जन्माष्टमी विशेष: कृष्ण के योगीश्वर स्वरूप की ब्रजभाषा में व्याख्या

Edited By Punjab Kesari,Updated: 15 Aug, 2017 01:25 PM

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आदरणीयराधा कृष्ण दर्शन का एक सहज सरल लेकिन तनिक भिन्न दृष्टांत आपके अवलोकनार्थ भेज रहा हूं।

आदरणीयराधा कृष्ण दर्शन का एक सहज सरल लेकिन तनिक भिन्न दृष्टांत आपके अवलोकनार्थ भेज रहा हूं। अभिव्यक्ति का माध्यम मिश्रित और ब्रजभाषा प्रधान रखा गया है।आशा करता हूँ कि जमाष्टमी पर्व पर यह लेख आपके प्रतिष्ठित पत्र में उचित स्थान पाने में सफल होगा। राधे राधे ब्रज की पावन भूमि से व्योम के विस्तार तक गुंजित और रसग्राही बृज वासियों केमन को अनवरत मोद कारक राधे शब्द द्वापर युग मे आज के पावन दिवस पर अजन्मा कृष्ण की प्राकट्य लीला से सार्थक एवम मूर्त हुआ। कैसा सौभाग्य है इस बृज भूमि का की प्राणिमात्र का प्राण स्पंदक कन्हैय्या यहां अपने विराट एकल रूप को राधे रूप में विभाजित कर द्वैत में प्रकट करे है और हम वा नटवर की या गूढ़ ठिठोली कौ रहस्य वाही की प्रेम गांठोली में खुद को सान कर सहजता से जान लें हैं।


याहि सों मेरे मन प्राण के अधिष्ठाता मेरे आत्म सखा कृष्ण कू जब बुलानो होय है तो में सब ब्रिजवासिन की राधे गुहार में एकाकार हैकर कान्हा की पुकार करूं हूं और मेरो भक्तवत्सल नन्दलाल अपनी कृपा रथ में सवार हैके मेरे अंतर के भाव मार्ग पे दोड़तो भयो चट मोहे अंग लगाय के तन मन कू करार प्रदान करे है। अब जब आज हम सबके ऐंद्रिक दुख हरने वाला इंद्रजीत गिरिधारी कुछ समय मे ही पुनः या ब्रज भूमि को रसिंचित और धन्य करने कू पधारने वारौ है तो आओ हम सब मिल कर वाकी बलैयां लें। आज जब तक यशोदा कौ लाल पधारे है तब तक या तुच्छ बुद्धि और शब्दन से वा अविगत, अव्यक्त, अलख, अनादि, अनन्त, अपरंपार योगीश्वर और भावातीत को श्रुत, अनुभूत और व्यक्त करने को प्रयास मुझ अकिंचन ने कियौ है।
 

मन मे अक्सर प्रश्न उठे है कि जा राधाबिहारी के नाम मात्र से मन के संताप भा पबन के उड़ जाएं और मनुआ कर्मबन्धन के श्राप से मुक्त है जाए वाके छलिया और रसिया रूप तो बहुत आनंदित करें है, वाकी प्रजा पालक/रिपुदमन/शास्त्र वेत्ता/नीतिज्ञाता और भक्त वत्सल छवि कौ भी जग में कोई और सानी नाय है। लेकिन रे मुरारी तू तौ केवल रसराज राजेश्वर माखनचोर ही नाय है। तू तौ योग जैसे शुष्कऔर कठोर ज्ञान विषय कौ अधिष्ठाता योगीश्वर भी है। तेरे प्रति प्रेम सिक्त मेरो मन लाला तेरी लीलान की माया में इतनों रम जाय है कि तेरौ या जीवात्मा जगत के मुलाधार और परम् पुरुष होने के प्रमाण तौ मेरी दृष्टि से यदाकदा फिसल जाएं हैं। तो सखा तू तौ जगत पालक और उद्धारक है।

आज में तेरे सब रूपन को विस्तार अपने प्यासे नैनन से देख कर तृप्त होनो चाहुं हूं। तो में तो चली मथुरा में दुष्ट कंस के वा कारागार में जहां तेरे प्राकट्य की घटना को गुप्त रखने द्वारपाल सुप्त, वसुदेव देवकी बन्धन मुक्त और कंस के भाग्य का तारा अब लुप्तप्राय है। सखि मेरे कान्हा की विशेषता तौ देखो। जन्म कीप्रक्रिया में हर जीव ही गर्भ रूपी अंधेरे कारागार से मुक्त हो कर माया जगत में आता है लेकिन मेरौ मायापति तौ प्राणिमात्र को मायाभ्रम से मुक्त करने कौ एकमेव मार्ग है। तौ सर्वप्रथम अपने जातक माता पिता कु भव बन्धन रूपी बेड़िन से मुक्त करवे कृपा करें है।

महाचक्षु सूरदास जी महाराज ने लाल के जन्म कौ बड़ो सुंदर वर्णन कियौ है-
आनंदै आनंद बढ्यौ अति
देवनि दिवि दुंदुभी बजाई,
सुनि मथुरा प्रगटे जादवपति
विद्याधर-किन्नर कलोल मन उपजावत,
मिलि कंठ अमित गति
गावत गुन गंधर्व पुलकि तन, नाचतिं सब सुर-नारि रसिक अति।
बरषत सुमन सुदेस सूर सुर,
जय-जयकार करत, मानत रति
सिव-बिरञ्चि-इन्द्रादिअमर मुनि, फूले सुखन समात मुदित मति॥

मेरे श्याम के परम पुरुष होने की घोषणा तो उनके जन्म के साथ ही हो गयी थी। अब यमुना मैय्या से भी तो कान्हा कौ वास्तविक स्वरूप नाय छिपा रह सके। तो वसुदेव जी तुम्हे मार्ग तौ दूंगी लेकिन जगदीश्वर के चरण चुम्बन के बाद। अरे स्वामी की प्रतीक्षा में तो में कब से व्याकुल थी। वैसे मिलन के उल्लास में आज या जमुना के कूप बन्ध सब टूट जाएं तो कोई परवाह नही। पर जमुना मैय्या जानती है कि अभी तो गोकुल में मां यशोदा अपने लाल की प्रतीक्षा कर रही है तो मार्ग दे देती है। अरे सखि जा कान्हा की इच्छा मात्र से जड़ पदार्थ चेतन में परिवर्तित हो जाएं हैं, कारागार की बेड़ियां और ताले और कर्म बन्धन टूट जाये हैं वाये का पतित पावनी यमुना रोकने को साहस कर सके है। अब गोकुल पधार गए हो लाला तौ हम भी तो देखें कि तुम अपनी माया रच कर कितने दिन अपनों वास्तविक स्वरूप छुपाओगे। पर जसोदा मैय्या तुम्हारे जगदीश्वर रूप को कहा करेगी ? वाये तौ अभी लाल को पालने में झुलानों है, लाड़ लड़ाने हैं। देखिए यहां मेरे कृष्ण जगत में स्त्री और विशेषतया पालनहार मां की महत्ता को किस प्रकार स्थापित करते हैं।

अजन्मा त्रिकालदर्शी कृष्ण जानते हैं की जन्मदात्री मां की प्रदक्षिणा तो संसार अपने स्वाभाविक संस्कार से करता ही है। लेकिन किसी भी स्त्री में अपनी जन्मदात्री माँ का ऐसा आनंदमयी और पूजनीय दर्शन जगत में सर्प्रथम यशोदानंदन ने ही दिया। द्वापर में स्त्री समाज के प्रति बढ़ते अन्याय और शोषण के विरुद्ध कान्हा स्त्री के जन्मदात्री और ममतामयी जीवन दायिनी पालनहार स्वरूप की अक्सर अभ्यर्थना करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं। और क्या कहूं स्वयम परमतत्व परमात्मा जगतपिता भी धरा पे अपने अवतार और पालन हेतु पंचतत्व से निर्मित स्त्री देह में संचरित मां तत्व के द्वारा संरक्षित होने का अभिलाषी है। अरे सखि मेरो कान्हा तौ नारी के सम्मान संरक्षण के लिए कितनों सजग है जे तुम्हें अनन्य कृष्ण भक्त और महाकवि रसखान के बैनन में सुनाऊं-

सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।
जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥
नारद से सुक व्यास रटें, पचिहारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

पर मेरे त्रिपुरारी को मात्र रसराज समझने की भूल न करना। वो तौ प्रत्येक जीवात्मा का गन्तव्य भी है। याही सूं तो पूतना, शकटासुर, बकासुर, कालिय नाग जैसे अगणित दुष्टों को भी अपना मुक्तिधाम पद दे रहा है। कह रहा है कि किसी भी भाव से आओ, मेरे पास आओ तो सही। भक्तवत्सल अपने भक्तों का उद्धार करने को खुद को ऊसर से भी बंधवाने की पीड़ा सहन करता है। ये सब तौ ठीक है लेकिन औरन के घर मे घुस कर ये दही माखन की चोरी ?? देखो सखि मेरो नटवर बहुत चतुर है। कैसे इशारों में बताय रह्यो है की ब्रज की गौ माता से प्राप्त दूध, दही, छाछ औऱ माखन देह के लिए सर्वोत्तम पुष्टकारी भोजन है। साथ ही साथ यह भी कि सब मनुष्य मेरे ही भाग हैं और सब घर, सब पदार्थ मेरे ही अधिकार को मानने को विवश हैं। अब ब्रज वासी की ज्ञान ग्राह्यता देखो। वो कह रहा है कि भैया कृष्ण हम तो स्वयम से लेकर हर मनुष्य में तेरे ही दर्शन करें हैं इसलिए हम सखा भाव में तो ते खटपट तो करेंगे पर तू दही माखन चुराने हमारे घर आनों मति छोड़ियो।

सखि इनको परस्पर प्रेम देखो कैसो अनुकरणीय है। कान्हा बड़े परिश्रम से अर्जित इन गोपिन की दूध दही की मटकी फोड़ देय है और वाके नैक से रूठने पे सारा ब्रज व्याकुल हो जाए है। कितनों परस्पर विश्वास और प्रेम है या कान्हा के ब्रज में। लेकिन रे छलिया तैने ये कब बताई की तू योगीश्वर भी है। योगी तो ऐंद्रिक सम्वेदना से मुक्त हो जाते हैं और तू उनका ईश्वर आराध्य होकर भी गोपिन के संग रास रचावे है, वस्त्र हरण कर है, झूठ सच को खेल खेले है। ना सखि। अरे जा तुच्छ सी अज्ञानी बुद्धि में अगम की लीला गम्य हो जाए तो फिर तेरो उद्धार ही न हो जाये। अरि मूढा जरा चल तो गिरिराज गोवेर्धन की ओर जहां देवराज इंद्र अपने शक्ति मद में अतिवृष्टि कर सृष्टि को समष्टि में मिलाने को कटिबद्ध हैं और मेरे कान्हा कनिष्ठ अंगुली पे गिरिराज गोवेर्धन उठाये समस्त ब्रजवासियों को निर्भय कर रहे है।

कौन हैं ये इंद्र और कौन हैं ये गोवेर्धन और कान्हा ने जग को अपने इन्द्रियातीत होने का पहला साक्ष्य यहां कैसे दिया ? तो सुन सखि कान्हा कहते हैं कि इन्द्रिय सुख में लिप्त अज्ञानी हर मनुष्य इंद्र है। सुखों की वासना ही मूर्त और अमूर्त प्रलय रूपी दुख सन्ताप और भव भय की उत्पत्ति की कारक है। साकार कृष्ण की निष्काम भक्ति ही भक्त को निराकार अवस्था मे पहुंचाने और अतीन्द्रिय होकेर भव भय और बन्धन मुक्त होने का सर्वोत्तम मार्ग है। यहां कान्हा ये संकेत भी दे रहे हैं की गौ वर्धन और गौ संरक्षण से प्राप्त गौ अमृत से इंद्रियां सहज वश में रख कर मानव मात्र सांसारिक और ऐंद्रिक अनुभूत दुखों से परे होने के राधागामिनि पथ पे गति का सहज अधिकारी हो जाता है। कान्हा की प्राण राधा सभी गोपियों यहां तक कि उनकी रानियों पटरानियों से विशिष्ट और कान्हा की भी इष्ट हैं। कौन हैं ये राधे जो इतनी बड़भागी हैं की मुरारी की मुरली उन्ही की तान पर सुर बिखेरती है, जग को अपने संकल्प मात्र से नचाने वाले ब्रज के रास रचैया का प्रणय रास राधा की एक मुस्कुराहट का मोहताज है। कौन है ये राधा जो तीन लोक का तारणहार, भव बंधन हर्ता स्वयम उनके मोह पाश में बिंधा हुआ अपनी हृदय साम्राज्ञी को एक क्षण भी विस्मित नही कर पाता।

राधे तू बड़भागिनी,
कौन तपस्या कीन,
तीन लोक तारण तरन,
सो तेरे आधीन।।

अरे कान्हा तू कैसो योगीश्वर है जो इतना मोहसिक्त है ? कैसे तू एक साधारण गुजरिया के मोहपाश में फस कर बरसाना की गलियों में मिलन की प्यास लिए भटके है ? कैसे तू अपनी पटरानियों के ऊपर वा राधा कू विराजमान करे है। प्यारे राधाबिहारी मोहे या भ्रम से या द्विविधा से निकाल। लोग कहें है की तू ही अकेलो विराट है, तू ही सर्व शक्तिमान है तो फिर ये राधा तेरी आल्हादिनी शक्ति कैसे ? अब तो सखि मोहे या कन्हैय्या कौ यागीश्वर रूप समझनो ही पडेगो कि कब जाने ऐसे योग कर डारे की जे ब्रह्मवेत्ता योगिन को भी आराध्य बन बैठो।

तो गुरुकृपा से मेरे इस संदेह को मिटाने के लिए कुछ पंक्तियां स्वतः लेखनी से निःसृत हुईं-
हाड़ मांस की जरा ने,
कर संधि बनायो जरासंध,
अकुलावें वामे ज्ञान नाड़ियां,
सोलह सहस्त्र हैं कैद बंद।

उल्टी गति कर छूटेगी तू,
त्रिकुटि में घुस कर ढूंढ सुरंगा,
इंगला पिंगला की गुजरी ते,
सुखमन छुड़वावे पचरंगा।।

श्रुति की संगत में ताल मृदंगा,
तुरिया चढ़ि उपरि ज्ञान हुरंगा,
कान्हा बसते सबसे ऊपर,
अनन्त आर्य कौ लाल निरंगा।।

पंचतत्व प्रदत्त अस्थि मज्जा की संधि से बने इस नश्वर देह को अपना बासा यानी घर मानने वाली जीवात्मा के दृष्टव्य चिंतन की गति जब त्रिकुटि में विश्राम पा जाती है तो मनुष्य भव बन्धन से मुक्त होकर शरीर मे अवस्थित 16 हज़ार चेतना नदियों और उनकी सेनापति इंगला और पिंगला यानी गंगा यमुना का पति यानी स्वामी हो कर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाता है। सुषुम्ना ही वो गुप्त नाड़ी वो सरस्वती वो राधेरानी है जो श्रुति को स्वानुभूति के अनंत आकाश का अंग बना कर चेतना को ब्रह्मा विष्णु महेश द्वारा सज्जित त्रिकुटि के पार सूक्ष्म जगत में सदैव के लिए अवस्थित कर देती है। 64 योगनियां जिसका आदेश मानने को बाध्य हैं जीवात्मा उस आत्मस्वरूप से सदैव के लिए पुनः अभिन्न अवस्था मे आ जाती है।

सखि यहां पहुंच के योगी मुक्त तो हो जाता है लेकिन शिवो अहम की घटना घटने में कुछ मार्ग अभी और तय करना है। दशम द्वार को पार कर निराकार का साक्षात्कार होने में समय है। लेकिन जगद्गुरु कृष्ण हैं तो देर कैसी। मुरली का ओंकार नाद कृष्ण भक्त के लिए पलक पावड़े बिछाए अपनी सीढ़ी लगाए तो खड़ा है। परम् पुरुष कृष्ण के श्री अधरों से स्पंदित इस मुरली के अनहद नाद का अवलंबन कर श्रुति प्रणवाक्षर के केंद्र को भेद स्वयम कृष्णकार हो जाती है। मीरा अपने आराध्य कृष्ण में समा कर स्वयं कृष्ण हो जाती है। मैय्या राधे रानी तो तू ही वो एकमात्र सुषम्ना मार्ग है जिसके अवलंबन से मुझ अबोध को भी कृष्ण बोध संभव है। तेरी जय हो मैय्या। तेरी जय हो वृषभान दुलारी।
जय श्रीकृष्ण  
 

 

                                                                                     अनन्त आर्य
                                                                              ये लेखक के अपने विचार है।

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