क्या भारत में एक संघीय पार्टी संभव है

Edited By Pardeep,Updated: 04 Apr, 2018 03:47 AM

is a federal party possible in india

जब कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता में वापस नहीं आने देंगी तो उनका संकेत विपक्ष की ओर से संयुक्त कार्रवाई से था। इसका मतलब यह भी था कि वह नहीं चाहतीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोबारा...

जब कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सत्ता में वापस नहीं आने देंगी तो उनका संकेत विपक्ष की ओर से संयुक्त कार्रवाई से था। इसका मतलब यह भी था कि वह नहीं चाहतीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दोबारा मौका मिले। कांग्रेस के पास संख्या बल नहीं है कि वह भाजपा की सरकार या मोदी के लिए खतरा पैदा कर सके। 

इसकी पूरी संभावना है, जैसी अभी की स्थिति है, मोदी दोबारा सत्ता में वापस आने के लिए सक्षम मालूम पड़ते हैं। लोकसभा और विधानसभाओं के हाल के उप-चुनावों में 3 पराजयों के बावजूद, भाजपा एक के बाद एक राज्य अपने कब्जे में ले रही है और धीरे-धीरे, किंतु पक्के तौर पर, अपने जाल फैला रही है। अभी, 2019 के चुनाव में जाने के लिए थोड़ी दूरी तय करनी है और कर्नाटक के नजदीक आ गए चुनाव और इसके बाद, साल के आखिर में हो रहे राज्य विधानसभाओं के चुनावों से ही मोदी की ताकत और कमजोरियों की असली परीक्षा होगी।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गैर-भाजपा पार्टियों को साथ लाकर संघीय ढांचे में 2019 में भाजपा से टकराने की पहल की है। सोनिया गांधी के सहयोग को बताने के लिए उन्होंने कहा है कि वह उनसे रोजाना सम्पर्क में हैं। वास्तव में, गैर-भाजपा राज्यों के नेता संघीय ढांचे की संभावना को लेकर एक-दूसरे से लगातार सम्पर्कमें हैं। अगर आप याद करें तो जनता पार्टी की संरचना भी संघीय थी। यह आगे नहीं चल पाई और टूट गई क्योंकि इसके नेता, खासकर मोरारजी देसाई और चरण सिंह जैसे हरदम सार्वजनिक रूप से लड़ते रहते थे जिससे काफी लोग नाराज थे। फिर जनसंघ ने अपनी ताकत दिखाई क्योंकि विरोधी बंटे हुए थे। एक बार गैर-जनसंघ पार्टी इकट्ठा हो गई तो जनसंघ सरकार अल्पमत में आ गई। 

सोनिया गांधी या यूं कहिए कि ममता बनर्जी के प्रयासों से, जो संघीय ढांचा बनेगा, उसके साथ काम करने के लिए जनता पार्टी के अनुभवों को ध्यान में रखना होगा। विवाद का विषय यह होगा कि नेताओं में से किसे प्रधानमंत्री बनने के लिए पर्याप्त समर्थन मिलेगा। ‘एक बार इस सवाल का हल निकल गया तो बाकी चीजें खुद ही जगह पर आ जाएंगी और संघीय ढांचा जीवित रह जाएगा। लोगों के सामनेे यही सवाल है कि अगर विविधता, देश का मूल्य पराजित हो गए तो कौन-सी ताकत सत्ता में आएगी, भाजपा लोगों को बांटने का संकल्प किए हुए है। वे लोग एक या दूसरे रूप में हिंदू-समर्थक सरकार बनाने की कोशिश करते रहे हैं। भाजपा का मार्गदर्शक आर.एस.एस. मोदी के सपनों को साकार करने के लिए अपनी भूमिका पूरे मन से निभा रहा है। 

यहीं नए संघीय गठबंधन को सावधान रहना है। यह अच्छा होगा कि वे एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम बनाएं जिसमें सभी नेताओं के विचारों और आकांक्षाओं को सभी पार्टियां स्वीकृत करें। यह सिर्फ  एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिस पर महत्वपूर्ण गैर-भाजपा नेताओं को ध्यान देना है क्योंकि जनता के हित बाकी सभी चीजों से ऊपर होने चाहिएं। भारत की सोच, जिसका आधार सैकुलरिज्म तथा लोकतंत्र है, के लिए जाति तथा धर्म पर आधारित पाॢटयों की इस संघीय ढांचे में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। खतरा यह है कि सत्ता के लिए अलग-अलग तत्व इसे अलग-अलग दिशाओं की ओर खींचने की कोशिश करेंगे। विभिन्न नेताओं को अपने व्यक्तिगत या पार्टी हितों के आगे देश की एकता को रखना चाहिए। वे अगर साथ रहना सीख जाते हैं तो गड़बड़ी के संकेत दूर हो जाएंगे। 

सैकुलरिज्म अग्नि-परीक्षा में अपनी भीतरी ताकत साबित कर चुका होगा। भारत में गठबंधन की राजनीति टाली नहीं जा सकती, इसलिए मोदी या यूं कहिए कि मोदी तथा उनके साथियों के विचारों को पराजित करने का सबसे अच्छा तरीका यही हो सकता है कि साथ रहना चाहिए और साथ मिलकर शासन करना सीखना चाहिए। भाजपा विविधता में एकता के गांधी जी के विचार को पराजित नहीं कर सकती है। वास्तव में, इसने जो किया है, उससे गांधी सही साबित होते हैं। भारत की एकता अलगाववाद के खतरे का सामना कर पाई। पाकिस्तान, जिसके लिए मैं बेहतरी की कामना करता हूं, बहुसंख्यक हिंदू-समुदाय के प्रति अविश्वास की उपज है। कायदे-आजम मोहम्मद अली जिन्ना, जो हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रचारक थे, ने कहा कि वह बहुसंख्यक सम्प्रदाय हिंदू पर भरोसा नहीं कर सकते। यही अविश्वास है जिसके कारण बंटवारे के बाद लोग अपना घर-बार छोड़कर चले गए। दोनों तरफ मिलाकर, 10 लाख लोग मारे गए और हिंदू तथा मुसलमानों के बीच दूरी और बढ़ गई।

आर.एस.एस. विभाजन के विचार को मानकर चल रहा है। इसके दर्शन और कुछ नहीं, गांधी जी की शिक्षाओं का मजाक उड़ा रहे हैं। आर.एस.एस. सफल नहीं हो पाया था क्योंकि साम्प्रदायिक ताकतें गांधी जी को चुप नहीं करा सकीं। अंत में, उन्हें उनकी हत्या करनी पड़ी ताकि उस आवाज को खत्म किया जा सके जिसे लोग सुनते थे और जिसका सम्मान करते थे। मैंने वह पत्र देखा है जिसे नाथूराम गोडसे ने अपने किए के बचाव में लिखा था। उसने गांधी जी के प्रति सम्मान व्यक्त किया लेकिन यह दलील दी है कि गांधी जी अगर अधिक दिन जीते तो देश को तकलीफ उठानी पड़ती। मुझे गांधी जी की प्रार्थना-सभाओं की एक घटना याद है। मैं मौजूद था जब महात्मा गांधी के प्रार्थना शुरू करने से पहले पंजाब से आए एक आदमी ने उठकर कहा कि वह कुरान नहीं सुनेगा। प्रार्थना-सभाओं में तीनों धर्मग्रंथों-गीता, कुरान तथा बाइबल का पाठ होता था। उन्होंने कहा कि जब तक आपत्ति करने वाला इसे वापस नहीं लेता, कोई सभा नहीं होगी। कई दिनों तक कोई प्रार्थना सभा नहीं हुई। इसे फिर से तभी शुरू किया गया जब उस व्यक्ति ने अपनी आपत्ति वापस ले ली। 

आज जब कट्टरपंथी आर.एस.एस. शिक्षकों, पुस्तकाध्यक्षों तथा शिक्षण संस्थानों के अध्यक्षों की नियुक्ति मेें सरकार का मार्गदर्शन करता है तो प्रतिभा के आने की कोई उम्मीद नहीं है। इन परिस्थितियों में एक संघीय पार्टी इन तत्वों के खिलाफ किस तरह संघर्ष कर सकती है? राष्ट्र को खतरा उन लोगों से है जो यह सोचते हैं कि देश में हिंदुओं की 80 प्रतिशत आबादी है, इसलिए शासन करने का हक उन्हें है। जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल ने इसका ध्यान रखा कि कोई हिंदुत्व नहीं होगा। उन्होंने उस समय की विधानसभा को संविधान सभा में बदल दिया ताकि एक संविधान बन सके। भारत आज 80 प्रतिशत से नहीं, सविधान, जो हर व्यक्ति को एक वोट का अधिकार देता है, से शासित है। ङ्क्षहदू बहुसंख्यक होने पर भी भारत की सोच को पलट नहीं सकते, क्योंकि संविधान सबसे ऊपर है।-कुलदीप नैय्यर

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