ओ.बी.सी. गिनती का जिन्न क्या बाहर निकलेगा!

Edited By ,Updated: 05 Aug, 2021 06:27 AM

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यू.पी. विधानसभा चुनावों से पहले देश में ओ.बी.सी. राजनीति गरमाने लगी है। मोदी सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में दो दर्जन ओ.बी.सी. मंत्रियों को शामिल करने के बाद मैडीकल की नीट परीक्षा में केन्द्रीय कोटे की सीटों

यू.पी. विधानसभा चुनावों से पहले देश में ओ.बी.सी. राजनीति गरमाने लगी है। मोदी सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में दो दर्जन ओ.बी.सी. मंत्रियों को शामिल करने के बाद मैडीकल की नीट परीक्षा में केन्द्रीय कोटे की सीटों में भी ओ.बी.सी. को आरक्षण दे दिया है। उधर एन.डी.ए. के साथियों सहित विपक्षी दल जातीय आधार पर जनगणना कराने की मांग जोर शोर से उठाने लगे हैं। 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ओ.बी.सी. गणना का झंडा उठा लिया लगता है। बार-बार कह रहे हैं कि ओ.बी.सी. गिनती होनी चाहिए। केन्द्र ने नहीं करवाई तो बिहार सरकार के पास विकल्प खुला है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रिमंडल का पुनर्गठन किया। हैडलाइन बनी कि नए मंत्रिमंडल में 78 में से करीब आधे मंत्री दलित, आदिवासी या ओ.बी.सी. कोटे के हैं। 

स्वयं प्रधानमंत्री ओ.बी.सी. वर्ग से आते हैं जिसे वो बार-बार याद दिलाना नहीं चूकते। इसके बाद प्रधानमंत्री मोदी का ट्वीट आया। इसमें मैडीकल की नीट परीक्षा में केन्द्रीय कोटे की सीटों में ओ.बी.सी. को 27 फीसदी आरक्षण देने को महान उपलब्धि बताया गया। ओ.बी.सी. के साथ-साथ 10 फीसदी आरक्षण सवर्ण जाति के कमजोर वर्गों को देने की घोषणा  करके अपने कोर वोट बैंक को भी खुश करने की कोशिश  की गई। लेकिन  मौटे  तौर पर सुप्रीम कोर्ट और मद्रास हाईकोर्ट के फैसले पर अमल को सामाजिक न्याय की दिशा में बड़ा कदम बताया गया। उससे साफ है कि बी.जे.पी. की नजर ओ.बी.सी. वोट बैंक पर है। ऐसा वोट बैंक जो यू.पी. में करीब चालीस फीसदी है और गैर-यादव ओ.बी.सी. 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी का साथ देता रहा है। 

आसान शब्दों में कहा जाए तो जातिगत आधार पर जनगणना का मतलब ओ.बी.सी. की गिनती है। बिहार के मु यमंत्री नीतीश कुमार और वहां के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने जाति आधारित जनगणना की मांग की है। वहां नेता प्रतिपक्ष राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव का तो कहना है कि नीतीश कुमार सरकार को अपने खर्चे पर इस तरह की जनगणना करवानी चाहिए। इसके लिए वो कर्नाटक का उदाहरण दे रहे हैं। महाराष्ट्र की शिव सेना , एन.सी.पी. और कांग्रेस की मिली जुली सरकार ने तो इसी साल 8 जनवरी को विधानसभा में जातीय आधार पर जनगणना करवाने का प्रस्ताव पारित कर मोदी सरकार को भेजा। विधानसभा में बी.जे.पी. के साथ-साथ राष्ट्रीय सचिव पंकजा मुंडे ने भी इसका साथ दिया। महाराष्ट्र से ही आने वाले मंत्री रामदास आठवले भी ओ.बी.सी. गिनती के पक्ष में हैं। 

तमिलनाडु सरकार भी ऐसा प्रस्ताव भेज चुकी है। यहां तक कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग जैसी संवैधानिक संस्था ने भी एक अप्रैल को भारत सरकार से जाति आधार पर जनगणना करवाने की मांग की। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में भी एक याचिका इसी साल 26 फरवरी को स्वीकार कर संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया था। लेकिन मोदी सरकार का कहना है कि 1951 में नीतिगत फैसला लिया गया था कि अनुसूचित जाति  और अनुसूचित जनजाति को छोड़ कर बाकी किसी जाति की जनगणना अलग से नहीं होगी और इसी पर अमल किया जाएगा। यानी गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने साफ कर दिया कि मोदी सरकार का इरादा ओ.बी.सी. की गिनती करवाने का नहीं है। 

सवाल उठता है कि आखिर कुछ दल क्यों ओ.बी.सी. की गिनती चाहते हैं ..क्या सामाजिक न्याय के लिए या फिर ओ.बी.सी., की अपनी अपनी राजनीति चमकाने के लिए, इस पर बात करेंगे आगे। पहले थोड़ा पीछे चलते हैं। भारत में पहली बार ढंग से जनगणना 1881 में हुई थी। इसके बाद 1891, 1901, 1911 और 1921 में गणना हुई। इसमें भाषाई आधार पर और धार्मिक आधार पर गिनती के साथ-साथ जातीय आधार पर भी गिनती हुई। 

तब कहा गया था कि अंग्रेजों ने पहली गिनती इसलिए करवाई कि वह भारत के सामाजिक, आॢथक धार्मिक माहौल को समझना चाहते थे। वह देखना चाहते थे कि कहां कौन-सी जाति ज्यादा सं या में है और उसका समाज में कितना असर है। चूंकि अंग्रेज लंबे समय के लिए भारत में राज करने के इरादे से आए थे और जनगणना करवाना इस मकसद को आगे बढ़ाने के लिए था। खैर, आखिरी बार 1931 में जातीय आधार पर जनगणना करवाई गई थी जिसमें ओ.बी.सी. आबादी 52 फीसदी मानी गई। इसे मंडल कमीशन ने भी माना। कमीशन की सिफारिश पर तत्कालीन विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार ने 1989  में 27 फीसदी आरक्षण ओ.बी.सी. को दे दिया। यह केन्द्र की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं के लिए दिया गया जिसे बाद में सभी राज्यों ने अपने-अपने यहां लागू कर दिया। 

उधर जातीय जनगणना का विरोध करने वालों का तर्क है कि इससे आपस में वैमनस्य फैल सकता है। जातिविहीन समाज की बात करने वाले देश में जाति आधारित  जनगणना की जरूरत नहीं है। उल्टे जाति नहीं जरूरत पूछी जानी चाहिए और जरूरत पूरी किए जाने की जरूरत गिनती से ज्यादा है। हमारे यहां 52 फीसदी ओ.बी.सी. हैं और इसके अनुपात में 27 फीसदी आरक्षण। अब अगर ओ.बी.सी. मान लीजिए 55-60 फीसदी निकले तो क्या होगा। इसी तरह अगर ओ.बी.सी. 42-45 फीसदी निकले तो क्या होगा। इसका जवाब कोई सरकार नहीं देना चाहती। भारत में अभी एस.सी. को 15 फीसदी, एस.टी. को 7.5 फीसदी और ओ.बी.सी. को 27 फीसदी यानी कुल 49.5 फीसदी आरक्षण मिलता है। अब अगर ओ.बी.सी. गिनती में 52 फीसदी से ज्यादा निकले तो वो उसी बड़े हुए अनुपात में आरक्षण बढ़ाने की मांग करेंगे। 

ऐसे में सवर्ण जातियों के नाराज होने का खतरा है और अगर ओ.बी.सी. गिनती में 52 फीसदी से कम निकले तो सवर्ण जातियां कहेंगी कि उसी अनुपात में ओ.बी.सी. का आरक्षण घटाया जाए। क्या इसके लिए ओ.बी.सी. मान जाएंगे...क्या ओ.बी.सी. राजनीति करने वाली पार्टियां लाव लश्कर और लवाजमे के साथ सड़कों पर हाय-हाय करती नजर नहीं आएंगी। दोनों ही सूरत में केन्द्र सरकार की राजनीति प्रभावित होगी। यह देश मंडल कमंडल पर बहुत खूनखराबा देख और भुगत चुका है। आगे और की क्षमता नहीं है।

जानकारों का कहना है कि जब अमरीका में जनगणना से पता लगाया जाता है कि वहां कितने गोरेे हैं, कितने अश्वेत हैं, कितने हिस्पानिक हैं , कितने एशियाई मूल के हैं, कितने यहूदी हैं तो भारत में ये जान लेने में क्या बुराई है कि कितनी जातियां हैं और ये विकास के किस पायदान पर खड़ी हैं। सवाल यह उठता है कि क्या अब ओ.बी.सी. का जिन्न बाहर निकलेगा?-विजय विद्रोही

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