उच्च सदन के लिए ‘तुच्छ’ चुनावी राजनीति

Edited By ,Updated: 02 Mar, 2024 05:48 AM

insignificant electoral politics for the upper house

राज्यसभा को संसद का उच्च सदन कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे एल्डर्स हाऊस भी कहते हैं, पर 27 फरवरी को हुए चुनाव में दलीय निष्ठा और राजनीतिक नैतिकता की जैसी धज्जियां उड़ीं, उससे बड़प्पन का संदेश तो नहीं गया, उलटे लोकतंत्र शर्मसार ही हुआ।

राज्यसभा को संसद का उच्च सदन कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे एल्डर्स हाऊस भी कहते हैं, पर 27 फरवरी को हुए चुनाव में दलीय निष्ठा और राजनीतिक नैतिकता की जैसी धज्जियां उड़ीं, उससे बड़प्पन का संदेश तो नहीं गया, उलटे लोकतंत्र शर्मसार ही हुआ। इस तरह चुने गए उच्च सदन के सांसद कैसा महसूस कर रहे होंगे-वे ही जानते होंगे, पर अपने माननीय विधायकों के ऐसे आचरण से उन्हें चुनने वाले निश्चय ही शॄमदा हुए होंगे। जिस पार्टी ने टिकट दिया, जिसके चुनाव चिन्ह पर मतदाताओं ने वोट दिया, उन्हीं के सगे नहीं हुए। तब फिर किसके सगे हुए या होंगे? बेशक ऐसा पहली बार नहीं हुआ, पर बार-बार होने से गलत काम सही तो साबित नहीं हो जाता।

2024 में राज्यसभा की 56 सीटें खाली हुईं। राज्यसभा सांसद चुनने के लिए संबंधित राज्य की विधानसभा के सदस्य ही मतदान करते हैं। इसलिए यह तस्वीर भी लगभग स्पष्ट होती है कि किस दल के कितने उम्मीदवार जीत सकते हैं। यही कारण रहा कि 41 राज्यसभा सीटों के लिए विभिन्न दलों के उम्मीदवार निर्वरोध निर्वाचित भी हुए। जहां थोड़े भी अतिरिक्त वोट थे और अन्य दलों के विधायकों में सेंधमारी से अतिरिक्त राज्यसभा सांसद जितवाने की संभावना थी वहां खुला खेल हुआ। जो दल और उम्मीदवार जीता, उसे उस खेल में अंतरात्मा के दर्शन हुए, तो जिस दल और उम्मीदवार के हिस्से हार आई, उसे वह लोकतंत्र को खतरे में डालने वाला खरीद-फरोख्त का खेल नजर आया।

पर क्या सैंकड़ों विधायकों में से मुठ्ठी भर द्वारा ही क्रॉस वोटिंग से राजनेताओं में अंतरात्मा दुर्लभ चीज ही साबित नहीं हुई? क्या अपने दल के प्रति निष्ठावान रहे माननीय विधायकों के पास अंतरात्मा नहीं? या फिर उसे जगाने के लिए जरूरी उपाय नहीं किए गए? सिर्फ उत्तर प्रदेश, कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश की 15 सीटों के लिए ही मतदान की जरूरत पड़ी और इन तीनों ही राज्यों में कुछ-कुछ माननीयों की अंतरात्मा ठीक मतदान के वक्त जाग गई।

उत्तर प्रदेश से 10 राज्यसभा सीटें खाली हुईं। विधानसभा में मौजूदा सदस्य संख्या के हिसाब से भाजपा के पास अपने सात उम्मीदवार जिताने के लिए पर्याप्त वोट के अलावा कुछ अतिरिक्त वोट थे। सपा के पास 2 उम्मीदवार जिताने के लिए तो पर्याप्त वोट थे ही, कुछ अतिरिक्त वोट भी थे। सब कुछ राजनीतिक नैतिकता के दायरे में होता तो उत्तर प्रदेश से नौ ही राज्यसभा सदस्य चुने जाते और 10वीं सीट खाली रह जाती।

अतिरिक्त वोटों के लालच ने ही दोनों दलों को अतिरिक्त उम्मीदवार उतारने को प्रेरित किया और उस खेल को भी, जिसमें कुछ माननीयों की अंतरात्मा ऐसी जागी कि फिर उसे दलीय निष्ठा से ले कर नैतिकता तक कुछ भी नजर नहीं आया। भाजपा को अपना आठवां उम्मीदवार जिताने के लिए 10 वोट और चाहिए थे, जबकि सपा को अपना तीसरा उम्मीदवार जिताने के लिए तीन अतिरिक्त वोटों की जरूरत थी।

जोड़-तोड़ दोनों ओर से थी, पर सपा के सात विधायकों की अंतरात्मा जाग गई। राज्यसभा में पार्टी व्हिप लागू नहीं होता और मतदान भी गुप्त नहीं होता। इसलिए अंतरात्मा वाले माननीयों के नाम भी उजागर हो गए। भाजपा के लिए बाकी वोटों की कमी राजा भैय्या के जनसत्ता दल के 2 तथा मायावती की बसपा के एक विधायक ने पूरी कर दी। खेल कांग्रेस शासित कर्नाटक में भी हुआ। वहां चार सीटें खाली हुई थीं, लेकिन अतिरिक्त वोटों के लालच से पांच उम्मीदवार उतार दिए गए।

कांग्रेस ने 3 उम्मीदवार उतारे, जबकि भाजपा और जनता दल सैक्यूलर गठबंधन ने दो। अपना दूसरा उम्मीदवार जितवाने के लिए गठबंधन को पांच अतिरिक्त वोटों की जरूरत थी, लेकिन खुद भाजपा के एक विधायक सोम शेखर रेड्डी ने क्रॉस वोटिंग कर कांग्रेस उम्मीदवार के पक्ष में वोट दे दिया। सबसे बड़ा खेल छोटे से पर्वतीय राज्य हिमाचल प्रदेश में हुआ, जहां जीत के लिए जरूरी से भी ज्यादा वोट होने के बावजूद कांग्रेस उम्मीदवार अभिषेक मनु सिंघवी हार गए और भाजपा के हर्ष महाजन जीत गए।

2022 के आखिर में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने 68 में 40 सीटें जीत कर सरकार बनाई थी। 5 साल शासन करने वाली भाजपा 25 सीटों पर सिमट गई थी। शेष 3 सीटें अन्य को मिली थीं। वह भी सरकार का समर्थन कर रहे थे। फिर भी भाजपा ने कांग्रेस में व्याप्त गुटबाजी का फायदा उठाने के लिए 6 बार कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के एक करीबी हर्ष महाजन को अपना राज्यसभा उम्मीदवार बना दिया। 40 साल तक कांग्रेस में रहे महाजन पिछले साल ही भाजपा में शामिल हुए थे।

भाजपा का दांव सफल रहा और कांग्रेस के 6 तथा 3 अन्य विधायकों के वोटों से सिंघवी और महाजन के बीच मुकाबला टाई हो गया। अंत में लॉटरी से किया गया फैसला भाजपा उम्मीदवार महाजन के पक्ष में गया। राज्यसभा चुनाव के परिणाम से सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के बहुमत पर भी सवालिया निशान लग गया। वीरभद्र सिंह के बेटे विक्रमादित्य सिंह अब भले ही मंत्री पद से अपने इस्तीफे पर दबाव न डालने की बात कहें, पर कांग्रेस की गुटबाजी सतह पर आ गई है।

विक्रमादित्य की मां प्रतिभा सिंह मंडी से लोकसभा सांसद हैं और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी। वह विधायकों की नाराजगी की बात खुल कर कह चुकी हैं। विक्रमादित्य ने अपने पिता वीरभद्र सिंह का अपमान करने का आरोप भी अपनी ही पार्टी की सरकार पर लगा दिया है। ऐसा लगता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में एक प्रतिशत वोटों से पिछड़ कर सत्ता गंवाने के बाद से ही भाजपा बिसात बिछा रही थी, जिसकी भनक कांग्रेस को नहीं लग पाई या फिर वह अति आत्मविश्वास का शिकार हो गई।

28 फरवरी को 15 भाजपा विधायकों को निलंबित कर बजट पारित करवाने के बाद विधानसभा की कार्रवाई स्थगित कर सुक्खू सरकार ने तात्कालिक राहत तो हासिल कर ली, पर संकट बरकरार है। कांग्रेस आलाकमान ने भी सक्रिय हो कर हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार को पर्यवेक्षक बना कर शिमला भेज दिया है। जाहिर है, निर्णायक मोड़ पर पहुंचते दिख रहे सत्ता के इस खेल में भाजपा के रणनीतिकार भी मूकदर्शक तो हरगिज नहीं बने रहेंगे। -राज कुमार सिंह

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