पर्यावरण : सोचने की फुर्सत किसी को नहीं

Edited By Updated: 10 Nov, 2025 05:30 AM

environment no one has time to think

लैंसट की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में भारत में 17 लाख से अधिक लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई। ‘द लैंसट काऊंटडाऊन ऑन हैल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ रिपोर्ट में वायु प्रदूषण और संबंधित मौतों के लिए जीवाश्म ईंधन धन (जैसे...

लैंसट की हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2022 में भारत में 17 लाख से अधिक लोगों की मौत वायु प्रदूषण के कारण हुई। ‘द लैंसट काऊंटडाऊन ऑन हैल्थ एंड क्लाइमेट चेंज 2025’ रिपोर्ट में वायु प्रदूषण और संबंधित मौतों के लिए जीवाश्म ईंधन धन (जैसे कोयला और पैट्रोल) को प्रमुख कारण बताया गया है। यह रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों पर प्रकाश डालती है और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा (जैसे सूर्य का प्रकाश, पवन और पानी) को बढ़ावा देने की सिफारिश करती है। हालांकि यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि कई दावों के बावजूद जीवाश्म ईंधन पर हमारी निर्भरता कम नहीं हो रही है। इस उत्तर भारत के कई शहरों में वायु गुणवत्ता गंभीर स्तर पर है।

केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार  दिल्ली-एन.सी.आर. में कई जगहों पर पी.एम. 2.5 और पी.एम. 10 कणों का स्तर मानक से कई गुणा अधिक पाया गया है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हर साल अक्तूबर-नवम्बर में दिल्ली-एन.सी.आर. तथा देश के कई भागों में प्रदूषण के कारण हवा की गुणवत्ता काफी खराब हो जाती है। इस प्रदूषण के लिए किसानों द्वारा पराली जलाने को एक बड़ा कारण माना जाता है  लेकिन वास्तविकता यह है कि पराली जलाना इस समस्या का एक कारण है। कुछ  लोग और बुद्धिजीवी किसानों द्वारा पराली जलाने की प्रक्रिया को ऐसे प्रचारित करते हैं जैसे इस प्रदूषण का केवल यही एक कारण है।

केवल पराली जलाने की प्रक्रिया को ही इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। इसके साथ ऐसे अनेक कारण हैं जो उन दिनों प्रदूषण बढ़ाकर हवा की गुणवत्ता खराब करते हैं। दरअसल वायु प्रदूषण बढऩे से सांस के रोगियों की समस्या बढ़ जाती है और स्वस्थ व्यक्ति को भी सांस सम्बन्धी बीमारियां होने की संभावना बढ़ जाती है। वायु प्रदूषण बढऩे पर सरकारें जरूर सक्रिय होती हैं लेकिन जैसे ही प्रदूषण कम होता है, सरकारें पुन: सो जाती हैं।  जबकि वायु प्रदूषण कम करने वाले उपायों पर पूरे साल सक्रियता के साथ काम होते रहना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि कोई भी तकनीक प्रदूषण को कम करने में सहायता तो कर सकती है लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म नहीं कर सकती। कई बार मौसम में परिवर्तन भी इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होता है।

रही-सही कसर हमारी नासमझी और मानवीय गतिविधियां पूरी कर देती हैं। यही कारण है कि प्रदूषण कम करने के लिए नीतियां तो बनती हैं लेकिन उनका सही ढंग से क्रियान्वयन न होने के कारण नतीजा ढाक के तीन पात रहता है। सरकारी नीतियों के सही ढंग से क्रियान्वयन के साथ जब तक जनता पूर्ण रूप से जागरूक नहीं होगी, वायु प्रदूषण को पूरी तरह से कम नहीं किया जा सकता। दरअसल धूल, धुएं और कुहासे से बना स्मॉग हमारे लिए कई समस्याएं पैदा करता है। जब ईंधन जलता है, वायुमंडलीय प्रदूषण या गैसें हवा में मौजूद सूरज की रोशनी और वातावरण में इसकी गर्मी के साथ प्रतिक्रिया करती हैं, जिससे स्मॉग बनता है। 

इस मौसम में हर साल इस स्मॉग के कारण प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ जाता है। निर्माण कार्य भी इस प्रदूषण के लिए जिम्मेदार होते हैं। इसके साथ ही वाहनों का प्रदूषण भी इस स्मॉग को बढ़ाता है। गौरतलब है कि काफी वायु प्रदूषण वाहनों के माध्यम से होता है। वाहनों से निकलने वाले धुएं में कार्बनमोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड , हाइड्रोकार्बन  तथा सस्पेन्डेड परटिकुलेट मैटर जैसे खतरनाक तत्व एवं गैसें होती हैं जो स्वास्थ्य के लिए बहुत ही हानिकारक हैं। कार्बनमोनो ऑक्साइड जब सांस के माध्यम से शरीर के अन्दर पहुंचता है। तो वहां हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन नामक तत्व बनाता है। इस तत्व के कारण शरीर में आक्सीजन का परिवहन सुचारू रूप से नहीं हो पाता है।

नाइट्रोजन मोनोऑक्साइड एवं नाइट्रोजन डाइऑक्साइड भी कम खतरनाक नहीं हैं। नाइट्रोजनमानोऑक्साइड , कार्बनमोनोऑक्साइड की तरह ही हीमोग्लोबिन के साथ मिलकर शरीर में आक्सीजन की मात्रा घटाता है। इसी तरह नाइट्रोजन डाइऑक्साइड फेफड़ों के लिए बहुत ही खतरनाक है। इसकी अधिकता से दमा और ब्रोंकाइटिस जैसे रोग होने की संभावना बढ़ जाती है। वातावरण में हाइड्रोकार्बन की अधिकता कैंसर जैसे रोगों के लिए जिम्मेदार है। वाहनों से निकलने वाला इथाईलीन  जैसा हाइड्रोकार्बन थोड़ी मात्रा में भी पौधों के लिए हानिकारक है। सस्पेन्डेड परटिकुलेट मैटर बहुत छोटे-छोटे कणों के रूप में विभिन्न स्वास्थ्यगत समस्याएं पैदा करते हैं। ऐसे तत्व हमारे फेफड़ों को नुकसान पहुंचाकर सांस संबंधी रोग उत्पन्न करते हैं।

वास्तविकता यह है कि आज पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुर्सत किसी को नहीं है। पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे। उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे समस्त ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया ने पर्यावरण के अनुकूल समझ विकसित करने में बाधा पहुंचाई। यह समझ विकसित करने के लिए एक बार फि र हमें नए सिरे से सोचना होगा। हमें यह मानना होगा कि प्रदूषण की यह समस्या किसी एक शहर, राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं है। पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती है कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण के प्रति चिन्ता देखी जा रही है। सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से वायु प्रदूषण का मुद्दा हल हो सकता है?-रोहित कौशिक 
 

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