इस लिहाज से लगभग सभी भारतीय ‘गरीब’ हैं

Edited By ,Updated: 13 Jan, 2019 03:45 AM

in this sense nearly all indians are  poor

उलटी गिनती शुरू हो गई है। यह जाहिरा तौर पर नरेन्द्र मोदी की सरकार का विचार है। इस निष्कर्ष से समर्थन में सबूत दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं। इसका नवीनतम सबूत वह जल्दबाजी है जिससे संविधान विधेयक (124वां संशोधन) तैयार किया गया (7 जनवरी) तथा संसद में...

उलटी गिनती शुरू हो गई है। यह जाहिरा तौर पर नरेन्द्र मोदी की सरकार का विचार है। इस निष्कर्ष से समर्थन में सबूत दिनों-दिन बढ़ते जा रहे हैं। इसका नवीनतम सबूत वह जल्दबाजी है जिससे संविधान विधेयक (124वां संशोधन) तैयार किया गया (7 जनवरी) तथा संसद में पारित किया गया (9 जनवरी)। 

याद करें कि भारत का संविधान बनाने में कितना लम्बा समय लगा था। यह भी याद करें कि 1951 में संविधान में पहला संशोधन तैयार करने और उसे पारित करने में कितना लम्बा समय लगा था। यह पहला संशोधन था जिसके द्वारा ‘नागरिकों के सामाजिक तथा शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों अथवा अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों’ के लिए ‘विशेष प्रावधान’ किया गया। शब्द ‘विशेष प्रावधान’ को ‘आरक्षण’ के नाम से जाना जाता है।

डर के कारण 
124वें संशोधन के खिलाफ आलोचना यह है कि इसे संसदीय समिति की समीक्षा तथा जनचर्चा के बिना मात्र 48 घंटों में पेश कर दिया गया। दूसरी ओर महिलाओं के लिए लोकसभा तथा राज्य विधानसभाओं में एक-तिहाई सीटें आरक्षित रखने का संवैधानिक संशोधन विधेयक वर्ष 2008 से लटका हुआ है। 124वें संशोधन की विशेषता पर ध्यान न दें तो यह उस डर का संकेत है जिसने भाजपा तथा सरकार को घेर रखा है। डर के कारण कुछ अन्य उपाय भी प्रगति पर हैं, जिनमें किसानों को नकद हस्तांतरण शामिल है जिसका जिक्र मैंने 6 जनवरी के अपने कालम में किया था। 

इरादे को स्वीकार किया
अब विधेयक की विशेषताओं की बात करते हैं। विधेयक के साथ जोड़े गए उद्देश्यों तथा कारणों बारे वक्तव्य कहता है कि ‘नागरिकों के आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग आर्थिक रूप से अधिक सुविधा सम्पन्न लोगों से प्रतिस्पर्धा करने में अपनी वित्तीय अक्षमता के चलते उच्च शैक्षणिक संस्थानों तथा सार्वजनिक रोजगार से आम तौर पर वंचित रह जाते हैं।’ किसी भी राजनीतिक दल ने विधेयक के पीछे के इरादों का विरोध नहीं किया। (कांग्रेस ने 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए अपने घोषणा पत्र में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण का वायदा किया था।) विधेयक का व्यापक रूप से विरोध इसके इरादे को लेकर नहीं है बल्कि अन्य कारणों से है जो महत्वपूर्ण तथा प्रासंगिक हैं। इनमें शामिल हैं:

1. यदि गत 4 वर्षों तथा 7 महीनों  के दौरान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण प्राथमिकता नहीं था (जबकि ट्रिपल तलाक विधेयक था) तो क्यों लोकसभा चुनावों के लिए अधिसूचना जारी होने से महज 60 दिन पहले यह उच्च प्राथमिकता वाला बन गया? 
2. धारा 15 की प्रस्तावित उपधाराएं (6)(ए) तथा (बी) इसी धारा की वर्तमान उपधाराओं (4) व (5) की ही एक महत्वपूर्ण बदलाव के साथ हूबहू नकल हैं। जहां धारा 15(5) के लिए विशेष प्रावधानों (अर्थात आरक्षण) बनाने के लिए कानून की जरूरत है, नई उपधारा में शब्द ‘कानून द्वारा’ नहीं है तथा सरकार केवल कार्यकारी आदेशों से ही स्कूलों तथा कालेजों में आरक्षण उपलब्ध करवा सकने में सक्षम होगी।
3. धारा 16 की प्रस्तावित उपधारा (5) इस धारा की वर्तमान उपधारा (4) की भी हूबहू नकल है, एक महत्वपूर्ण बदलाव के साथ। धारा 16(4) नागरिकों के केवल किसी भी पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण की इजाजत देती है जिसे सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। नई उपधारा में ये शब्द गायब हैं। 

कानूनी तथा नैतिक रूप से संदिग्ध 
4. चूंकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून आज लागू है, पदों में आरक्षण तब तक जायज नहीं जब तक वर्ग का उचित रूप से प्रतिनिधित्व न किया गया हो; न ही आरक्षण एकमात्र आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर जायज है। निश्चित तौर पर वे निर्णय वर्तमान संशोधन से पहले संविधान के अनुसार लिए गए थे। सरकार को अवश्य सलाह दी गई होगी कि यदि संविधान में संशोधन कर लिया जाता है तो उन निर्णयों पर काबू पाया जा सकता है। विधेयक के इरादे का समर्थन करने वालों ने खुद को संतुष्ट करने के लिए सरकार द्वारा प्राप्त कानूनी राय की मांग की है, जिसका कोई फायदा नहीं, कि वे कानूनी दुर्गति में सांझीदार नहीं हैं। 

5. सर्वाधिक मौलिक आलोचना यह निर्धारण करने को लेकर है कि गरीब कौन है। 8 जनवरी, 2019 को  सभी समाचार पत्रों तथा टी.वी. चैनलों ने एक समान मानदंड दिखाए (स्वाभाविक है कि सरकार द्वारा की गई ब्रीफिंग के आधार पर)। 8 लाख रुपए वार्षिक आय वाले परिवार से संबंधित व्यक्ति को ‘गरीब’ के तौर पर परिभाषित किया गया, निश्चित अपवाद के साथ। विपक्ष ने उस डाटा की मांग की जिसके आधार पर सरकार ने 8 लाख रुपए की सीमा निर्धारित की लेकिन वह उपलब्ध नहीं करवाया गया। सार्वजनिक डाटा यह संकेत देता है कि जनसंख्या का 95 प्रतिशत (125 करोड़) इसका पात्र होगा और बहुत कम लोग ‘अपवाद’ की श्रेणी में आएंगे। यदि संशोधन के अनुसार लगभग हर कोई ‘गरीब’ है तो पीड़ित ‘अत्यंत गरीब’ होंगे, जिनको ध्यान में रखकर यह संशोधन किया गया है। जब तक ‘गरीब’ की परिभाषा को संकुचित नहीं किया जाता ताकि इसमें जनसंख्या के उस 20 प्रतिशत को शामिल किया जा सके जो आॢथकता की सीढ़ी के सबसे निचलेे स्तर पर हैं, नया प्रावधान संदिग्ध होगा-कानूनी तथा नैतिक रूप से। 

6. बड़ा पश्र आपूर्ति के पहलू को लेकर है। मूलभूत ढांचे तथा योग्य टीचरों के अभाव की परवाह किए बिना सरकार द्वारा स्कूलों तथा कालेजों में अधिक सीटें स्वीकृत की जा सकती हैं। मगर सरकार में पदों के मामले में, पद हैं कहां? क्या सरकार का इरादा व्यापक तौर पर सभी स्तरों- केन्द्र, राज्य, नगर निगम, पंचायत, अद्र्धनिजी संगठनों तथा सार्वजनिक क्षेत्र में खुद का विस्तार करना है? वास्तव में केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में कर्मचारियों की संख्या में गिरावट आई जो मार्च 2014 के अंत में 16,90,741 के मुकाबले मार्च 2017 के अंत में 15,23,586 रह गई। सरकार का धोखा सामने आ जाएगा यदि केक के एक अन्य टुकड़े को आरक्षित कर दिया जाता है जबकि केक का आकार वही रहता है। ऐसा दिखाई देता है कि विधेयक आरक्षण के लिए नहीं बल्कि खुद के संरक्षण हेतु है।-पी. चिदम्बरम

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