सबरीमाला और अयोध्या में नए न्यायिक ‘पेंच’

Edited By ,Updated: 20 Nov, 2019 01:18 AM

new judicial  punches  in sabarimala and ayodhya

दशकों पुराने अयोध्या मामले का सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों ने सर्वसम्मति से समाधान कर दिया। उस फैसले के खिलाफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा रिव्यू की बात हो रही है, जिसमें सबरीमाला फैसले के अनेक कानूनी पहलुओं का भी जिक्र हो रहा है। ये दोनों मामले अलग...

दशकों पुराने अयोध्या मामले का सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों ने सर्वसम्मति से समाधान कर दिया। उस फैसले के खिलाफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा रिव्यू की बात हो रही है, जिसमें सबरीमाला फैसले के अनेक कानूनी पहलुओं का भी जिक्र हो रहा है। ये दोनों मामले अलग हैं, फिर सबरीमाला के नाम पर अयोध्या में कानूनी पेंच फंसाने की कोशिश क्यों हो रही है?

रामलला न्यायिक व्यक्ति की तर्ज पर भगवान अयप्पा के लिए मांग 
भगवान राम ने उत्तर से दक्षिण भारत की यात्रा की। राम और अयप्पा दोनों ही विष्णु के अवतार माने जाते हैं। सबरीमाला मंदिर में विराजित भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी माने जाते हैं। जिस वजह से उनके मंदिर में 10 से 50 वर्ष उम्र की महिलाओं के आने पर मनाही है, जो पीरियड होने की वजह से मां बन सकती हैं। महिलाओं के एक वर्ग के अनुसार, ये प्रतिबंध संविधान के समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हैं। अयोध्या फैसले के बाद परम्परा के समर्थकों द्वारा भगवान अयप्पा को भी ‘न्यायिक व्यक्ति’ मानने की मांग की जा रही है जिसके बाद देवता को अपने मंदिर में प्रवेश के नियम तय कर सकने का हक मिल सके। 

अयोध्या मामले में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की पुनर्विचार याचिका
संविधान के अनुच्छेद 137 के अनुसार किसी फैसले में यदि स्पष्ट और प्रकट त्रुटि हो तो उसे ठीक करने के लिए पुनॢवचार याचिका दायर की जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2013 में बनाए गए नियमों के अनुसार पुनर्विचार याचिका दायर करने के लिए 1 महीने की ही समय सीमा निर्धारित है। सामान्यत: वे लोग ही पुनॢवचार याचिका दायर कर सकते हैं, जो मुख्य मामले में पक्षकार थे लेकिन सबरीमाला मामले में 50 से ज्यादा पुनर्विचार याचिकाएं दायर की गई थीं, जिनमें कई तीसरे पक्ष भी शामिल थे। 

उसी तर्ज पर अयोध्या मामले में भी आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा पुनर्विचार याचिका की बात की जा रही है, जबकि वे मुख्य मामले में पक्षकार नहीं थे, पर यह बात गौरतलब है कि सबरीमाला का मामला पी.आई.एल. का था, जिसमें कोई भी शामिल हो सकता था। दूसरी ओर अयोध्या का मामला टाइटल सूट का था, जिसमें सी.पी.सी. कानून की सीमाएं हैं। 

पूर्व चीफ जस्टिस गोगोई की रिटायरमैंट के बाद 
पुनर्विचार याचिका पर अब नए चीफ जस्टिस बोबडे की अध्यक्षता वाली पांच जजों की नई बैंच द्वारा सुनवाई होगी, जिसमें एक नए जज को शामिल किया जाएगा। यह बात महत्वपूर्ण है कि रिव्यू की याचिका, मुख्य फैसले के खिलाफ अपील नहीं है, बल्कि यह गलतियों को ठीक करने की एक कानूनी प्रक्रिया है। अयोध्या फैसला सर्वसम्मति से लिया गया है, इसलिए पुनर्विचार याचिका से फैसले में बदलाव की ज्यादा गुंजाइश नहीं दिखती है। 

सरकार की विफलता से उपजी सुप्रीम कोर्ट की अति न्यायिक सक्रियता
संविधान के अनुसार सरकार, संसद और सुप्रीम कोर्ट के बीच अधिकारों का बंटवारा है। अयोध्या और सबरीमाला जैसे मामलों में सरकार द्वारा ठोस फैसला लेने की बजाय, उन्हें न्यायपालिका की तरफ ठेलने से न्यायपालिका की अति सक्रियता की समस्या पैदा हो रही है, जिस पर देश के सभी बड़े नेताओं ने अनेक बार सवाल उठाए हैं। आस्था के मामलों का समाज या फिर जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा संसद के माध्यम से समाधान करना चाहिए क्योंकि अदालतों की व्यवस्था तर्क प्रमाण तथ्य और कानून पर चलती है।

आलोचकों की इस बात में दम है कि परम्परा और आस्था को मानने वाली कोई भी महिला मंदिर प्रवेश पर जोर नहीं दे रही। सबरीमाला मामले में सुनवाई के समय ही पिछले वर्ष यह बात उठी थी कि आस्था के मामलों में जनहित याचिका या फिर पी.आई.एल. को सुनवाई के लिए अदालतों द्वारा क्यों स्वीकार करना चाहिए? महिला जज इंदू मल्होत्रा ने अपने अल्पमत के फैसले में संवैधानिक नैतिकता की दुहाई देते हुए कहा था कि समानता के सिद्धांत को धार्मिक आस्था के मामलों में लागू नहीं किया जा सकता। 

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद मंदिर में महिलाओं को प्रवेश क्यों नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला समेत अन्य धर्मों की महिलाओं के मामले को सुनवाई के लिए 7 जजों की नई बैंच के पास भेजा है। बड़ी बैंच के फैसले के बाद रिव्यू और नई रिट पटीशंस पर ही फैसला होगा। उसके बावजूद 5 जजों द्वारा पिछले साल बहुमत से दिया गया फैसला अभी भी लागू है और उस पर कोई स्टे नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश का कानून माना जाता है। 

पिछले हफ्ते अल्पमत के फैसले में जस्टिस नरीमन और जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद महिलाओं को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाना ‘कानून के शासन’ का उल्लंघन है। फैसले के बाद मंदिरों के प्रबंधन की जिम्मेदारी संभालने वाले देवासम बोर्ड के मंत्री सुरेंद्र ने कहा है कि सबरीमाला धार्मिक स्थान में कार्यकत्र्ताओं को विरोध-प्रदर्शन की बजाय प्रवेश के लिए सुप्रीम कोर्ट से स्पष्ट आदेश लेकर आना चाहिए। राफेल मामले में राहुल गांधी के खिलाफ अवमानना याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की है तो फिर सबरीमाला फैसले का विरोध करने वालों पर भी सख्त कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? 

समान नागरिक संहिता की ओर बढ़ती बहस
सबरीमाला मामले में 7 जजों के पास 7 बिंदुओं के माध्यम से जो रैफरैंस भेजा गया है, उसमें संविधान के अनुच्छेद 14, 25 और 26 के साथ संवैधानिक नैतिकता का भी जिक्र है।  मुस्लिम महिलाओं और पारसी महिलाओं के अधिकारों के मामले संविधान बैंच के सामने नहीं होने के बावजूद, उन्हें 7 जजों की बड़ी बैंच के सामने भेजे जाने को न्यायिक दृष्टि से भी गलत बताया जा रहा है। भारत 33 करोड़ देवताओं का वास बताया जाता है, जहां हर कोस में पानी और चार कोस में वाणी बदलने की कहावत है। इस विविधता के माहौल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा आस्था, परम्परा और जरूरी धार्मिक परम्पराओं में संगति कैसे बैठाई जाएगी? सुप्रीम कोर्ट की 7 जजों की बैंच के सामने जब अलग-अलग धर्मों के मामलों की बहस होगी तो इससे सियासी तौर पर समान नागरिक संहिता पर भी ध्रुवीकरण तेज होगा। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से संवैधानिक व्यवस्था पर सवाल
सबरीमाला मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से अनेक कानूनी सवाल खड़े हो गए हैं। पुनर्विचार याचिकाएं या फिर रिव्यू का दायरा बहुत सीमित होता है, जिसके तहत फैसले की सिर्फ गलतियों को ही ठीक किया जा सकता है। रिव्यू पर फैसले के पहले सबरीमाला मामले में रिट याचिकाओं पर विचार करना गलत था। दरअसल इस गलत ट्रैंड की शुरूआत अनुच्छेद 377 यानी समलैंगिकता के मामलों से हुई थी जब सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों के फैसले को बदलने के लिए रिव्यू के साथ नई रिट पटीशन को भी शामिल कर लिया गया। 

रविदास मंदिर मामले में प्रदर्शनकारियों के ऊपर चल रहे मामलों को खत्म करने के लिए पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था। अब 55000 से ज्यादा प्रदर्शनकारी अयप्पा भक्तों के ऊपर चल रहे मामलों को खत्म करने की मांग की जा रही है। संविधान की दृष्टि से यह अजब स्थिति है, जब जनदबाव की वजह से राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन नहीं हो पा रहा है। सबरीमाला का मामला सात जजों की बैंच के सामने भेजने के साथ उसमें अन्य धर्मों की महिलाओं के मामलों को शामिल करने से यह लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने भले ही इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है लेकिन अयोध्या की रिव्यू सुनवाई में सबरीमाला के फैसले से नया पेंच फंसने से मंदिर और मस्जिद निर्माण की राष्ट्रीय सहमति की पहल धीमी हो सकती है।-विराग गुप्ता  
 

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