’आर्थिक आधार पर हो ‘आरक्षण’

Edited By ,Updated: 25 Feb, 2016 11:48 PM

on economic grounds reservation

जाटों को आरक्षण में कोटे को लेकर हरियाणा में गत दिनों उबाल रहा और इसकी गूंज दिल्ली व अन्य स्थानों...

जाटों को आरक्षण में कोटे को लेकर हरियाणा में गत दिनों उबाल रहा और इसकी गूंज दिल्ली व अन्य स्थानों पर भी सुनाई दी, जिसमें 34000 करोड़ रुपए के आर्थिक नुक्सान के अतिरिक्त 19 जानें भी चली गईं। भारत में जाति आधारित कोटे के लिए आरक्षण कोई नई बात नहीं है। बहुत से लोगों को 1990 में वी.पी. सिंह शासन के दौरान मंडल आंदोलन याद होगा। 

कई राज्यों में विभिन्न जातियों द्वारा आरक्षण की मांग की जा रही है। राजस्थान में गुज्जर, आंध्र प्रदेश में कापू, गुजरात में पटेल, महाराष्ट्र में मराठा आदि अलग कोटा चाहते हैं। भारत में लगभग 4000 जातियां तथा 25000 से अधिक उपजातियां हैं। आरक्षण भारतीय राजनीतिज्ञों तथा उनकी वोट बैंक की राजनीति के लिए विजय का एक मंत्र है। 

चुनावों के दौरान जाति के आधार पर टिकट आबंटित किए जाते हैं तथा किसी विशेष जाति तथा उपजाति को खुश करने के लिए कोटा घोषित किए जाते हैं। कोई भी पार्टी किसी भी जाति समूह को खफा नहीं करना चाहती, चाहे वह कितना भी छोटा हो। जहां संबंधित राज्य सरकारों ने अलग कोटा की मांग करने वाली विभिन्न जातियों को खुश करने का प्रयास किया है, वहीं सुप्रीम कोर्ट ने इसे निरस्त कर दिया, यदि यह शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत से अधिक हो गया हो। 

तो हरियाणा में वर्तमान आंदोलन भड़कने का क्या कारण था? जाहिरी तौर पर भाजपा विधायक सैनी की भड़काऊ टिप्पणी ने जाटों को गुस्सा दिला दिया। हरियाणा में 27 प्रतिशत जनसंख्या के साथ वे प्रभुत्वशाली जाति हैं जो राज्य की 90 सीटों में से एक तिहाई पर कब्जा किए हुए हैं। हरियाणा के गठन से लेकर अब तक 10 मुख्यमंत्रियों में से 7 जाट रहे हैं। जाट ओ.बी.सी. वर्ग के अन्तर्गत सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में कोटे की मांग कर रहे हैं।

यह संकट उस समय चरम पर पहुंच गया जब पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने यह जानते हुए कि आने वाली सरकार को यह मामला संभालना पड़ेगा, बड़ी चतुराई से 2014 के चुनावों से कुछ माह पूर्व ही उनकी मांगें मान लीं। सुप्रीम कोर्ट ने हुड्डा द्वारा घोषित 10 प्रतिशत कोटा रद्द कर दिया। राजग सरकार द्वारा अप्रैल 2015 में दायर अपील पर इस मामले में निर्णय लंबित है। भाजपा पहली बार हरियाणा में भारी बहुमत के साथ अक्तूबर 2014 में सत्ता में आई। पहली गलती संभवत: खट्टर का चयन थी, मुख्यमंत्री के तौर पर एक पंजाबी का चुनाव। 

दूसरा, मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें अभी खुद को स्थापित करना है और स्थिति को नियंत्रित करने में विफलता से खट्टर की अनुभवहीनता दिखाई देती है। यदि उन्होंने जाटों द्वारा प्रेषित संकेतों पर ध्यान दिया होता तो स्थिति नियंत्रण से बाहर नहीं होती। आखिर यह ङ्क्षचगारी कुछ समय से सुलग रही थी। 

तीसरा और अधिक महत्वपूर्ण, राजनीति ने भी अपनी भूमिका निभाई है। भाजपा के भीतर तथा विपक्ष में खट्टर के विरोधियों ने राज्य सरकार की अकर्मण्यता पर चोट करने के लिए इस अवसर का इस्तेमाल करना चाहा। हुड्डा ने जंतर-मंतर पर विरोध करने में समय नहीं गंवाया। 

चूंकि हरियाणा दिल्ली के बहुत करीब है और तीन सीमाओं से लगा हुआ है, इसकी गूंज तुरन्त राजधानी में सुनाई दी, जहां अति महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी जलापूॢत प्रभावित हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आंदोलनकारियों ने हरियाणा में मूनक नहर से दिल्ली को जलापूॢत अवरुद्ध कर दी। जल संकट के कारण दिल्ली में स्कूल बंद कर दिए गए।  हरियाणा सरकार के ये संकेत कि वह आंदोलनकारियों को खुश करना चाहती थी, कोई समाधान नहीं हो सकता। हरियाणा सरकार अब जाटों के लिए विशेष दर्जे के आरक्षण को लागू करने की बात कर रही है। इसे भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द किया जा सकता है। 

सबसे पहले संघ प्रमुख मोहन भागवत का यह कहना सच है कि कोटे का राजनीतिकरण किया जा चुका है और इसे उस भावना से लागू नहीं किया जा रहा जिससे इसे शुरू किया गया था। इसके लिए जरूरत है एक व्यापक आरक्षण नीति की। यदि उच्च जातियां भी इसकी मांग करने लगें तो आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। संविधान निर्माताओं के इरादों को गत सात दशकों में पूरा नहीं किया जा सका है क्योंकि इसके लाभ उन लोगों तक नहीं पहुंच सके जिन्हें इसकी जरूरत थी। संसद में ङ्क्षलग आधारित आरक्षण की मांग भी बढ़ रही है। 

दूसरे, यह देखने की जरूरत है कि यह मांगें क्यों बढ़ रही हैं। समस्या की जड़ है नौकरियों का अभाव और इस पर ध्यान देना चाहिए। हरियाणा के जाटों को भी अपने अन्य जगहों पर रहने वाले भाइयों की तरह इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनमें से अधिकांश कृषक हैं।

समस्या बहुत बड़ी है और जनसंख्या के बढऩे के साथ इसके आकांक्षावान भी बढ़ रहे हैं। यदि आरक्षण का निर्धारण पिछड़ी जातियों की जनसंख्या के आधार पर किया जाए तो स्पष्ट है कि आरक्षण का पुनॢनर्धारण समय-समय पर करना पड़ेगा। उनमें गरीबी तथा सम्पन्नता के स्तर अलग-अलग हैं। 

तीसरे, सबसे तीखे सुर उच्च जातियों की ओर से आ रहे हैं जो आॢथक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण चाहते हैं। उनकी मांग है कि या तो सभी का आरक्षण रद्द कर दो अथवा हर किसी को दे दो। कुछ लोगों का तर्क है कि आरक्षण विपरीत दिशा में काम कर रहा है और समाज को और अधिक बांट रहा है। 

किसी को भी समाज के गरीब वर्गों को लाभ पहुंचाने से दुख नहीं होगा, चाहे वे किसी भी जाति से संबंधित हों। बेहतर यह होगा कि आरक्षण का आधार आॢथक बनाया जाए। आरक्षण की मांग करने वाले गुज्जर, पटेल, ब्राह्मण और अब जाट व अन्य जातियों जैसे नए वर्गों को स्पष्ट कह दिया जाना चाहिए कि यह केवल आॢथक रूप से पिछड़ों के लिए है। आॢथक रूप से पिछड़े वर्ग, चाहे वे किसी भी जाति से संबंधित हों, निश्चित तौर पर आरक्षण के पात्र हैं। यह केन्द्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों की भी जिम्मेदारी है कि इस मामले की संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए इससे निपटा जाए।
 

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