2019 के चुनाव एक-साथ करवाना संभव नहीं लगता

Edited By Pardeep,Updated: 22 Aug, 2018 04:11 AM

it is not feasible to make elections of 2019 together

जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा नेता जोर-शोर से ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की वकालत कर रहे हैं, वहीं राजनीतिक गलियारों में ये प्रश्र उठाए जा रहे हैं कि क्या ऐसा आगामी लोकसभा चुनावों से पहले संभव अथवा व्यावहारिक होगा और यदि नहीं तो क्यों वे इस...

जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा नेता जोर-शोर से ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ की वकालत कर रहे हैं, वहीं राजनीतिक गलियारों में ये प्रश्र उठाए जा रहे हैं कि क्या ऐसा आगामी लोकसभा चुनावों से पहले संभव अथवा व्यावहारिक होगा और यदि नहीं तो क्यों वे इस बारे बात कर रहे हैं। 

वरिष्ठ भाजपा नेता प्रभात झा का कहना है, ‘‘हम भी जानते हैं कि यह कठिन है मगर हम धीरे-धीरे देश को यह विचार स्वीकार करने के लिए तैयार कर रहे हैं और यही कारण है कि हम इस मुद्दे को प्रत्येक मंच पर उठा रहे हैं।’’ इस उद्देश्य से लोकसभा चुनाव पहले करवाने की आशंकाओं को भाजपा प्रमुख अमित शाह द्वारा यह स्पष्ट किए जाने के बाद कि वे अपने निर्धारित समय पर होंगे, विराम दे दिया गया है। 

तो क्यों भाजपा ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का राग अलाप रही है? यह कोई नया विचार नहीं क्योंकि पार्टी इसे कुछ समय से उठाती रही है। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी इस विचार का समर्थन किया है। भाजपा के 2009 तथा 2014 के घोषणा पत्रों में एक साथ चुनाव करवाने की प्रक्रिया विकसित करने का वायदा किया गया था। दूसरे, भाजपा ने विचार लागू करने के लिए देश में रुचि पैदा कर दी है। आखिरकार 1951-52, 1957, 1962 तथा 1967 में एक साथ चुनाव करवाए गए थे। यह चक्र कुछ राज्य विधानसभाओं के भंग होने तथा धारा 356 के खुल कर इस्तेमाल होने के कारण टूट गया था। संविधान की धारा 356, जो राष्ट्रपति शासन लागू करने के बारे में है, का 1952 से लेकर 116 बार इस्तेमाल किया गया है। 

तीसरे, प्रधानमंत्री ने इस विचार को अपनाने के पीछे 4 ठोस कारण बताए हैं। वे हैं-चुनावों पर होने वाला अत्यधिक खर्च, सुरक्षा तथा नागरिक स्टाफ को उनके मुख्य कार्य से हटाकर अन्य कार्यों में लगाना, आदर्श आचार संहिता के कारण प्रशासन पर प्रभाव तथा सामान्य जनजीवन में पडऩे वाला खलल। आलोचकों ने इन सभी तर्कों की निंदा की है। अपनी ओर से विपक्ष इस बात को लेकर आशंकित है कि प्रधानमंत्री देश को राष्ट्रपति शासन की पद्धति की ओर ले जा रहे हैं और उन्हें डर है कि इससे उन्हें अपनी निजी लोकप्रियता के कारण सम्भवत: वापसी करने में मदद मिलेगी, यहां तक कि विपक्ष शासित राज्यों में भी और वह पार्टी, संघ परिवार में और भी मजबूत होकर उभर सकते हैं तथा विपक्ष के लिए सीटों में कमी ला सकते हैं। इसके साथ ही इस बात का भी स्पष्ट सबूत है कि जब एक साथ चुनाव करवाए जाते हैं तो अधिकतर भारतीय मतदाता उसी पार्टी को वोट देते हैं। 

इससे भी बढ़कर चुनाव आयोग की तैयारी जैसी कुछ समस्याएं भी हैं जिसने इस विचार को लागू करने के लिए लगभग 45 अरब रुपए की लागत का अनुमान लगाया है, जबकि केवल 2014 के लोकसभा चुनावों में ही 45 अरब रुपए की धनराशि खर्च की गई थी। मुख्य चुनाव आयुक्त ने संसद के समर्थन के बगैर व्यावहारिक तौर पर एक साथ चुनाव करवाने के विचार को खारिज कर दिया है। ‘‘यदि कुछ राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल में कमी अथवा वृद्धि करने की जरूरत पड़ती है तो इसके लिए एक संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी... वी.वी.पैट्स (पेपर ट्रेल मशीन्स) की 100 प्रतिशत उपलब्धता के संबंध में तार्किक व्यवस्था करना एक बाध्यता होगी।’’ चुनाव आयोग को लगभग 24 लाख ई.वी.एम्स की जरूरत होगी जो केवल संसदीय चुनावों के लिए जरूरी संख्या से दोगुनी है। यह हमें संवैधानिक संशोधनों के प्रश्र पर ले आता है। 

विधानसभाओं को पहले भंग करने अथवा उनके कार्यकाल में वृद्धि करने को लेकर क्या किया जाएगा? संविधान की धारा 83(2) तथा धारा 172 व्यवस्था देती हैं कि यदि भंग न की जाएं तो ‘लोकसभा तथा राज्य विधानसभाएं अपनी पहली बैठक की तिथि से 5 वर्षों तक अस्तित्व में रहेंगी।’ इस तरह के भी प्रश्र हैं कि यदि खुद केन्द्र सरकार अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूर्ण होने से पहले ही गिर जाए तो क्या होगा? विधि आयोग तथा चुनाव आयोग को इस पर ध्यान देना होगा। इसके लिए कम से कम 5 संवैधानिक संशोधनों की जरूरत होगी। जहां भाजपा तथा इसके सहयोगी लोकसभा में बहुमत में हैं, राज्यसभा में इनके लिए समस्या हो सकती है, जहां ये अल्पमत में हैं। 

इसके अतिरिक्त विधि आयोग अभी भी इस प्रस्ताव की समीक्षा करने की प्रक्रिया में है तथा हाल ही में भाजपा प्रमुख अमित शाह ने उनकी पार्टी द्वारा इस विचार को स्वीकार करने का संदेश दिया है। भाजपा, शिरोमणि अकाली दल, समाजवादी पार्टी तथा तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसे कुछ दलों ने इस विचार का समर्थन किया है। द्रमुक, अन्नाद्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, जद (एस), गोवा फारवर्ड पार्टी, आम आदमी पार्टी, तेलुगु देशम पार्टी, वाम दलों, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी तथा आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन ने इस विचार का विरोध किया है। इसमें राजनीतिक सर्वसम्मति का अभाव है, जिसे सरकार को अभी बनाना है। 

इस बात के भी अनुमान लगाए जा रहे हैं कि मोदी सरकार लोकसभा तथा 11 विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने के विचार पर कार्य कर रही है जिनमें से अधिकतर भाजपा शासित हैं। इसका मुख्य उद्देश्य सत्ता विरोधी लहर में कमी लाना तथा राजनीतिक लाभ उठाना है। वे राज्य हैं अरुणाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, हरियाणा, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, बिहार तथा झारखंड। मगर इसके लिए सरकार को चुनाव आयोग को तैयार करना होगा।

नि:संदेह एक साथ चुनाव करवाना एक लाभकारी विचार है मगर प्रश्र समय तथा राजनीतिक दलों की तैयारी, चुनाव आयोग की तैयारी सुनिश्चित करने तथा क्या मतदाता यह चाहते हैं, का है। यदि भाजपा गम्भीर है तो उसे राजनीतिक सर्वसम्मति बनानी होगी, सभी को एक साथ लाना होगा और सबसे बढ़ कर देश में एक व्यापक चर्चा करवानी होगी। केवल तब यह सम्भव तथा व्यावहारिक हो पाएगा। ऐसा दिखाई देता है कि यदि सब बातों पर सहमति बन भी जाती है तो भी 2019 में एक साथ चुनाव करवा पाना आसान नहीं होगा मगर 2024 के लिए यह सम्भव है।-कल्याणी शंकर

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