भारत की नई मुखर व दो-टूक विदेश नीति

Edited By ,Updated: 19 May, 2022 04:36 AM

india s new assertive and blunt foreign policy

विदेश मंत्री एस. जयशंकर इन दिनों भारत के एक बड़े वर्ग के हीरो बन रहे हैं। उन्होंने जिस तरह बयान दिया, द्विपक्षीय-बहुपक्षीय वार्ताओं में जो कहा और पत्रकारों के प्रश्नों के जैसे उत्तर दिए, वैसे

विदेश मंत्री एस. जयशंकर इन दिनों भारत के एक बड़े वर्ग के हीरो बन रहे हैं। उन्होंने जिस तरह बयान दिया, द्विपक्षीय-बहुपक्षीय वार्ताओं में जो कहा और पत्रकारों के प्रश्नों के जैसे उत्तर दिए, वैसे आमतौर पर विदेशी मामलों में भारत की ओर से नहीं सुने जाते। जयशंकर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ 11 अप्रैल को टू प्लस टू बातचीत के लिए अमरीका गए थे। बातचीत के बाद अमरीकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन और रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के साथ जयशंकर और राजनाथ सिंह पत्रकार वार्ता कर रहे थे। 

एक पत्रकार ने रूस से भारत के तेल खरीदने पर सवाल पूछा तो जयशंकर ने कहा कि भारत रूस से जितना तेल एक महीने में खरीदता है उतना यूरोप एक दोपहर में खरीद लेता है। इसका सीधा मतलब था कि जो भारत को घेरना चाहते हैं, उनकी असलियत दुनिया देखे। उसी पत्रकार वार्ता में अमरीकी विदेश मंत्री ने कह दिया कि भारत में मानवाधिकारों की स्थिति पर उनकी नजर है। ङ्क्षब्लकन के इस वक्तव्य पर भारतीय पत्रकारों ने जयशंकर से प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने कहा कि अगर उनकी हम पर नजर है तो हमारी भी उनके यहां मानवाधिकारों पर नजर है। 

ये सारे बयान सुर्खियों में थे ही कि 26 अप्रैल को रायसीना डायलॉग में उनके बयान फिर चर्चा में आ गए। उसमें नॉर्वे के विदेश मंत्री ने यूक्रेन पर रूसी हमले में भारत की भूमिका पर प्रश्न उठाया तो जयशंकर ने कहा याद कीजिए कि अफगानिस्तान में क्या हुआ। यहां की पूरी सिविल सोसायटी को विश्व ने छोड़ दिया। उन्होंने  पूछा कि अफगान मामले पर आपने जो किया वह किस प्रकार की नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था के अनुरूप था? एशिया में हम लोग अपनी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं और यह संकट नियमों से संचालित व्यवस्थाओं पर बुरा असर डाल रहा है। 

उन्होंने यूरोपीय प्रतिनिधियों को याद दिलाया कि एशिया में नियम आधारित व्यवस्था को चुनौती मिली, यानी चीन भारतीय सीमा पर दु:साहस दिखा रहा था तो यूरोप से भारत को यह सलाह मिली कि चीन से व्यापार बढ़ाया जाए। कम से कम हम सलाह तो नहीं दे रहे। उन्होंने कहा कि यह यूरोप के जगने की ही नहीं बल्कि जग कर एशिया की ओर देखने की भी चेतावनी है। विश्व के बहुत से समस्याग्रस्त क्षेत्र हैं- सीमाएं निश्चित नहीं हैं, राज्य प्रायोजित आतंकवाद पूरी तरह से जारी है। इस स्थिति में विश्व के लिए अत्यावश्यक है कि वह इधर भी ध्यान दे। 

कोई विदेश मंत्री केवल अपने मन की भाषा नहीं बोलता, सरकार के मुखिया यानी प्रधानमंत्री की वैश्विक सोच व द्विपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को लेकर उनकी अवधारणा को ही अभिव्यक्त करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अनेक अवसरों पर अलग-अलग देशों को आईना दिखाया है। 

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के समय एस. जयशंकर अमरीका में भारत के राजदूत थे। वह चीन और रूस में भी भारत के दूत रहे हैं। इसलिए तीनों प्रमुख देशों का उनका सीधा अनुभव है। उनका कार्यकाल 31 जनवरी, 2015 को खत्म हो रहा था, लेकिन सरकार ने उन्हें विदेश सचिव बना दिया। जिस व्यक्ति के पास 40 वर्ष से ज्यादा का अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का अनुभव हो, जो भारत को ठीक प्रकार से समझता हो और साथ ही वर्तमान सरकार की विदेश नीति की सोच से सहमत हो, उसकी भाषा ऐसी ही होगी। जब प्रधानमंत्री स्वयं लहजे में मुखर होकर सुस्पष्ट बोलते हैं तो विदेश मंत्री को हिचक क्यों हो। 

हमारी कोई आलोचना करे लेकिन हम उसे उसी भाषा में जवाब नहीं देंगे, यह कैसी विदेश नीति थी? हिचकिचाहट या दूसरी भाषा में दब्बूपन से भारत को हासिल क्या हुआ? इंदिरा गांधी के शासनकाल में भारत ने 1971 में बंगलादेश युद्ध में हस्तक्षेप कर निर्णायक विजय प्राप्त की। इसके बावजूद, राष्ट्रहित पर आधारित कूटनीतिक अस्पष्टता तथा मुखरता की कमी से भारत ने उस विजय से कुछ भी हासिल नहीं किया। 90 हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक हमारी कैद में थे लेकिन हम पाकिस्तान से कुछ नहीं ले सके। तब भारतीय सेना ने सिंध के काफी इलाकों पर कब्जा कर लिया था जिनमें हिंदू बहुल जिले शामिल थे। 

जिस भारत को जयशंकर अभिव्यक्त कर रहे हैं उसकी ताॢकक परिणति तब यही होती कि हम पाकिस्तान से सौदेबाजी करते और कहते कि हम आपको सिंध का क्षेत्र लौटा सकते हैं, आप कश्मीर का हमारा भाग लौटा दीजिए। संभव था पाकिस्तान तब मजबूर हो जाता। बिना ऐसा किए वे क्षेत्र भी वापस दे दिए गए। हमारी विदेश नीति में अजीब किस्म की काल्पनिकता थी जो अति विनम्रता और हिचकिचाहट के रूप में प्रकट होती थी। 

हालांकि समय-समय पर भारतीय विदेश नीति ने मुखरता और राष्ट्रहित को प्राथमिकता दी। मसलन, नरसिम्हा राव के शासनकाल में सोवियत संघ के विघटन के बाद नए सिरे से विदेश नीति की पुनर्रचना करने की चुनौती उत्पन्न हुई थी। उन्होंने इसराईल के साथ कूटनीतिक संबंध बनाए तथा संयुक्त राष्ट्र संघ में जायनवाद बनाम जातिवाद प्रस्ताव को खत्म करने के पक्ष में मतदान कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में परमाणु विस्फोट करने के बाद लगे प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने किसी भी सूरत में अमरीका या पश्चिमी देशों के सामने झुकने से इंकार किया। जिन देशों ने भारत के बहिष्कार का ऐलान किया उन्हें भी तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने करारा जवाब दिया। 

मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसे अवसर नहीं आए, जब लगा हो कि विदेश नीति करवट ले रही है और हमें सीख देने वाले देशों को ठीक प्रकार से उनकी भाषा में न केवल उत्तर दिया जा रहा है बल्कि सही व्यवहार करने के रास्ते भी दिखाए जा रहे हैं। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में ऐसा हुआ है। इसी का परिणाम है कि हम अमरीका, यूरोप सहित अनेक देशों के रक्षा सांझीदार हैं। 

वास्तव में द्विपक्षीय अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नसीहत या सीख देने वाले को स्पष्ट शब्दों में आइना दिखाना, आलोचनाओं का कूटनीतिक लहजे में मुखर होकर उत्तर देना, अपने पक्ष को ठीक प्रकार से रखना तथा दूसरे की कमियों को उजागर करना आदि कूटनीति के ऐसे पहलू हैं, जिनसे राष्ट्रहित पूरा होता है। दूसरे देश भी आपके साथ समानता के स्तर पर व्यवहार करने को विवश होते हैं। आंतरिक बातचीत में अपने लहजे को बेहतर रखकर उपयोगिता साबित करते हुए संबंधों को ठीक पटरी पर ले चलें तो किसी देश से संबंध भी नहीं बिगड़ता। एस. जयशंकर की वर्तमान मुखरता व स्पष्टता और दो-टूक शब्दों में दिए जा रहे वक्तव्य इसी व्यावहारिक राष्ट्रहित पर आधारित विदेश नीति के प्रतीक हैं।-अवधेश कुमार 
 

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