दक्षिण एशिया में भारत का संविधान सबसे बेहतरीन

Edited By Pardeep,Updated: 23 Apr, 2018 01:22 AM

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औपनिवेशिक शासन समाप्त होने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध मजहबी और नस्लीय बहुसंख्यकों के एकजुट होने की एक तरह से परम्परा ही चली आ रही है।  श्रीलंका में बौद्ध-सिंहल भाषियों में से अधिकतर मजहब और भाषा के नाम पर तमिल आबादी के...

औपनिवेशिक शासन समाप्त होने के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में अल्पसंख्यकों के विरुद्ध मजहबी और नस्लीय बहुसंख्यकों के एकजुट होने की एक तरह से परम्परा ही चली आ रही है। 

श्रीलंका में बौद्ध-सिंहल भाषियों में से अधिकतर मजहब और भाषा के नाम पर तमिल आबादी के विरुद्ध लड़ते रहे हैं। भारत में हम यह सोच कर हैरान होते हैं कि हिन्दू और बौद्ध एक-दूसरे को घृणा कैसे कर सकते हैं लेकिन बहुसंख्यकवाद की प्रवृत्ति ही कुछ ऐसी है। यह सदैव किसी न किसी को दुश्मन के रूप में चिन्हित कर लेता है। श्रीलंका का गृह युद्ध एक चौथाई शताब्दी से भी अधिक समय तक जारी रहा और इसमें अनेक श्रीलंकाई नेताओं और भारत के राजीव गांधी सहित एक लाख लोग मौत का शिकार हुए। इसकी परिणति  तमिल विद्रोहियों के शिविरों के साथ-साथ आम जनता पर भयावह हमलों के रूप में हुई। 

बंगलादेश में प्रारंभिक स्तर पर राष्ट्रवाद भाषा पर आधारित था और इसने बंगाली मुस्लिमों और हिन्दुओं को पश्चिमी पाकिस्तान के सैन्य शासन तथा उर्दू थोपने के प्रयासों के विरुद्ध एकजुट कर दिया। हैरानी की बात यह है कि पाकिस्तान के जन्मदाता मोहम्मद अली जिन्ना स्वयं एक गुजराती थे और उर्दू से लगभग दूर ही रहते थे लेकिन इसी उर्दू को बंगालियों पर लादने के पक्षधर थे। जन प्रतिरोध के फलस्वरूप बंगलादेश में जो हिंसा भड़की उसने 1971 में भारत की सहायता से पश्चिमी पाकिस्तान की सेना को खदेड़ दिया। तत्पश्चात बंगलादेशी राष्ट्रवाद का एक आयाम मजहबी रूप ग्रहण कर गया। 

ऐसे प्रयास किए गए और आज भी जारी हैं कि बंगलादेश के संविधान का इस्लामीकरण कर दिया जाए। अब वहां की राजनीति सैकुलर बनाम सम्प्रदायवाद के दो गुटों में बंटी हुई है। बंगलादेशी परिप्रेक्ष्य में सैकुलर से तात्पर्य है वह मुस्लिम पार्टी जो जमात-ए-इस्लामी जैसे मजहबी कट्टरपंथियों के पाले में खड़ी होती है। यही कारण है कि बंगलादेश में अल्पसंख्यक आबादी  मात्र 10 प्रतिशत होने के बावजूद मुख्य धारा राजनीति का काफी हद तक फोकस बनी रहती है। वैसे यह सूत्रकारिता हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। 

पाकिस्तान में प्रारंभिक दौर में जिन्ना बहुसंख्यकवाद पर अंकुश लगाने की बातें करते रहे। लाहौर के पंजाबी मुस्लिमों ने उत्तरी भारत यानी कि बिहार और यू.पी. से जाने वाले मुहाजिरों (शरणार्थियों) को स्वीकार करने से इंकार कर दिया, तब इन परिवारों को  कराची का रुख करना पड़ा। उनके वहां पहुंचते ही शहरों की समृद्ध हिन्दू आबादी, जिसे आज हम ‘सिंधी’ कह कर पुकारते हैं, के विरुद्ध हिंसा शुरू हो गई। जिन्ना ने कुछ भाषण किए जिन्होंने कुछ देर के लिए हिन्दुओं को पलायन करने से रोके रखा क्योंकि वह अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान में ही रखना चाहते थे लेकिन हिंसा का दौर इतने जोर-शोर से जारी हो गया कि मजबूर होकर आखिर जिन्ना ने सिंधी हिन्दुओं को पाकिस्तान छोडऩे से रोकना बंद कर दिया लेकिन अपनी समस्याओं के लिए जिन्ना दोष भारत को ही देते रहे। 

स्वतंत्रता से कुछ ही दिन पूर्व जिन्ना ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था जिसमें उन्होंने यह संकेत दिया था कि वह  पाकिस्तान के लिए सैकुलर संविधान चाहते हैं। जिन्ना ने कहा था कि सत्तातंत्र को मजहब पर आधारित नागरिक को मान्यता नहीं देनी चाहिए बल्कि कानून के समक्ष हर कोई बराबर होना चाहिए। जिन्ना की सत्ता को किसी प्रकार की चुनौती नहीं थी लेकिन पाकिस्तान की संविधान सभा द्वारा कानूनों को वास्तविक रूप देने से पहले ही मात्र एक वर्ष अवधि के बाद वह मौत की आगोश में चले गए। उनकी मृत्यु के बाद पाकिस्तानी आंदोलन की स्वाभाविक धारा हावी हो गई और कानूनों का इस्लामीकरण शुरू हो गया। 1960 के दशक में अयूब खान की तानाशाही के दौरान पाकिस्तानी संविधान में यह दर्ज कर दिया गया कि कोई गैर मुस्लिम व्यक्ति पाकिस्तान का राष्ट्रपति नहीं बन सकता। 1970 के दशक में जुल्फिकार अली भुट्टो के शासन दौरान एक नया कानून बना जिसमें प्रधानमंत्री पद के दरवाजे भी गैर मुस्लिमों के लिए प्रतिबंधित कर दिए। 

1980 के वर्षों में जिया-उल-हक के अंतर्गत इस्लामी कानूनों की बाढ़ सी आ गई। यहां तक कि शराब पीने वालों को कोड़े लगाने और बलात्कार पीड़िताओं द्वारा अपने साथ हुई ज्यादती को सिद्ध करने में विफल रहने पर सलाखों के पीछे बंद करने की सजाएं भी शुरू हो गईं। कातिलों को इस शर्त पर सजा से बच निकलने की अनुमति दी गई कि वे पीड़ित परिवार को मुआवजे के रूप में राशि का भुगतान कर दें। 1990 के वर्षों में नवाज शरीफ ने एक बदनाम इस्लामी कानून पारित करने का प्रयास किया जिसे ‘15वां संशोधन’ का नाम दिया गया। इस संशोधन के अंतर्गत शासक को स्थायी बनाया जाना था। राजनीतिक तंत्र के अन्य आयामों में भी इसी प्रकार की गर्मजोशी का प्रदर्शन किया गया। 

कुछ समय बाद पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट ने बैंकों के ब्याज वसूल करने पर यह कहते हुए पाबंदी लगा दी कि सूदखोरी गैर इस्लामी है। हाल ही में शरीफ को न केवल उनके पद से बरतरफ कर दिया गया बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें हमेशा के लिए राजनीति से प्रतिबंधित कर दिया। ऐसा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने उस संदिग्ध कानून का सहारा लिया जिसमें कहा गया है कि नेता ‘अच्छे मुसलमान’ होने चाहिएं। भारत का सौभाग्य ही है कि प्रथम कुछ दशकों तक इसका नेतृत्व नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी के हाथ में रहा जिसकी प्रकृति सर्वसमावेशी थी। हमारे संविधान में, और खासतौर पर इसके चौथे भाग यानी निर्देशक सिद्धांतों में हिन्दू बहुसंख्यकवाद के कुछ आयाम मौजूद हैं, जैसे कि पशु वध और शराबबंदी (वैसे कांग्रेस ने आदिवासियों का बहाना बनाते हुए इन दोनों आयामों का बहुत कड़ा विरोध किया था)। 

इन बातों को छोड़ कर हमारा संविधान मुख्य तौर पर सही अर्थों में एक सैकुलर दस्तावेज ही रहा है और दक्षिण एशिया में यह सबसे बेहतरीन संविधान है। नेहरू और कांग्रेस की सर्वसमावेशी प्रवृत्ति यहीं नहीं रुकी रही। आज भारत का प्रधानमंत्री दुनिया को बताता है कि वह अम्बेदकर को कांग्रेस की तुलना में अधिक सम्मान देगा परन्तु सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने ही अम्बेदकर को चुनाव हार जाने के बावजूद संविधान सभा तथा मंत्रिमंडल में स्थान दिया था। दो-तिहाई बहुमत होने के बावजूद नेहरू ने जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में जगह दी थी। 

कांग्रेस शासन ने प्रथम कुछ दशकों में इस तथ्य को छिपाए रखा कि भारतीय भी अपने श्रीलंकाई, बंगलादेशी और पाकिस्तानी भाइयों जैसे ही हैं। हमारे दिमागों में भी बहुसंख्यकवादी कीड़ा मचलता रहता है और अब तो यह इतना शक्तिशाली हो गया है कि अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अपनी धौंस दिखाने लगा है। मुझे अपना तात्पर्य किसी प्रयोग द्वारा सिद्ध करने की जरूरत नहीं। बस हर रोज आने वाले अखबारों पर दृष्टिपात करते रहें तो आपको मेरे आरोपों की पुष्टि हेतु पर्याप्त मात्रा में साक्ष्य मिल जाएंगे। हिन्दुत्ववादी नेताओं और बुद्धिजीवियों का दावा है कि हमारा बहुसंख्यकवाद प्रतिक्रियात्मक है, न कि क्रियात्मक यानी कि हम अल्पसंख्यक समुदाय की दादागिरी के विरुद्ध प्रतिक्रिया करते हुए ऐसी मुद्रा बनाते हैं। उनका दावा है कि हम जो कुछ कर रहे हैं वह न्यायोचित है और उन घटनाक्रमों से सर्वथा भिन्न है जो शेष दक्षिण एशिया में अंजाम दिए जा रहे हैं। लेकिन वास्तविक रूप में ऐसा कोई अंतर मौजूद नहीं।-आकार पटेल

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