मसूद अजहर के मामले में चीन-पाक से संबंधित रणनीतियों की समीक्षा करने की जरूरत

Edited By ,Updated: 11 May, 2019 12:44 AM

need to review china pak strategies

चीन के कर्णधार कहा करते थे-‘इशारा दाएं करो, मुड़ो बाएं’। यह विरोधियों को गुमराह करने के लिए माओ की कूटनीति का तरीका था। चीन के बाहुबली अब पेइचिंग में बैठे नेताओं के दिलों तथा मनों पर राज नहीं करते। मगर वे अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति पर कार्य करते समय...

चीन के कर्णधार कहा करते थे-‘इशारा दाएं करो, मुड़ो बाएं’। यह विरोधियों को गुमराह करने के लिए माओ की कूटनीति का तरीका था। चीन के बाहुबली अब पेइचिंग में बैठे नेताओं के दिलों तथा मनों पर राज नहीं करते। मगर वे अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति पर कार्य करते समय निष्ठा से पेइचिंग के क्रांतिकारी नेता के लोकप्रिय कथन का अनुसरण करते हैं। यह राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बारे में भी सच है, जो देश के विदेशी मामलों को घुमाव तथा मोड़ देने का प्रयास कर रहे हैं।

जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के मामले में चीन की पलटी, जिस कार्रवाई को उन्होंने 10 वर्षों तक संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अवरुद्ध किए रखा, न केवल दक्षिण एशिया क्षेत्र के लिए बल्कि सारी दुनिया के लिए भी काफी मायने रखती है। अजहर पर तार्किक आवाजें सुनने के लिए राष्ट्रपति शी जिनपिंग को तैयार करने का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? क्या इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के एक वर्ष पूर्व वुहान में राष्ट्रपति शी जिनपिंग पर चलाए जादुई दाव को दिया जा सकता है? भाजपा तथा इसके नेता नरेन्द्र मोदी का मानना है कि ऐसा ही होना चाहिए मगर मैं इस सोच का समर्थन नहीं करता।

जिनपिंग के लिए देशहित सर्वोपरि
चीनी राष्ट्रपति की अपनी सोच है। वह अपने देश के हितों का कड़ाई से अनुसरण करते हैं और विश्व मंच पर अपनी एक वैश्विक नेता की नई छवि बनाना चाहते हैं। भारतीय नेताओं को अभी माओ-चाऊ के दिनों से देश द्वारा की गई गलतियों तथा बड़ी भूलों से सीखना है, जब नई दिल्ली के साथ ‘पंचशील’ के सिद्धांत के नाम पर धोखा किया गया था।

अजहर को एक वैश्विक आतंकवादी के तौर पर सूचीबद्ध करने में भारतीय कूटनीति की अत्यंत सक्रिय भूमिका को लेकर कोई संदेह नहीं है। चीन ने वर्ष 2009, 2016 तथा 2017 में तकनीकी आधार पर अजहर को सूचीबद्ध करने के रास्ते में अड़ंगा लगाया। यहां तक कि इसने एक बार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमरीका, ब्रिटेन तथा फ्रांस द्वारा अजहर पर कार्रवाई के प्रस्ताव को भी खारिज कर दिया। मगर अंतत: यह वैश्विक दबाव के आगे झुक गया। जैसा कि फ्रांस का कहना है कि आतंकवाद के खिलाफ लम्बी लड़ाई में यह वास्तव में एक ‘ऐतिहासिक’ पल है।

यह कहना अत्यंत साधारण है कि मसूद पर पेइचिंग को और अधिक सबूत देने के बाद चीन ने अपना मन बदल लिया। चीन के पास शुरू से ही जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख के बारे में सारी जानकारी थी। हालांकि यह अपने खुद के हितों से मार्गदर्शन प्राप्त कर रहा था कि दाएं मुड़े या बाएं। यह कोई रहस्य नहीं कि चीन तथा पाकिस्तान खुल कर दावा करते हैं कि वे ‘सर्वकालिक मित्र’ तथा ‘आयरन ब्रदर्स’ हैं।

पाकिस्तान में रणनीतिक व आर्थिक दावेदारियां
पेइचिंग की पाकिस्तान में बड़ी भू-रणनीतिक तथा आर्थिक दावेदारियां हैं। इसने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सी.पी.ई.सी.) में बहुत अधिक निवेश किया है जो राष्ट्रपति शी के बैल्ट एंड रोड उपक्रम का एक हिस्सा है। यह पाकिस्तान में अपने कर्मचारियों तथा सम्पत्ति को आतंकवादी खतरों को लेकर भी चिंतित है इसलिए आतंकवादियों पर लगाम कसे रखने के लिए इसे इस्लामाबाद के रणनीतिक संस्थान पर कड़ी पकड़ बनाए रखने की जरूरत महसूस होती है।

यहां तक कि पाकिस्तान को अपने तौर पर भी आने वाली फाइनैंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफ.ए.टी.एफ.) की बैठक के मद्देनजर अजहर की सूचीबद्धता की जरूरत का एहसास है, जिसमें आतंकवाद के खिलाफ इसकी कार्रवाइयों तथा आतंकवादियों को धन उपलब्ध करवाने बारे समीक्षा की जाएगी। यह भी याद रखा जाना  चाहिए कि चीन को एफ.ए.टी.एफ. की अध्यक्षता अमरीका से हाल ही में गत वर्ष एक जुलाई को मिली है। इसलिए चीन के साथ-साथ पाकिस्तान के लिए अजहर का मुद्दा मुख्य रूप से वैश्विक तौर पर छवि बनाने का मामला है, विशेषकर इस्लामाबाद के लिए, जिसकी प्रधानमंत्री इमरान खान के नकदी-विहीन सत्ता अधिष्ठान के लिए बेहतर अंतर्राष्ट्रीय ऋण शर्तों पर नजर है।

पुरानी रणनीतियां आज उपयुक्त नहीं
साऊथ ब्लाक को अपनी चीन तथा पाकिस्तान से संबंधित रणनीतियों व नीतियों की समीक्षा करने की जरूरत है। पुरानी रणनीतियां तथा नीतियां आज की तेजी से बदलती वैश्विक व्यवस्थाओं के बीच इसके कूटनीतिक प्रयासों को जरूरी ताकत नहीं देंगी। आमतौर पर नई दिल्ली ने इस आशा में अपने हितों के मामलों में चुप रहने का विकल्प चुना कि समय के साथ मामले सुलझ जाएंगे। समय पेचीदा मुद्दों को नहीं सुलझाता, केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से ऐसा किया जाता है। जैसा कि जीवन के अन्य हिस्सों में है, भारतीय नेताओं में इस देश के सामने चीनी-पाकिस्तानी चुनौतियों से निपटने की अधिक राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं है।

निश्चित तौर पर तथ्य गम्भीर हैं, उन्हें चुनिंदा तरीके से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। उन्हें करीब से देखने तथा उनकी पूरी तौर पर समीक्षा और प्रशंसा करने की जरूरत है। अन्यथा न्याय तथा निष्पक्षता का पूरा उद्देश्य समाप्त हो जाएगा। अफसोसजनक है भारतीय कूटनीतिज्ञों तथा नीति निर्माताओं की चीन-पाकिस्तान गठजोड़ तथा इसकी चालों का पर्दाफाश करने के लिए कड़े तथ्यों का इस्तेमाल करने में अक्षमता। आखिरकार कूटनीति मुस्कुराहट तथा हाथ मिलाने का मामला नहीं होता। न ही इसे कॉकटेल पाॢटयों तथा न ही वुहान जैसी ‘अच्छी’ वार्ताओं से हल किया जा सकता है।

अपने विदेशी दौरों के दौरान मैंने देखा है कि अधिकतर भारतीय अधिकारियों का सही लक्ष्य नहीं होता, न ही वे हमारे मूलभूत राष्ट्रीय हितों पर अच्छी तरह से केन्द्रित होते हैं। केवल प्रधानमंत्री मोदी ही मिस्टर सर्वज्ञाता हैं और वे शायद ही कभी अपने भीतरी विचार किसी के साथ सांझे करते होंगे, यहां तक कि अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के साथ।

अत: वैश्विक पेचीदगियों के मद्देनजर नई दिल्ली को अपनी अत्यंत सक्रिय विदेश नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए एक सही व्यवस्था बनानी होगी। सम्भवत: हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज भी नहीं जानती होंगी कि प्रधानमंत्री मोदी के मन में क्या है। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

दरअसल ये खामियां विदेश नीतियों तथा व्यवहार में वर्तमान केन्द्रीयकृत प्रणाली में एक नए अनुकूलन तथा पूर्ण बदलाव का आह्वान करती हैं। वास्तव में प्रत्येक चीज को एक खुले दिमाग के साथ देखने की जरूरत है। जहां तक इस्लामाबाद की बात है, इसे पाकिस्तानी जनरलों द्वारा प्रायोजित आतंकवाद तथा विदेश नीति के औजार के तौर पर नई दिल्ली के खिलाफ छद्म युद्ध को छोडऩा होगा।
   — hari.jaisingh@gmail.com हरि जयसिंह

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