इतिहास अटल जी को एक विनम्र महापुरुष के तौर पर याद करेगा

Edited By Pardeep,Updated: 19 Aug, 2018 03:23 AM

history will remember atal ji as a humble great man

बीमारी के साथ लम्बी लड़ाई के बाद गत वीरवार को 93 वर्षीय अटल बिहारी वाजपेयी का निधन हो गया। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन एक स्वयंसेवक के तौर पर शुरू किया,  जनता पार्टी में विलय होने तक वह जनसंघ के सदस्य बने रहे, लाल कृष्ण अडवानी के साथ 1980 में भारतीय...

बीमारी के साथ लम्बी लड़ाई के बाद गत वीरवार को 93 वर्षीय अटल बिहारी वाजपेयी का निधन हो गया। उन्होंने अपना राजनीतिक जीवन एक स्वयंसेवक के तौर पर शुरू किया,  जनता पार्टी में विलय होने तक वह जनसंघ के सदस्य बने रहे, लाल कृष्ण अडवानी के साथ 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की स्थापना की और अपने अंतिम दिन तक अपनी पार्टी के प्रति वफादार रहे। 

अपने अधिकतर पार्टी सहयोगियों तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) के लिए वह एक ‘सही’ पार्टी का नेतृत्व करने वाले सही व्यक्ति थे। अन्य पाॢटयों से संबंधित बहुत से लोगों के लिए वह एक गलत पार्टी में सही व्यक्ति थे। मैंने वाजपेयी जी को एक सम्माननीय दूरी से देखा है। जब मैं 1984 में संसद पहुंचा तो वह भाजपा से संबंधित 2 सदस्यों में से एक थे। बोफोर्स सौदे ने बहुत-सी पार्टियों को जीवनदान दिया, जो पहले के चुनाव में लगभग समाप्त हो गए थे और किसी को भी भाजपा से अधिक लाभ नहीं हुआ। 

हालांकि असंभावित विजेता वी.पी. सिंह थे। 1989 तथा 1991 के बीच वाजपेयी जी तथा मैं विपक्षी बैंचों पर बैठते थे, बस अंतर यह था कि उनकी पार्टी ने वी.पी. सिंह सरकार का समर्थन किया जबकि मेरी पार्टी ने उसका विरोध। इसमें कोई हैरानी नहीं हुई, जब 11 महीनों में ही कांग्रेस से कांग्रेस विरोधी बने (वी.पी. सिंह) तथा भाजपा के बीच मतभेद उबर आए जिसका परिणाम मंडल बनाम कमंडल के उपहास के रूप में निकला। 

भाजपा का निर्भीक चेहरा 
अगले 6 वर्षों तक भारतीय राजनीति कमजोर कांग्रेस तथा पुनरुत्थानशील भाजपा के बीच श्रेष्ठता को लेकर कड़ा संघर्ष चलता रहा। जहां उत्साह देने वाली ताकत एल.के. अडवानी थे वहीं पार्टी का निर्भीक चेहरा वाजपेयी जी थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने तीन बार प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली। उनकी पहली सरकार, जो एक बहुत बड़ी मिथ्यागणना थी,केवल 13 दिन तक चली। उनकी दूसरी सरकार हांफते-हांफते आखिरकार 13 महीनों बाद गिर गई जो मात्र एक वोट से हार गई थी। मेरा निजी विचार यह था कि कांग्रेस को वाजपेयी सरकार को वोट के द्वारा बाहर का रास्ता दिखाने की बजाय चलने दिया जाना चाहिए था, जब तक कि वह खुद न गिर जाती, जैसा कि होना ही था। 

अपने 13 महीनों के कार्यकाल के दौरान वाजपेयी जी ने पोखरण-2 तथा अमरीकी प्रतिबंधों का डटकर मुकाबला करके अपनी छवि चमकाई। एक वोट से पराजित होने से उनके लिए सहानुभूति की बाढ़ आ गई। वह 1999 के चुनावों में भाजपा की सीटों को 182 तक पहुंचाने तथा वाजपेयी जी को वापस प्रधानमंत्री के पद पर बिठाने के लिए भाजपा का मनोबल बढ़ाने के लिए पर्याप्त थी। 

सभी मित्र, कोई शत्रु नहीं 
जहां तक वाजपेयी जी की बात है, वह उनका बेहतरीन समय था। न केवल  खुद उनके लिए बल्कि उनकी पार्टी के लिए भी। उन्होंने भाजपा के लिए ऊबड़-खाबड़ रास्तों को भी सुगम बना दिया, मित्र बनाए, सहयोगियों को आकॢषत किया, झगड़ों में मध्यस्थता की, राज धर्म सिखाया, अपने सहयोगियों को अधिकार सौंपे, कुछ आर्थिक सुधार किए तथा हैरानीजनक तरीके से ‘दो से चार वर्षों’ में अपनी सेवानिवृत्ति के संकेत (दिसम्बर 2002) दिए। 6 वर्षों के दौरान उन्होंने बहुत से मित्र बनाए मगर कोई भी शत्रु नहीं। यह वाजपेयी जी की एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी। जब मई 2004 में उन्होंने अपना पद छोड़ा तथा गत सप्ताह जब उनका निधन हुआ, हर किसी के पास उनके लिए अच्छे तथा विनम्र शब्द कहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं था। मैं दो घटनाओं को याद करना चाहता हूं, जिनमें वाजपेयी जी तथा मैं शामिल थे। 

पहली थी 1988-89 में। बोफोर्स मामले ने राजीव गांधी सरकार को लडख़ड़ा कर रख दिया था। संसद में कई मंत्रियों ने इस मुद्दे पर अपनी टिप्पणी की और मामला 1988 के अंत में मेरे पास आ गया। सारा रिकार्ड ध्यानपूर्वक पढऩे के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि अनुबंध प्राप्त करने के लिए ए.बी. बोफोर्स द्वारा निश्चित तौर पर धन दिया गया था मगर इस बात का कोई सबूत नहीं था कि किसी भारतीय मंत्री अथवा अधिकारी ने धन प्राप्त किया था। मैंने आगामी उपलब्ध अवसर पर यह महत्वपूर्ण वक्तव्य देने के लिए राजीव गांधी की स्वीकृति चाही जो मुझे मिल भी गई। 

यह अवसर कुछ ही दिनों में मिल गया। वाजपेयी जी ने बोफोर्स पर और अधिक चर्चा शुरू की। सरकार की ओर से उत्तर देते हुए मैंने अपने निष्कर्ष के आधार पर वक्तव्य दिया। मुझे अभी भी वाजपेयी जी के चेहरे पर दुविधा की झलक याद है। वह मुझे धिक्कारने के लिए उठे और कहा कि उन्हें ‘आशा नहीं थी कि चिदम्बरम रिश्वत लेने वालों को निर्दोष साबित करने के लिए वक्तव्य देंगे’, या ऐसे ही शब्द कहेंगे। मैंने जोर देकर कहा कि मैं सच कह रहा हूं। (4 फरवरी 2004 को दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज ने राजीव गांधी के खिलाफ सी.बी.आई. के आरोपों को बाहर फैंक दिया था।) 

एक गौरवपूर्ण व्यक्ति 
दूसरी घटना 1997-98 की है। मैं संयुक्त मोर्चा सरकार में वित्त मंत्री था और बीमा क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोलने, जिसमें विदेशी निवेशक भी शामिल थे, हेतु एक विधेयक लाने की तैयारी कर रहा था। इसका मुख्य विरोध भाजपा की ओर से आया और उनका मुख्य मुद्दा विदेशी निवेश की स्वीकृति देने वाली धारा थी। समझौता करने के लिए मैंने विदेशी निवेश को 20 प्रतिशत तक सीमित करने का प्रस्ताव दिया। वाजपेयी जी सहमत हो गए। सबसे बड़ी बाधा मुरली मनोहर जोशी थे मगर वाजपेयी जी ने मुझसे वायदा किया कि उनकी पार्टी विधेयक का समर्थन करेगी। चर्चा समाप्त होने के बाद वोटिंग शुरू हुई, 2 से 12  तक धाराएं पारित हो गईं मगर जोशी जी ने धारा 13 का विरोध किया जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई.) की आज्ञा देती थी। 

वाजपेयी जी मुझे स्पीकर की कुर्सी के पीछे ले गए और अपना वायदा न निभा पाने के लिए मुझसे अफसोस जताया। विधेयक पराजित हो गया मगर मैंने उसे वापस लेने से इंकार कर दिया। (काव्यात्मक न्याय कुछ वर्ष ही दूर था। 1999 में वाजपेयी सरकार ने एफ.डी.आई. पर वैसी ही धारा के साथ वैसे ही विधेयक को पारित कर दिया।)1999-2004 के दौरान मैं संसद सदस्य नहीं था। मैं स्तम्भ लेखक बन गया और वाजपेयी सरकार को बख्शा नहीं। मुझे कई बार यह एहसास हुआ कि वाजपेयी सरकार में कोई मुझ पर नजर रख रहा है और आलोचनाओं की गिनती कर रहा है। वाजपेयी जी एक सच्चे लोकतांत्रिक थे जिन्होंने विपक्ष की न्यायसंगत भूमिका को पहचाना। इतिहास उन्हें एक अच्छे तथा सज्जन व्यक्ति, एक विनम्र महापुरुष के तौर पर याद करेगा।-पी. चिदम्बरम             

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