सब प्रकार की कूटनीति को ‘कूटनीतिज्ञों’ पर छोड़ दें

Edited By ,Updated: 12 Jul, 2020 03:26 AM

leave all kinds of diplomacy to  diplomats

1959 में चीनी बलों ने भारत-चीन सरहद के पूर्वी सैक्टर में लांगझू के भारतीय सेना के गढ़ में धावा बोल दिया। 8 सितम्बर 1962 को तब खतरे की घंटी सुनाई दी। 20 अक्तूबर को चीनी सेना ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर हमला कर दिया। चीन ने 24 अक्तूबर को 3 सूत्रीय...

1959 में चीनी बलों ने भारत-चीन सरहद के पूर्वी सैक्टर में लांगझू के भारतीय सेना के गढ़ में धावा बोल दिया। 8 सितम्बर 1962 को तब खतरे की घंटी सुनाई दी। 20 अक्तूबर को चीनी सेना ने भारतीय क्षेत्र में घुसपैठ कर हमला कर दिया। चीन ने 24 अक्तूबर को 3 सूत्रीय प्रस्ताव को गढ़ दिया जिसे भारत ने रद्द कर दिया। 14 नवम्बर को चीनी सेना ने एक बहुत बड़ा हमला किया तथा वह भारतीय क्षेत्र के 100 मील के भीतर घुस आई। 

21 नवम्बर को चीन ने एकपक्षीय युद्ध विराम तथा सैन्य बलों की वापसी की घोषणा कर दी। पूर्वी सैक्टर में चीनियों ने कहा कि वह वास्तविक नियंत्रण रेखा के उत्तर में वर्तमान स्थितियों से पीछे हटने को तैयार हैं जिसे गैर-कानूनी मैकमोहन लाइन का उत्तरी क्षेत्र कहा जाता है। उसके बाद उस लाइन से चीनी सेना और भी 20 किलोमीटर पीछे मुड़ गई। 1962 से लेकर उन स्थानों पर चीनी सेना काबिज है जहां से उन्होंने एकपक्षीय तौर पर वापसी की थी और उस स्थान को खाली किया था। भारत 1962 का युद्ध हार गया मगर वह निडर रहा। यहां पर चीन द्वारा बनाई गई लाइन ऑफ कंट्रोल थी। मगर दोनों देशों की धारणाएं भिन्न थीं। 1963 में लाइन ऑफ कंट्रोल को ही वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) मान लिया गया। मगर एल.ए.सी के बारे में दोनों पक्षों की धारणा अलग-अलग ही रही। 

1975 से लेकर भारत-चीन सीमा पर कोई भी गोलीबारी नहीं हुई और न ही किसी व्यक्ति की जान गई। 45 वर्षों तक 4506 किलोमीटर लम्बी सीमा के आसपास यह छोटी-सी शांति प्रक्रिया स्थापित हुई जो कोई विशेष बात नहीं थी। इस शांति को चीन ने भंग कर दिया तथा 20 भारतीय सैनिक शहीद कर दिए गए और यह सब प्रधानमंत्री मोदी की निगरानी में हुआ। 

चीन एक आक्रामक 
इस पूरी अवधि के दौरान तथा चीन द्वारा एल.ए.सी. को मानने पर (हालांकि धारणाएं भिन्न थीं) चीन ने गलवान घाटी पर अपना कोई दावा नहीं किया। 1 जनवरी 1963 को पं. जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री झाओ एन.लाई का जमीनी स्तर के हालातों की नब्ज पकड़ते हुए उन्हें एक पत्र लिखा : 

‘‘पिछले 7-8 वर्षों के दौरान मैंने निजी तौर पर कई मौकों पर लद्दाख के विभिन्न हिस्सों की यात्रा की। पूर्व की मेरी यात्राओं में चीनी बलों का यहां पर होने का कोई संकेत नहीं था न ही चीन के लद्दाख में आने के बारे में कोई रिपोर्ट थी। बाद के मौकों पर ऐसी सूचनाएं आईं कि चीनियों ने लद्दाख में विभिन्न स्थानों में प्रवेश कर लिया। इन बातों को मैं अपने निजी ज्ञान से कह सकता हूं। हालांकि आप मुझसे ऐसी कामना नहीं करोगे कि मैं पूर्वी लद्दाख के कुछ बड़े हिस्सों पर चीनी कब्जे के अस्पष्ट आरोपों को स्वीकार करे। यह सब मेरी आंखों द्वारा देखे गए साक्ष्यों के विरुद्ध था। 8 सितम्बर 1962 से पहले किसी भी समय जब से भारत स्वतंत्र हुआ है क्या चीनी बलों ने लांग झू को छोड़ पूर्वी सैक्टर की सीमा को पार किया है।’’ 

मोदी की निगरानी के तहत 
झाओ को लिखे अपने पत्र में नेहरू ने किसी भी शब्द को नहीं कुचला। नेहरू ने स्पष्ट रूप से चीन को ‘आक्रामक’ कहा। यह सब उस समय कहा गया जब भारत चीन से युद्ध हार गया था तथा चीन ने गलवान घाटी में ‘विक्टर्स जस्टिस’  थोपने की कोशिश की और इसको लेकर अभी तक चीन ने स्वायत का कोई भी दावा नहीं किया। यह दावा न ही पेगौंग त्सो तथा हॉट स्प्रिंग्स पर किया गया जिसमें चीनी बलों ने मार्च-अप्रैल 2020 में घुसपैठ की थी। भारत ने घुसपैठ को जांचा तथा भारतीय बलों ने 5 मई को चीन को चुनौती दी। 15 और 16 जून को यह चुनौती एक खूनी संघर्ष में बदल गई। यह सब कुछ भी मोदी की निगरानी के तहत ही हुआ। फिर भी बेवजह प्रधानमंत्री ने चीन को ‘आक्रामक’ नहीं कहा। क्या भारतीय विदेश मंत्रालय मोदी की अभूतपूर्व अस्पष्टता से खुश है? क्या सेना के जनरल तथा सीमा पर लड़ रहे जवान मोदी के जानबूझ कर मौन रहने पर खुश हैं? 

यथास्थिति की बहाली
कुछ माह में दोनों देशों के संबंध नाटकीय ढंग से बदल गए। 28 अप्रैल 2018 को वुहान सम्मेलन के दौरान एक सांझा बयान जारी किया गया जिसमें एक पैरा केवल सीमा के सवालों पर ही था जिसमें आमतौर पर इस्तेमाल में लाए जाने वाले शब्द जैसे ‘शांति तथा धीरज बहाली’ का प्रयोग हुआ। 12 अक्तूबर 2019 को महाबलीपुरम में सीमा के संदर्भ में प्रपत्र बयान को 17वें पैराग्राफ से 16वें पैराग्राफ तक नीचे धकेल दिया गया। दूसरी तरफ दोनों नेताओं ने (मोदी तथा शी जिनपिंग) 2020 को भारत-चीन संस्कृति तथा लोगों से लोगों तक का आदान-प्रदान का नाम दिया। मोदी ने शायद एक भव्य तमाशे के विचार को अपना स्नेह दिया। 

21 दिसम्बर 2019 में विशेष प्रतिनिधियों की 22वीं बैठक के बाद वही वाक्यांशों को दोहराया गया। अब यह स्पष्ट है कि धावा बोलने की योजना के पहले चरण की नीति पर पी.एल.ए. काम कर रही थी। शी जिनपिंग ने शायद भारत की आर्थिक स्थिति की ढलान को अच्छी तरह से भांप लिया। वहीं मोदी शी के इरादों को भांपने में असफल रहे। यह विवाद भारत के लिए कूटनीतिक आपदा से कम नहीं। उसके साथ-साथ 1993 से लेकर जो भारत ने हासिल किया, उसको भी झटका लगा। इसका सबक यह है कि सब प्रकार की कूटनीति को कूटनीतिज्ञों पर छोड़ दें। इसकी गति  कष्टकारी तथा धीमी हो सकती है मगर वह उन संकेतों को भांप लेंगे जिन्हें नौसिखिए समझने में असफल रहते हैं। 

राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के 5 जुलाई को बातचीत करने के बाद दोनों पक्षों ने कहा कि गतिरोध की वृद्धि की प्रक्रिया को कम किया जाएगा और दोनों सेनाएं पीछे वापस लौटना शुरू हो चुकी हैं। 5 मई 2020 वाली यथास्थिति को बहाल करने तक सरकार को कई कदम आगे चलना होगा। लोग इस पूरी प्रक्रिया पर निगरानी रखेंगे तथा मोदी सरकार की इसके लिए जवाबदेही तय करेंगे।-पी. चिदम्बरम

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