काली बेईं : महत्व, प्रदूषण और उसकी रोकथाम

Edited By ,Updated: 12 Mar, 2016 01:22 AM

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काली (पवित्र) बेईं पंजाब की ऐतिहासिक नदियों में से एक है। काली बेईं की कुल लंबाई 160 किलोमीटर है। यह होशियारपुर जिले के धनोआ गांव से प्रारम्भ होकर सुल्तानपुर लोधी और कपूरथला से बहती हुई

(डा. जतिंद्र कुमार रतन): काली (पवित्र) बेईं पंजाब की ऐतिहासिक नदियों में से एक है। काली बेईं की कुल लंबाई 160 किलोमीटर है। यह होशियारपुर जिले के धनोआ गांव से प्रारम्भ होकर सुल्तानपुर लोधी और कपूरथला से बहती हुई हरि के पत्तन में ब्यास और सतलुज नदियों में जाकर मिल जाती है। दुनिया के नक्शे पर काली बेईं की भौगोलिक स्थिति 310 10’ 60 उत्तर और 750 2’ 60 पूर्व है।

 
काली बेईं का महत्व: काली बेईं का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व सिख धर्म के संस्थापक श्री गुरु नानक देव जी से संबंधित है। ऐसा माना जाता है कि आज से 5 सदी पहले श्री गुरु नानक देव जी को आत्मज्ञान की प्राप्ति इसी पवित्र बेईं में हुई। यहीं काली बेईं के किनारे गुरुजी ने पवित्र ‘मूल-मंत्र’ की रचना की थी और यहीं से उन्होंने अपनी उदासियां भी शुरू की थीं। ऐतिहासिक महत्व के अलावा काली बेईं पंजाब के दोआबा क्षेत्र की जीवन रेखा भी रही है। 
 
यह मुकेरियां और दसूहा तहसीलों के जल-भराव के इलाकों (बेट एरिया) से अतिरिक्त पानी को कपूरथला जिले के सूखे इलाके में लाती है। इस तरह काली बेईं जल  अपेक्षित कपूरथला जिले में भू-जलस्तर को बनाए रखती है। बाढ़ के समय काली बेईं बाढ़ के पानी का निकास कर लोगों के जीवन और सम्पत्ति का बचाव करती है। काली बेईं कांजली झील को भी पानी पहुंचाती है। काली बेईं न केवल क्षेत्र के जल स्तर एवं बाढ़ से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, अपितु यह मछली और वन्य जीव प्रवास का भी स्रोत है। 
 
काली बेईं का प्रदूषण: शहरीकरण, व्यवसायीकरण और औद्योगिकीकरण से उत्पन्न प्रदूषण के कारण काली बेईं ने अपने पुराने गौरव और पवित्रता को खो दिया है। लगातार फैलते हुए प्रदूषण ने बेईं और इसके चारों ओर के जनजीवन को प्रभावित किया है। सबसे गंभीर प्रभाव भूमिगत पानी (ग्राऊंड वाटर) में प्रदूषकों का रिसाव है जिसके कारण भूमिगत जल स्थायी रूप से दूषित जल में परिवर्तित हो रहा है। यह बेईं के तट पर रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है क्योंकि यहां के लोग इस दूषित पानी को हैंडपम्प से निकाल कर रोज़मर्रा के कार्यों में उपयोग करते हैं। किसी नदी में मछलियों का बड़े पैमाने पर मरना उस नदी में तीव्र प्रदूषण का एक सामान्य संकेत होता है। हाल ही में काली बेईं में बड़े पैमाने पर मछलियां मरने की 2 घटनाएं वर्ष 2013 और 2015 में सामने आई हैं। 
 
घुलित ऑक्सीजन की कमी से मछलियों का मरना: मछलियों को भी अन्य सभी जीव-जंतुओं की तरह जीवित रहने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत होती है। वे इसे पानी में घुली ऑक्सीजन से प्राप्त करती हैं। आवासीय क्षेत्रों में स्थित झीलों, तालाबों और नहरों में न्यूनतम घुलित ऑक्सीजन मछलियों के मरने में विशेष रूप से जिम्मेदार है। जब कारखानों और घरों से निकलने वाले गंदे पानी एवं खेतों में प्रयोग किए गए अत्यधिक उर्वरक से पोषक तत्व (नाइट्रोजन और फॉस्फोरस)किसी नदी में आ जाते हैं तो ये शैवाल की भारी उपज करते हैं। 
 
सूर्य की रोशनी में शैवाल प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के माध्यम से ऑक्सीजन पैदा करती है। मछलियों के लिए उपलब्ध ज्यादातर ऑक्सीजन शैवाल की इसी प्रक्रिया से आती है। रात के समय शैवाल (काई)  प्रकाश संश्लेषण की जगह श्वसन क्रिया करती है जिसमें ऑक्सीजन का उपयोग होता है। जब शैवाल (काई) की उपज ज्यादा होती है तो ऑक्सीजन की ज्यादा मात्रा का उपयोग होता है। नतीजे के तौर पर पानी में घुलित ऑक्सीजन की भारी कमी हो जाती है और मछलियां बड़े पैमाने पर मरने लगती हैं। 
 
आमतौर पर अगर मछलियां भौर से पहले मरती हैं तो इसका कारण शैवाल की अति उपज से घुलित ऑक्सीजन की कमी का होना होता है। यदि दिन के समय मछलियां मरती हैं तो इसका सामान्य कारण अमोनिया की उपस्थिति, संक्रामक रोग, विषाक्तता और उच्च पी.एच. आदि हो सकते हैं। पानी में घुली हुई भारी धातुएं भी मछलियों के लिए हानिकारक हो सकती हैं। क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन, कार्बनिक फॉस्फोरस और कीटनाशक कम मात्रा में भी मछलियों के लिए विषाक्त हैं।
 
प्रदूषण की रोकथाम: प्रदूषण को उसके स्रोत पर ही रोकना प्रदूषण कम करने का बुनियादी तरीका है। जैसे कि बेईं के किनारों की ऊंचाई को बढ़ाया जा सकता है जिससे कि खेतों से उर्वरक और कीटनाशक वाला पानी बेईं में प्रवेश न कर सके। बेईं में घरों तथा उद्योगों से निकलने वाले गंदे पानी के प्रवेश को ज्यादा से ज्यादा प्रतिबंधित किया जा सकता है। बेईं में ताजे पानी का प्रवेश भी यकीनी बनाया जा सकता है ताकि यह सूखे नहीं। समुदाय आधारित संरक्षण के द्वारा आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक करना भी प्रदूषण को उसके स्रोत पर कम करने की ही विधि है। 
 
प्रसिद्ध पर्यावरणविद् बाबा बलबीर सिंह सीचेवाल द्वारा आम लोगों को बेईं की सफाई के बारे में जागरूक करना भी समुदाय आधारित संरक्षण का अच्छा उदाहरण है। अगर प्रदूषण को इसके स्रोत पर न रोका जा सके तो प्रदूषण नियंत्रण के अन्य तरीकों का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। ऐसा ही एक तरीका फाइटोरिमेडिएशन है। फाइटोरिमेडिएशन पानी को साफ करने के लिए पानी में मौजूद पौधों का ही उपयोग करता है। 
 

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