ईमानदार अधिकारी ही देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं

Edited By Pardeep,Updated: 07 Apr, 2018 02:48 AM

only honest officers can bring the economy of the country back on track

आजकल देश भर के सिनेमाघरों में अजय देवगन की बहुत ही गजब की फिल्म ‘रेड’ खूब धूम मचा रही है। यह 1981 में इंदिरा शासन दौरान हुई एक सच्ची घटना पर आधारित है। उस समय की धुंधली-सी यादें ही मेरी स्मृति में अंकित हैं इसलिए जब मैंने फिल्म देखी तो मैं इसकी पूरी...

आजकल देश भर के सिनेमाघरों में अजय देवगन की बहुत ही गजब की फिल्म ‘रेड’ खूब धूम मचा रही है। यह 1981 में इंदिरा शासन दौरान हुई एक सच्ची घटना पर आधारित है। उस समय की धुंधली-सी यादें ही मेरी स्मृति में अंकित हैं इसलिए जब मैंने फिल्म देखी तो मैं इसकी पूरी गहराई को नहीं समझ पाई। 

यह फिल्म उत्तर प्रदेश में किसी जगह एक राजनीतिज्ञ व्यवसायी तथा पूरी व्यवस्था से टक्कर लेने वाले एक दिलेर टैक्स अधिकारी से संबंधित है। राजनीतिज्ञ बहुत शक्तिशाली था और जागीरदार होने के कारण इलाके में उसका बहुत दबदबा था। इस फिल्म में इंदिरा गांधी का अंतिम संदेश यह था कि इस तरह के उक्त टैक्स अधिकारी जैसे युवा अफसर ही देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकते हैं। जब छिपा हुआ काला धन या देश से बाहर जा रहा पैसा देश की अर्थव्यवस्था के लिए खतरा बन जाता है तो पूरे देश को इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है। 

जब जागीरदार राजनीतिज्ञ पर छापेमारी हुई तो उसने टैक्स विभाग के निदेशक से लेकर केन्द्रीय वित्तीय मंत्री और यहां तक कि प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपने दबदबे को प्रयुक्त करने का प्रयास किया लेकिन कोई भी तरीका कारगर नहीं हुआ। आयकर अधिकारी को अपनी छापामारी रोकने के लिए वरिष्ठ अधिकारियों से लिखित आदेश की जरूरत थी, जबकि कोई भी अधिकारी ऐसा जोखिम उठाने को तैयार नहीं था। वे सभी मीडिया की तेज निगाहों से भी डरते थे। हर विभाग में ऐसे ईमानदार अफसर मौजूद हैं जो भ्रष्ट व्यवस्था में निर्णायक बदलाव लाते हैं। ये सभी हमारे सम्मान के पात्र हैं। 

जब कोई मध्यवर्गीय या मध्यम आय समूह से संबंधित व्यक्ति परेशान किया जाता है तो क्या होता है? यदि किसी भी कारणवश टैक्स के भुगतान में विलंब हो जाता है तो उसे परेशान किया जाता है। टैक्स रिटर्न में छोटी-मोटी चूक रह जाने पर आम आदमी को तलब किया जाता है। यहां तक कि किसी अनापेक्षित कारण से आयकर रिटर्न में छोटी-सी कमी रह जाने पर उसे परेशान किया जाता है। ऐेसे मामलों में तनाव और दबाव खतरनाक सिद्ध हो सकता है। आज आम आदमी यह महसूस करता है कि देश को लूटने वाले अमीर और शक्तिशाली लोगों को बहुत आसानी से छूट मिल जाती है। 

गरीब और शीर्ष वर्ग के लोग आमतौर पर बहुत कुछ करने के बावजूद बचकर निकल जाते हैं। गलत ढंगों से कमाई करने वाले अधिकतर लोग अपनी काली कमाई समेत लाखों की संख्या में देश से बाहर जा चुके हैं। इन लोगों ने बैंकों को दोनों हाथों से लूटा है और अपने कर्मचारियों का वेतन भी हड़प कर गए हैं। इस कुकृत्य के बाद वे बिना किसी पश्चाताप की भावना से देश से ही भाग गए हैं। जब आम आदमी को पता चलता है कि हजारों लोगों द्वारा करोड़ों रुपए आयकर या अन्य टैक्स अदा ही नहीं किए जा रहे और इस टैक्स चोरी के एवज में सरकारी विभागों तथा रात-दिन काम करने वाले लेखाकारों द्वारा शानदार फीस लेकर सेवाएं उपलब्ध करवाई जाती हैं, ताकि उनके देश से भागने से पहले यह काली कमाई विदेशों में सुरक्षित पहुंचा दी जाए, तो वह क्या कर सकता है? 

सौ बात की एक बात यह है कि अंततोगत्वा हर प्रकार की चिंताओं का बोझ मध्य वर्ग को ही वहन करना पड़ता है। कभी वे अपनी मान-मर्यादा के कारण दुख झेलते हैं तो कभी जीवन मूल्यों के कारण, कभी निरंकुश व्यवस्था के कारण तो कभी धार्मिक मान्यताओं के कारण। ये लोग अपने साथ होने वाले न्याय के संबंध में किसी प्रकार की चाराजोई करने की कल्पना तक नहीं करते। वास्तव में ये मध्यवर्गीय लोग डरे-सहमे और कमजोर होते हैं। फिर भी पता नहीं किस रजिस्टर या बहीखाते में किसी क्लर्क, मुनीम, अकाऊंटैंट या बैंक की छोटी-सी लापरवाही के कारण हुई गलती इन मध्यवर्गीयों के लिए जी का जंजाल बन जाती है। हो सकता है कि अपने ही खाते से कोई छोटी-सी निकासी करने के कारण वे किसी पंगे में फंस जाएं। ऐसे लोग इसलिए समस्याओं का शिकार नहीं होते कि वे भ्रष्ट हैं बल्कि इसलिए समस्याओं में फंसते हैं कि अनजाने में उनसे कोई छोटी-मोटी चूक हो जाती है। 

अब जी.एस.टी. के कभी बढऩे और कभी घटने के कारण तो और भी बदतर स्थिति हो गई है। चतुर-चालाक लोग जानते हैं कि व्यवस्था कैसे काम करती है और किस तरह अपना काम निकलवाया जा सकता है। ऐेसे लोग कभी किसी समस्या में नहीं फंसते। यदि मध्यवर्गीय लोग समय पर टैक्स अदायगी करने से चूक जाते हैं तो इससे निपटने का क्या कोई उपाय नहीं होना चाहिए? क्या देश छोड़कर भागने वाली और सरकार को चक्करों में डालने वाली बड़ी मछलियों को दबोचने के लिए अधिक समय नहीं लगाया जाना चाहिए? ईमानदार मध्यवर्गीयों के साथ जिस तरह का व्यवहार हो रहा है वह शर्मनाक है। मेरा मानना है कि इन लोगों को कुछ अधिक गुंजाइशें प्रदान की जानी चाहिएं। आखिर आज के युग में जिंदगी बहुत महंगी हो गई है, हर बात पर खर्चा बढ़ गया है। ऐसे में सरकार को टैक्स माफी के बारे में आत्मङ्क्षचतन करना चाहिए। और कुछ नहीं तो कम से कम ईमानदार करदाताओं को तो क्षमादान मिलना ही चाहिए। 

जो लोग केवल टैक्स बचाने के लिए एन.आर.आई. बने हैं उन पर तो हर हालत में शिकंजा कसा जाना चाहिए। मध्यवर्गीय व्यापारी की तो आजकल आमदनी लगभग शून्य रह गई है। बेरोजगारी चरम पर है। इसलिए अपराध भी बढ़ रहे हैं। स्कूल की फीसें और शिक्षा तथा किताबों का खर्चा बहुत अधिक महंगा हो गया है। सब्जियां और फल खरीदना आजकल अय्याशी बन कर रह गया है। दाल-रोटी सहित हर चीज की कीमतें आसमान छूती जा रही हैं। सरकार को चाहिए कि व्यवस्था का शोषण करने वाले हर किसी से बहुत कड़ाई से पेश आए। जिन लोगों पर बैंकों का करोड़ों रुपए बकाया है, उनके संबंध में मैंने अक्सर यह देखा है कि वे शहंशाहों जैसी जिंदगी गुजारते हैं। उनके पास जीवन की हर सुख-सुविधा मौजूद है। इन लोगों के पास प्राइवेट विमान हैं और वे देश-विदेश के सुंदर पर्यटक स्थलों पर छुट्टियां मनाने जाते हैं, सबसे महंगे कपड़े पहनते हैं और सबसे लजीज खाना खाते हैं लेकिन उन्हें शर्म बिल्कुल नहीं आती। 

हो सकता है कि वे जानते हों कि एक न एक दिन तो कानून के लम्बे हाथ उन तक पहुंच ही जाएंगे, तो फिर तब तक जीवन का मजा क्यों न लिया जाए। आखिर जो पैसा उन्होंने खर्च करना है वह कौन-सा उनके खून-पसीने की कमाई है। लेकिन एक मध्यवर्गीय की नजरों में एक-एक कौड़ी की कीमत होती है और वह किसी प्रकार का खर्च करने से पहले अपने बुढ़ापे के बारे में अवश्य सोचता है। हर प्रकार के चोर तो इतनी विलासता की जिंदगी गुजारते हैं जैसे वे हम सब भारतीयों का मुुंह चिढ़ा रहे हों। भारतीय लोग जब ऐसे धोखेबाजों को टैक्स चोरी अथवा बैंकों से लिए हुए कर्ज की पूंजी पर गुलछर्रे उड़ाते देखते हैं तो खुद को अपमानित और ठगा हुआ महसूस करते हैं। 

आखिर ऐसा कैसे हो जाता है कि जब तक ऐसे चोर देश छोड़कर भाग नहीं जाते तब तक किसी विभाग को उनकी भनक तक नहीं लगती? या वे उन्हें पकड़ ही नहीं पाते। दूसरी ओर आम आदमी को बिल्कुल नगन्य से मुद्दों पर न केवल कष्ट भोगने पड़ते हैं बल्कि अपमानित भी होना पड़ता है। काश! हमारे अधिकारी कुछ अधिक सतर्क हों, अधिक मानवीय तथा संवेदनशील हों। वे राजनीतिक प्रभाव के आगे न झुकें।-देवी चेरियन

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