पुलिस का ‘राजनीतिकरण’ न हो

Edited By ,Updated: 05 Sep, 2020 03:45 AM

police should not be politicized

मेरे लेखों को लगातार पढऩे वाले पाठकों ने मुझे लिखा कि हम आपके आलेख प्रत्येक शनिवार को पढ़ते हैं। मगर आपने कभी भी पक्षपातपूर्ण दिल्ली पुलिस जोकि ज्ञानवद्र्धक लोगों की आंखों में सम्मान खो रही है, के खिलाफ टिप्पणी नहीं की। इन पाठकों ने उन चार मौकों के...

मेरे लेखों को लगातार पढऩे वाले पाठकों ने मुझे लिखा कि हम आपके आलेख प्रत्येक शनिवार को पढ़ते हैं। मगर आपने कभी भी पक्षपातपूर्ण दिल्ली पुलिस जोकि ज्ञानवद्र्धक लोगों की आंखों में सम्मान खो रही है, के खिलाफ टिप्पणी नहीं की। इन पाठकों ने उन चार मौकों के बारे में लिखा जब उन्होंने दिल्ली पुलिस का पक्षपातपूर्ण रवैया पाया। 

1. मुखौटाधारी व्यक्ति जे.एन.यू. में घुसे तथा उन्होंने छात्रों की पिटाई की। दिल्ली पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार नहीं किया। 
2. उसी पुलिस ने जामिया मिलिया विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में पढऩे वाले छात्रों को बुरी तरह से पीटा। शरारती तत्वों को आरोपित करने की बजाय छात्रों पर ही मामले दर्ज कर डाले। 
3. उत्तर-पूर्वी दिल्ली के क्षेत्रों में मुखौटाधारी लोग प्रवेश कर गए और वहां पर दंगे भड़का दिए। कपिल मिश्रा जोकि हिंसा भड़काने में मुख्य रूप से शामिल था, के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। हालांकि दंगों में हिंदुओं से ज्यादा दोगुनी गिनती में मुसलमान मारे गए।

4. तब्लीग-ए-जमात को सम्मेलन आयोजित करने की अनुमति दी गई मगर अभी तक बिन साद को खोजा नहीं गया। पाठकों को यह स्मरण करवाने की जरूरत है कि मेरे जैसे आम नागरिकों के प्रति पुलिस को जवाबदेह होना चाहिए। सच्चाई यह है कि पुलिस ऐसे व्यक्तियों की आभारी रहती है जो उनकी नियुक्ति और ट्रांसफर करते हैं। कई सीनियर अधिकारी अपनी पोसिं्टग के लिए राजनीतिज्ञों के साथ गठजोड़ कर लेते हैं और इसके लिए वे अपने आका की इच्छानुसार कार्य करते हैं। ऐसे आका सत्ता में पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं और यह सत्ताधारी पार्टी होती है जो फरमान जारी करती है कि कानून द्वारा सौंपी गई शक्ति का पुलिस कैसे इस्तेमाल करे। वास्तव में पुलिस तो अपनी शपथ के साथ बंधी होती है ताकि संविधान तथा कानून को कायम रख सके। मगर वास्तविकता यह है कि वे सत्ताधारी पार्टी के फरमानों को ही मानते हैं। हमारे देश तथा पुलिसबलों की यही त्रासदी रही है। 

मैं दिल्ली के वर्तमान पुलिस कमिश्रर पर आरोप नहीं लगाने जा रहा क्योंकि मैं जानता हूं कि गृह विभाग के सशक्त इच्छा शक्ति वाले मंत्री की ख्वाहिशों को नकारा जाना कितना मुश्किल होता है। उसके लिए एक खुला विकल्प ट्रांसफर या फिर इस्तीफा देने का होता है। ज्यादातर अधिकारी ऐसा करने या फिर एक सैद्धांतिक रुख नहीं अपनाते। मेरे जानकार तेजिन्द्र खन्ना सबसे बढिय़ा आई.ए.एस. अधिकारी रहे हैं। मैंने पंजाब में उस समय अपनी सेवाएं दीं जब तेजिन्द्र भी वहां पर कार्यरत वरिष्ठ नौकरशाह थे। मेरे डैपुटेशन के कार्यकाल के दौरान पंजाब कैडर में आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. दोनों में ही ईमानदार तथा अखंडता से काम करने वाले कम अधिकारी थे। 

तेजिन्द्र उनमें से एक थे। उसके बाद वह दिल्ली में भारत सरकार के सचिव के तौर पर सेवाएं देने के लिए चले गए। रिटायरमैंट के बाद उनकी नियुक्ति हमारी राजधानी में बतौर उप राज्यपाल के तौर पर हुई। कुछ वर्ष पूर्व मैं निरंतर ही तेजिन्द्र के साथ सम्पर्क में था जब मेरी आयु ने मेरी चुस्ती तथा सजगता को दर्शाना शुरू कर दिया। मैं उस समय उत्साहित हो गया जब मैंने उनसे एक ई-मेल प्राप्त किया। यह अगस्त का अंतिम दिन था। मैं अब भी खुश था जब मैंने उनके रोने-पीटने वाले पत्र को पढ़ा। उचित तथा निष्पक्ष होने के तौर पर पुलिस में लोगों का विश्वास देशव्यापी कम हो चुका है। ऐसा ही अपराधों की जांच करने के खिलाफ भी है जो एक संवेदनशील पैमाना पा चुका है। पुलिस अधिकारी जो अपने जीवित बचे रहने तथा तरक्की के लिए बाहरी दबाव मानते हैं, वे स्वतंत्र तौर पर निर्णय लेने या एक प्रतिबद्धता जताने में कमी दर्शाते हैं। 

मैं अपने पुराने दोस्त के साथ कतई सहमत नहीं हूं। मैंने उनको कुछ शब्दों में वापस जवाब दिया। मेरे अपने आई.पी.एस. बैचमेट गोविंद राजन मुझसे प्रत्येक समय मिलते रहते हैं जब वह मुम्बई की यात्रा करते हैं।  वह अपने बच्चों को भी साथ लेकर आते हैं। उनमें से एक रिजर्व बैंक के गवर्नर रह चुके हैं और दूसरे टाटा सन्ज में रतन टाटा के अंदरूनी सर्कल में एक विश्वसनीय सदस्य हैं। गोविंद राजन के भी पूछने वाले वही सवाल हैं कि हमारे नए पुलिस अधिकारियों के साथ क्या घटा है?यह वह जानना चाहते हैं। सरकार में मैं अपने दिनों को दोहराना चाहता हूं। मैंने कांग्रेस सरकार के अधीन अपने 40 सालों तक सेवा की। इनमें से अंतिम 4 सालों में गैर-पुलिस की भूमिका रही। मैंने 2 वर्षों तक पंजाब में अकाली सरकार के अधीन कार्य किया। 

सत्ताधारी राजनीतिज्ञों द्वारा भयभीत होने का मेरा कभी भी अनुभव नहीं रहा। यदि कोई उनके समक्ष दृढ़ता से खड़ा हो जाए और नियमों तथा सच्चाई को बताए जब वे तथ्यों की समीक्षा करने के लिए आएं। अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण अडवानी की भाजपा सरकार भिन्न थी। ऐसा मैंने महसूस किया। लक्ष्यों को पाने के उद्देश्य में उन्होंने कभी भी अधिकारियों को तथ्यों को घुमाने के लिए नहीं कहा। मगर मोदी जी तथा अमित शाह अलग हैं। मैंने गुजरात में अपनी सेवाएं दीं तथा मेरे वहां पर पुलिस तथा प्रशासन में दोस्त भी हैं। इसके अलावा वहां के आम नागरिक भी मेरे जान-पहचान वाले हैं। वह ऐसी बातों का खंडन करना नहीं चाहते। न तो वह भूले हैं और न ही माफ करना चाहते हैं। 

उन पाठकों की ओर लौटता हूं जिन्होंने यह कहा है कि मैंने दिल्ली पुलिस की भत्र्सना नहीं की और उसका पक्ष लिया। मैं बताना चाहता हूं कि ऐसे अन्याय की कभी भी भत्र्सना नहीं की जा सकती। मगर भारत में पुलिस बलों का जब तक राजनीतिकरण होना खत्म नहीं हो जाता तब तक राजनीतिज्ञ जो सत्ता में रहते हैं, पुलिस का गलत इस्तेमाल करते रहेंगे।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)
 

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