सामाजिक समपसता के अग्रदूत वीर सावरकर

Edited By ,Updated: 25 Oct, 2021 10:26 AM

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स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का संपूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा को समर्पित रहा। उनका व्यक्तित्व त्याग और समर्पण की कहानी कहता है।

स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर का संपूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा को समर्पित रहा। उनका व्यक्तित्व त्याग और समर्पण की कहानी कहता है। आज जब हम अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपने महानायकों को समग्रता में जानने और समझने का प्रयास करें। वीर सावरकर एक ऐसे ही महानायक हैं, जिन्हें उनकी संपूर्णता में समझने की आवश्यकता है। वह एक महान देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, कवि, विचारक, इतिहासकार और सामाजिक समरसता के अग्रदूत थे।  

वीर सावरकर वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने 1857 के संघर्ष को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कह कर संबोधित किया। वह पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्हें अंग्रेजी शासन द्वारा 25-25 साल के 2 कालापानी की सजा सुनाई गई। वीर सावरकर ने 1911 में जो अपनी रिहाई की मांग की, वह राजबंदियों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के तहत की गई। ऐसी मांग मात्र सावरकर के द्वारा नहीं अपितु उस समय के अन्य वीर पुरूषों द्वारा भी की गई थी, जिनमें मोतीलाल नेहरू व अन्य का भी नाम आता है, तो क्या हम उनको स्वंतत्रता का नायक मानने से मना कर देंगे। 1911 से 1919 तक प्रक्रिया चलती रही। फिर 1920 में महात्मा गांधी के सुझाव पर वीर सावरकर द्वारा अपनी रिहाई के लिए याचना प्रस्तुत की गई। जिसका उल्लेख स्वयं महात्मा गांधी द्वारा यंग इंडिया के लेखों में मिलता है।  वस्तुत: जेल में बिताए गए अपने कार्यकाल में वीर सावरकर को आभास होता है कि भारतीय समाज में बहुत असमानता है, हिन्दू समाज विभिन्न जातियों में बंटा हुआ है, समाज में ऊंच-नीच और छुआछूत की भावना प्रबल है, जिसे दूर करने के लिए कार्य किए जाने की आवश्यकता है।

6 जनवरी, 1924 को सावरकर को जेल से मुक्ति मिलती है लेकिन 10 मई, 1937 तक उन्हें रत्नागिरि में नजरबंद रखा जाता है। जेल के जीवन के बाद वीर सावरकर द्वारा सामाजिक समरसता व समानता के लिए जो कार्य किए गए, वे भारत को महान बनाने की ओर अग्रसित करने वाले हैं। वीर सावरकर ने जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता, छुआछूत के विरुद्ध एक अभियान चलाया। उनका मत था कि प्रत्येक सच्चे भारतीय को सात बेडिय़ों से मुक्त होना होगा। ये सात बेडिय़ां थीं- वेदोक्तबंदी अर्थात वैदिक साहित्य को चंद लोगों के लिए सीमित रखना, व्यवसायबंदी अर्थात किसी समुदाय विशेष में जन्म के कारण उस समुदाय के पारम्परिक व्यवसाय को जारी रखने की बाध्यता, स्पर्शबंदी अर्थात अछूत प्रथा, समुद्रबंदी अर्थात समुद्री मार्ग से विदेश जाने पर प्रतिबंध, शुद्धिबंदी अर्थात हिन्दू धर्म में पुन: लौटने पर रोक, रोटीबंदी अर्थात दूसरी जाति के लोगों के साथ खान-पान पर प्रतिबंध और बेटीबंदी अर्थात अंतरजातीय विवाह समाप्त कराने संबंधी अड़चनें। वीर सावरकर ने इस दौरान तथाकथित उच्च जाति के लोगों को यह समझाने में सफलता प्राप्त की कि जिनको आप निम्न समझ रहे हो, वे आपके ही भाई हैं। 1929 में वीर सावरकर ने विठ्ठल मंदिर के गर्भगृह में अछूतों को प्रवेश दिलाने में सफलता प्राप्त की। 

1931 में उनके द्वारा स्थापित पतित पावन मंदिर एक ऐसे केन्द्र के रूप में स्थापित हुआ जहां निम्न जाति के बच्चों को वैदिक ऋचाओं का पाठ सिखाया जाता था, मंदिर में विष्णु की मूर्ति का अभिषेक भी इन्हीं बच्चों द्वारा मंत्रोच्चार द्वारा कराया जाता था, मंदिर में महिलाओं के लिए भी सामुदायिक भोज प्रारंभ कराया गया, जबकि इससे पहले महिलाओं को भोज पर नहीं बिठाया जाता था। वीर सावरकर द्वारा वहीं एक ऐसा रेस्तरां भी खोला गया जहां अस्पृश्य जाति के लोग भोजन परोसने का कार्य करते थे।  वीर सावरकर, डा. अम्बेडकर की अंतर्दृष्टि एवं मौलिक विचारधारा से काफी प्रभावित थे। सावरकर सामाजिक सुधारों, भाईचारे और दलितों के उत्थान के लिए अपने विचार रखते समय डा. अम्बेडकर की राय का हवाला अक्सर दिया करते थे। यही कारण था कि जब सावरकर ने रत्नागिरि  में मंदिर बनवाया तो उसका उद्घाटन बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर से करवाया। वीर सावरकर जैसे महान देशभक्त, क्रांतिकारी एवं सामाजिक समरसता के अग्रदूत को कम करके आंकना तथा अवांछित आरोपों द्वारा उनके विशाल व्यक्तित्व को खंडित करना महापाप जैसा होगा। 

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