. का बुरा प्रभाव पड़ा जिस कारण वे गरीबी रेखा से नीचे चले गए। मेरा अनुमान है कि एन.डी.ए. सरकार के दौरान एक नम्बर ने दूसरे नम्बर को रद्द कर दिया। हमें इस अवधि के आंकड़े का इंतजार करना होगा। 

कुल मिलाकर निष्कर्ष यह है कि आज भी जनसंख्या का एक बड़ा वर्ग गरीबी में जीवन जी रहा है। गरीबी में रह रहे इन लोगों का अनुपात 20 से 25 प्रतिशत है। यह आंकड़ा 25 से 30 करोड़ बैठता है। आॢथक प्रश्र यह है कि क्या हम उन्हें गरीबी से ऊपर उठाने के लिए केवल आर्थिक वृद्धि पर निर्भर रह सकते हैं? नैतिक प्रश्र भी यही है कि क्या हमें उन्हें गरीबी से ऊपर उठाने में केवल आर्थिक वृद्धि पर निर्भर रहना चाहिए। 

आर्थिक दिमाग, नैतिक दिल 
आर्थिक प्रश्र का उत्तर है, हां, हम ऐसा कर सकते हैं। तेज विकास से आखिर में गरीबी खत्म हो जाएगी। इसके परिणामस्वरूप हम एक सामाजिक सुरक्षा प्रणाली भी बना सकते हैं जिसके तहत किसी व्यक्ति को व्यक्तिगत दुर्घटना अथवा व्यापार में असफलता पर गरीबी रेखा से नीचे चले जाने पर सहायता दी जा सकती है। लेकिन दिक्कत यह है कि इसमें सालों लग जाएंगे तथा इस दौरान अति गरीब लोग मुश्किलें और अपमान सहने के लिए मजबूर होंगे। इसलिए आर्थिक प्रश्र का उत्तर पूरी तरह स्वीकार्य नहीं है। 

नैतिक प्रश्र का उत्तर है, नहीं हम ऐसा नहीं कर सकते। हमें वृद्धि दर से आगे की बात सोचनी होगी तथा अत्यधिक गरीबी को दूर करने के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे। इनमें से एक कदम, जिसे अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों का समर्थन प्राप्त है, वह है लक्षित जनसंख्या को डायरैक्ट कैश ट्रांसफर। दरअसल, 2014 से 2017 के दौरान मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे डा. अरविंद सुब्रह्मण्यन ने 2016-17 के आर्थिक सर्वे में इस मुद्दे पर पूरा एक चैप्टर समर्पित किया है। यूनिवर्सल बेसिक इंकम (यू.बी.आई.) के मुद्दे पर वर्षों से चर्चा हुई है। डायरैक्ट कैश ट्रांसफर यू.बी.आई. का ही दूसरा रूप है। लक्षित ग्रुपों को कैश ट्रांसफर की योजनाओं पर कई देशों में काम हुआ है। इस विषय पर काफी साहित्य उपलब्ध है। जिसमें डायरैक्ट कैश ट्रांसफर संबंधी कई भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश की गई है।

कांग्रेस पार्टी द्वारा घोषित न्यूनतम आय योजना (न्याय) के तहत 5 करोड़ लोगों को प्रति माह/वर्ष डायरैक्ट कैश ट्रांसफर का वायदा किया गया है। इसमें काफी राशि खर्च होगी लेकिन क्या भारत को आजादी के 72 वर्षों बाद गरीबी को दूर करने के लिए इस तरह की योजना शुरू करनी चाहिए। इस प्रश्र का उत्तर आॢथक दिमाग और नैतिक दिल से दिया जाना चाहिए। मेरे ख्याल में इसका एक ही उत्तर हो सकता है : हां, सभी चुनौतियों का सामना करते हुए हमें यह अवश्य करना चाहिए। एक अच्छी सरकार की योग्यता किसी मुश्किल योजना को सफलतापूर्वक लागू करने में है, न कि नैतिक तौर पर जरूरी और आॢथक तौर पर सम्भव योजना को छोडऩे में। 

संसाधनों पर पहला अधिकार 
पिछले 15 वर्षों में भारत की जी.डी.पी. 11-12 प्रतिशत प्रतिवर्ष के हिसाब से बढ़ी है। 2004-05 में हमारा सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) 32,42,209 करोड़ था जो 2019-20 में 210,07,439 करोड़ हो गया है तथा 2023-24 तक इसके 400,00,000 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है। 2018-19 में केन्द्र और राज्य सरकारों का कुल व्यय 60,00,000 करोड़ रहने का अनुमान है और हर साल राजस्व बढऩे के साथ यह और बढ़ेगा। 

नैतिक-आर्थिक प्रश्र यह है कि क्या देश को अपने 20 प्रतिशत सबसे गरीब लोगों को गरीबी से बाहर लाने के लिए जी.डी.पी. का 2 प्रतिशत अलग नहीं रख देना चाहिए। याद रहे, अहमदाबाद से मुम्बई के बीच चलने वाली बुलेट ट्रेन पर 1,00,000 करोड़ रुपए खर्च होंगे! इसके अलावा कुछ कार्पोरेट घरानों के दिवालियापन के मामलों को सुलझाने के लिए 84,000 करोड़ रुपए माफ किए गए। यदि कुछ लोगों पर इतनी बड़ी रकम खर्च की जा सकती है तो 25 करोड़ लोगों के लिए जी.डी.पी. का थोड़ा-सा हिस्सा खर्च क्यों नहीं किया जा सकता? देश के संसाधनों पर गरीब का पहला हक है। कांग्रेस ने यह सिद्धांत समझ लिया है और चुनौती को स्वीकार कर लिया है।-पी. चिदम्बरम 

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