‘तानाशाही सत्ता’ के विरुद्ध ‘जनक्रांतियां’ होना संभव

Edited By Updated: 10 Jan, 2021 04:17 AM

it is possible to have people s revolutions against dictatorial authority

कुछ वर्षों से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। 1990 के दशक में सोवियत संघ के पतनोपरांत विश्व के अनेक देशों का रुझान लोकतंत्र की ओर बढ़ा। लेकिन हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि विश्व की प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक

कुछ वर्षों से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में भारी परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। 1990 के दशक में सोवियत संघ के पतनोपरांत विश्व के अनेक देशों का रुझान लोकतंत्र की ओर बढ़ा। लेकिन हालिया सर्वेक्षण बताते हैं कि विश्व की प्रतिष्ठित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में निरंकुशता की पद्चाप स्पष्ट सुनाई देने लगी है। 

विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारतवर्ष भी इस मामले में अपवाद नहीं। स्वीडन की प्रतिष्ठित संस्था वी-डेम इंस्टीच्यूट द्वारा अक्तूबर के अंत में दुनिया भर के लोकतंत्र को लेकर जारी की गई लोकतंत्र सूचकांक रिपोर्ट के अनुसार भारत जनसंख्या मामले में निरंकुश-व्यवस्था की ओर बढऩे वाला सबसे बड़ा देश है। रिपोर्ट के उदार लोकतंत्र सूचकांक में 179 देशों में भारत को 90वां स्थान मिला जबकि पड़ोसी देश श्रीलंका और नेपाल क्रमश: 70वें तथा 72वें स्थान पर रहे। 

2019 की वार्षिक स्थिति पर जनवरी माह में तैयार इकोनॉमिस्ट इंटैलीजैंस यूनिट की रिपोर्ट के अनुसार भी लोकतंत्र सूचकांक में भारत 10वां स्थान खोकर 51वें स्थान पर जा पहुंचा। भारतीय लोकतांत्रिक स्थिति को लेकर अदालतें भी सरकार को चेतावनी देती रही हैं। 2018 में भीमा-कोरेगांव हिंसा मामले में सुनवाई के दौरान जस्ट्सि डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सरकार विरोधी आवाजों के दमन पर कहा था, ‘‘असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है।’’ लेकिन लगता है इस सेफ्टी वॉल्व को विभिन्न परिवर्तनों से धीरे-धीरे हटाया जा रहा है।

लोकतंत्र के स्तम्भ संस्थानों की निष्पक्षता एवं स्वतंत्रता का निरंतर हो रहा हनन प्रश्र उत्पन्न करने लगा है कि क्या भारत की उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था निरंकुश शासन व्यवस्था की ओर धकेली जा रही है? पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह, मानहानि व हत्या के मामले बढऩा चिंताजनक है। गहन चुनावी प्रतियोगिता भारतीय राजनीति में हाल की परिघटना है। आजादी के पहले दो दशक चुनाव होते थे लेकिन गहन चुनावी प्रतियोगिता नहीं थी। 1989 से 2019 तक के काल में चुनावी प्रतियोगिता ने राजनीति का व्याकरण और उसकी मूल्य व्यवस्था बदल डाली। 2019 को इस चरण की परिणति के रूप में देखा जा सकता है।

निरंकुश महत्वाकांक्षाओं के चलते विश्व के कई नेता अथवा सरकारें स्वयं से विपरीत अथवा अलग सोच रखने वाले व्यक्तियों या दलों को प्रतिद्वंद्वी मानते हुए उन पर निशाना साधने लगती हैं। जनता के बीच उनकी नकारात्मक छवि बना दी जाती है। हालांकि सरकार समर्थक यह मानने से साफ इंकार करते हैं कि वर्तमान सरकार के कार्यकाल में लोकतंत्र कमजोर हुआ किंतु हकीकत यह है कि वर्तमान भारत में, राज्य व राजनीतिक सत्ता पर निरंकुशता प्रभावी हो रही है। 

वर्ष 2020 के मानसून संसद सत्र में कोरोना संकट के दौरान तीन नए कृषि कानून पारित करना, विपक्ष के अधिमत की उपेक्षा करते हुए संसद का अहम भाग प्रश्र काल निरस्त करना तथा कोरोना की आड़ में शीतकालीन सत्र की अवहेलना करना, संवैधानिक दृष्टिकोण से कितना उपयुक्त है? संसद में जनसाधारण से जुड़े मुद्दों पर सवाल पूछने की स्वतंत्रता का हनन क्या सत्ता में पनपती निरंकुशता का प्रमाण नहीं?संवैधानिक, संस्थागत तथा लोकतांत्रिक नियम रौंदे जा रहे हैं।

व्यवस्था व समाज दोनों क्षेत्रों में मनमानी देखी जा सकती है। एक तरफ जाने-माने सत्तापक्षी पत्रकार की जमानत याचिका पर फौरन सुनवाई होती है, दूसरी ओर अदालतों में 60 हजार मामले जमानत के लिए लंबित हैं। जम्मू-कश्मीर के 550 लोगों की हैबियत कार्पस याचिकाएं सुनवाई  हेतु प्रतीक्षारत हैं। चुनावी बांड की वैधता, जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बनाने, सी.ए.ए. के खिलाफ 140 याचिकाओं सहित अन्य कई मामले अभी तक विचाराधीन हैं। विपक्षी दल को सरलता  से प्रताडि़त किया जा सकता है, जब उनका जनाधार सिकुड़ रहा हो। जैसा कि आजकल कांग्रेस पार्टी के संदर्भ में देखने में आ रहा है। कम लोकप्रिय नेता आसानी से जेलों में डाले जा सकते हैं।

आतंकवादी, हिंसक, अतिपंथी या राष्ट्रद्रोही करार दिए जाने के कारण राजनीतिक, सामाजिक तथा वैचारिक अलगाव में डाल दिए गए आंदोलन क्रूरतापूर्वक कुचले जा सकते हैं। निरंकुशता के जन समर्थन का यह दूसरा पहलू है जिसे जन समर्थन हासिल नहीं, उसके प्रति आसानी से निरंकुश हुआ जा सकता है। विपक्ष में सक्षम नेतृत्व का अभाव सरकार की मनमानी का सबसे बड़ा कारण है। लोकतंत्र का मूल लोकहित में निहित है जिसमें निरंकुशता का प्रादुर्भाव किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं। तानाशाही सत्ता के विरुद्ध जनविद्रोह व जनक्रांतियां होना संभव है। सोचना यह है कि इस लोकतांत्रिक निरंकुशता का प्रतिरोध कैसे किया जाए।-दीपिका अरोड़ा
    

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