राम मंदिर, चुनाव और भाजपा का भ्रमद्वंद्व

Edited By Pardeep,Updated: 29 Dec, 2018 04:14 AM

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‘प्रधानमंत्री मोदी, राम मंदिर के लिए कानून बनाओ, यह दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी डाल रहा है, अनुषांगिक संगठन भी और यहां तक कि भाजपा के सांसद भी। प्रयाग में संगम के तट पर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को बोलने से रोक कर श्रद्धालुओं ने आवाज बुलंद...

‘प्रधानमंत्री मोदी, राम मंदिर के लिए कानून बनाओ, यह दबाव राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी डाल रहा है, अनुषांगिक संगठन भी और यहां तक कि भाजपा के सांसद भी। प्रयाग में संगम के तट पर केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह को बोलने से रोक कर श्रद्धालुओं ने आवाज बुलंद की ...‘मंदिर नहीं तो वोट नहीं’। 

फिर दिक्कत क्या है मोदी सरकार को कानून बनाने में? इस 2.77 एकड़ जमीन के अधिग्रहण की वैधानिकता पर तो सन् 1994 में ही सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय पीठ ने मोहर लगा दी थी और अब तो मात्र कानून बना कर उसे मंदिर निर्माताओं को सौंप देना है। फिर देरी क्यों? अगर राज्यसभा में बहुमत की दिक्कत है तो इस कानून को दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में पारित कराया जा सकता है। अगर संसद का सत्र नहीं चल रहा है तो सरकार के पास और भी अल्पकालिक रास्ता है ..अध्यादेश का। फिर आखिर मोदी सरकार क्यों चुप बैठी है? 

इसका कारण है। और इसकी झलक हाल में ही दादाचंद मैमोरियल लैक्चर में भारत सरकार के अटॉर्नी जनरल के.के. वेणुगोपाल के उद्बोधन में मिलती है, देश के कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान में मिलती है और अचानक पिछले हफ्ते से भाजपा प्रवक्ताओं और मंत्रियों ही नहीं पार्टी, अध्यक्ष अमित शाह द्वारा सुप्रीम कोर्ट से इस केस की लगातार प्रतिदिन सुनवाई करने की मांग में मिलती है। सुप्रीम कोर्ट में आगामी 4 जनवरी  को राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जमीन के स्वामित्व के केस की सुनवाई होनी है। वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट की 5 सदस्यीय पीठ द्वारा हाल ही में सबरीमाला मामले में दिए गए फैसले में उभरे ‘संवैधानिक नैतिकता’ के सिद्धांत को लेकर जबरदस्त भत्र्सना की और शंका व्यक्त की कि ‘हो सकता है आने वाले कानूनों की वैधानिकता पर इसी सिद्धांत का प्रयोग यह अदालत करे। 

यहां तक कि उन्होंने केशवानंद भारती केस में दिए गए और अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रशंसित ‘आधारभूत संरचना’ के सिद्धांत की भी ङ्क्षनदा की और कहा कि इस सिद्धांत से और ताजा ‘संवैधानिक नैतिकता’ के तर्क से सुप्रीम कोर्ट अपने को संविधान से भी ऊपर रखना चाहती है। उधर कानून मंत्री का कहना है कि हम सुप्रीम कोर्ट पर दबाव डालेंगे कि वह जल्दी फैसला ले। 70 साल से यह मामला लटका है और सुप्रीम कोर्ट में भी अब अपील के 10 साल हो चुके हैं। 

55 साल पुराने सिद्धांत पर हमला क्यों
अटॉर्नी जनरल से किसी ने नहीं पूछा कि अचानक 55 साल पुराने 13 सदस्यीय पीठ के विश्व-ख्याति प्राप्त ‘आधारभूत संरचना’ के सिद्धांत पर आज यह हमला क्यों? दरअसल वेणुगोपाल को भी मालूम है कि संसद इस मुद्दे पर पहले तो कानून नहीं बना सकती और अगर संख्या बल और हिन्दुओं की भावना के नाम पर अन्य दलों के स्पष्ट तौर पर खिलाफ न होने के कारण बनाया भी तो इसी सिद्धांत (आधारभूत संरचना से छेड़छाड़ की शक्ति संसद में निहित नहीं)के कारण वह अगले क्षण अदालत  द्वारा असंवैधानिक ठहराया जाएगा। 

अटॉर्नी जनरल यह भी जानते हैं कि चूंकि यह मामला जमीन की मिल्कियत को लेकर है, लिहाजा जो कागज पर होगा उसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट फैसला देगी और उस समय यह कोर्ट हाल में घोषित ‘संवैधानिक नैतिकता’  के सिद्धांत को अमल में लाएगी। लिहाजा पहले से ही इन दोनों मूल सिद्धांतों को गलत बता कर यह आरोप लगाया जा सकता है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत खुद को संविधान से भी ऊपर मानती है। इस आरोप का इस्तेमाल भाजपा चुनाव में अप्रत्यक्ष रूप से कर सकती है। इसी तरह कानून मंत्री का यह कहना कि सुप्रीम कोर्ट 10 साल से फैसला नहीं कर रही है ,अब इसे तत्काल प्रतिदिन सुनवाई कर फैसला देना होगा, भी उसी चुनावी रणनीति का हिस्सा है। किसी ने कानून मंत्री से नहीं पूछा कि 10 साल में साढ़े 4 साल आपने यह मांग अदालत में क्यों नहीं उठाई, अपने ‘56 महीनों’ के शासनकाल में कानून क्यों नहीं बनाया। अब अचानक क्यों प्रतिदिन सुनवाई चाहते हैं। 

भाजपा सशंकित है
दरअसल 3 राज्यों की हार ने और उससे उत्साहित विपक्ष के एक साथ आने से भाजपा सशंकित हो गई है। चुनाव में मात्र 4 माह बचे हैं। अब वह समय निकल चुका है कि वायदों पर जनता भरोसा करे। किसान और दलितों की नाराजगी आंकड़ों में दिखाई देने लगी है। लिहाजा जहां एक ओर जनमत को काम से प्रभावित करने की कोशिश होगी, वहीं भावना को कुरेदने और सन् 1992 जैसा जनोन्माद बनाने का एक समानांतर प्रयास और तेज करने की रणनीति अपनाई गई है। यही वजह है कि एक ओर सुप्रीम कोर्ट पर जल्द फैसला देने का दबाव बनाया जाएगा और अगर सुप्रीम कोर्ट इस दबाव में नहीं आई, यानी ऐन चुनाव के दौरान फैसला नहीं दिया तो दूसरी रणनीति यह होगी कि चुनाव के ठीक कुछ दिन पहले अध्यादेश लाया जाएगा, यह जानते हुए भी कि अदालत में ऐसा अध्यादेश (या कानून) एक क्षण भी नहीं टिक सकता। जाहिर है कम से कम भाजपा या प्रधानमंत्री यह तो कह सकेंगेे कि हम तो मंदिर बनाना चाहते थे लेकिन कोर्ट को कौन समझाए? 

फैसला आया तो फायदा भाजपा को 
भाजपा यह भी जानती है कि अगर चुनाव के दौरान फैसला आ जाता है तो वह किसी भी पक्ष के लिए हो, फायदा भाजपा का होगा। अगर सुप्रीम कोर्ट हिंदुअों के पक्ष में फैसला करती है तो अगले दिन से ही भाजपा और संघ के धड़े हर हिंदुओं के घर जा कर ‘बहन जी, आपके घर से भी एक पवित्र ईंट राम लला के मंदिर के लिए’ का अभियान शुरू कर देंगे। अगर फैसला मुसलमानों के पक्ष में गया तो भाजपा को कुछ करने की जरूरत नहीं है, स्वत: ही भावना जोर पकड़ लेगी। अगर सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2.77 एकड़ विवादित जमीन को बराबर-बराबर हिस्सों में (एक-तिहाई रामलला विराजमान, एक-तिहाई निर्मोही अखाड़ा और एक-तिहाई सुन्नी वक्फ  बोर्ड को) बांटने के फैसले को ही बरकरार रखा तो भी भाजपा बाकी एक तिहाई पाने के लिए चुनाव जीतने के बाद अध्यादेश लाने की बात कह कर दो-तिहाई जमीन पर तत्काल निर्माण शुरू कराने का चुनावी उपक्रम शुरू कर सकती है। 

कहना न होगा कि सुप्रीम कोर्ट पर अटॉर्नी जनरल ने अपनी जबरदस्त नकारात्मक टिप्पणी के साथ ही यह भी कह दिया कि वह ये सब अपने व्यक्तिगत आधार पर कह रहे हैं न कि अटॉर्नी जनरल के रूप में। यह अलग बात है कि मंच सार्वजनिक था और मीडिया मौजूद। ये सब कुछ यहीं नहीं रुका, भारत के सॉलिसिटर जनरल ने इस भाव को आगे बढ़ाते हुए कहा कि कुछ ही दिनों पहले बाबा रामदेव के मामले में देश की सबसे बड़ी अदालत ने फैसला दिया कि सोने का अधिकार मौलिक अधिकार है और हाल ही में इसी अदालत ने अगला फैसला दिया कि किसी के साथ सोना भी मौलिक अधिकार है। बहरहाल उन्होंने भी यही कहा कि वह यह टिप्पणी मजाक में और व्यक्तिगत तौर पर कर रहे हैं। बहरहाल श्रोताओं ने ताली जरूर बजाई। 

केन्द्र सरकार यह जानती है कि आगामी 4 जनवरी को सुनवाई के तरीके पर फैसला नहीं होना है, बल्कि नई तीन सदस्यीय बैंच का गठन होना है और यह नई बैंच गठन के बाद यह फैसला लेगी कि सुनवाई प्रतिदिन के आधार पर हो या तारीख दी जाए। जाहिर है नई खंडपीठ को रोजाना सुनवाई करने की कोई मजबूरी नहीं है (हाल के कुछ वर्षों में संविधान पीठ कुछ गंभीर मामलों पर प्रतिदिन सुनवाई जरूर करने लगी है) पीठ को भी यह मालूम है कि फैसले का समय और चुनावी माहौल में इस फैसले के राजनीतिक लाभ का क्या रिश्ता है।-एन.के. सिंह

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