आरक्षण : पिंजरे में बंद राक्षस, जो बढ़ता ही जा रहा है

Edited By ,Updated: 08 Feb, 2024 05:05 AM

reservation a caged monster which keeps growing

‘पिछड़ी जातियों में से जो लोग आरक्षण से लाभान्वित हुए हैं, उन्हें अब आरक्षित श्रेणी से बाहर निकलना चाहिए और अपने से अधिक पिछड़ों के लिए आरक्षण का लाभ उठाने का रास्ता बनाना चाहिए।’

‘पिछड़ी जातियों में से जो लोग आरक्षण से लाभान्वित हुए हैं, उन्हें अब आरक्षित श्रेणी से बाहर निकलना चाहिए और अपने से अधिक पिछड़ों के लिए आरक्षण का लाभ उठाने का रास्ता बनाना चाहिए।’ ये टिप्पणियां सुप्रीम कोर्ट की 7-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गईं, जो 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाले एक संदर्भ पर सुनवाई कर रही है, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जातियां सजातीय वर्ग बनाती हैं और उनके बीच कोई उपविभाजन नहीं हो सकता है। 

पीठ के एक न्यायाधीश की टिप्पणी, लेकिन शायद कुछ अन्य लोगों ने भी इसका समर्थन किया, ने आरक्षण से लाभ प्राप्त करने से संबंधित एक महत्वपूर्ण पहलू को सामने ला दिया है। संविधान निर्माताओं ने विचार किया था कि आरक्षण की आवश्यकता केवल कुछ वर्षों तक ही रहेगी जब तक कि सभी वर्गों को समान अवसर नहीं मिल जाते। आजादी के बाद से भी अधिकतर समय तक हम लक्ष्य के करीब नहीं हैं। न केवल यह तथ्य कि आरक्षण का अंत नजरों से ओझल है, बल्कि और भी अधिक आरक्षण की मांग उठ रही है। देश में विभिन्न समुदायों द्वारा आरक्षण की मांग को लेकर हिंसक विरोध प्रदर्शन सहित आंदोलन देखे जा रहे हैं। यहां तक कि जिन समुदायों को अन्य समुदायों से बेहतर माना जाता था, वे भी आरक्षण का लाभ पाने के लिए ‘पिछड़े’ कहलाने को तैयार हैं।

लगभग दैनिक आधार पर अधिक समुदायों द्वारा आरक्षण की मांग को देखते हुए, आरक्षण को समाप्त करने और योग्यता के आधार पर भर्ती और पदोन्नति आदि के बारे में सोचना भी असंभव है। इसलिए पीठ द्वारा उठाए गए प्रासंगिक बिंदू पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। पंजाब के महाधिवक्ता गुरमिंदर सिंह द्वारा दिए गए तर्कों को सारांशित करते हुए, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ ने टिप्पणी की ‘‘आपके अनुसार, एक विशेष श्रेणी के बीच, कुछ उपजातियों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। वे अपनी श्रेणी में आगे हैं। उन्हें उससे बाहर आकर सामान्य (श्रेणियों) से प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए। वहां क्यों रहें? और जो बचे हुए हैं, जो पिछड़ों में पिछड़े हैं, उन्हें आरक्षण मिलने दो। एक बार जब आप आरक्षण की अवधारणा को प्राप्त कर लेते हैं, तो आपको आरक्षण से बाहर निकल जाना चाहिए।’’ 

जवाब में महाधिवक्ता ने कहा, ‘‘यही उद्देश्य है, और यदि वह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है, तो जिस उद्देश्य के लिए यह अभ्यास किया गया था वह समाप्त हो जाना चाहिए।’’ बात को आगे बढ़ाते हुए, पीठ के एक अन्य सदस्य न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने कहा कि हालांकि इस तरह के बदलाव लाना संसद का विशेषाधिकार है। उन्होंने कहा कि यह विचार करने योग्य है कि क्या आरक्षित श्रेणी के आई.ए.एस., आई.पी.एस. और आई.एफ.एस. अधिकारियों के बच्चों को आरक्षण का लाभ मिलता रहना चाहिए। यही बात मंत्रियों, विधायकों और अन्य सार्वजनिक पदाधिकारियों के बेटे-बेटियों के साथ-साथ उन लोगों के लिए भी सच है जो आरक्षण प्रणाली का लाभ लेकर विभिन्न क्षेत्रों में सफल हुए हैं। अपनी श्रेणी के गरीबों के बच्चे पहले से ही लाभांवित माता-पिता के बच्चों से कैसे आगे बढऩे की उम्मीद कर सकते हैं जो बेहतर शिक्षा और अन्य सुविधाएं वहन कर सकते हैं। 

आजादी के बाद से 75 वर्षों से अधिक समय तक आरक्षण व्यवस्था का जारी रहना अपने आप में इस व्यवस्था की विफलता की स्वीकारोक्ति है। हालांकि अब यह एक पिंजरे में बंद राक्षस है जो बढ़ता ही जा रहा है और इसे वापस पिंजरे में डालना लगभग असंभव है। इसके अलावा राजनीतिक दलों के लिए आरक्षण के खिलाफ खड़ा होना असंभव हो सकता है क्योंकि इसका मतलब होगा अपने वोट बैंक का त्याग करना और यह अकल्पनीय है। क्या कोई भी राजनीतिक दल यह रुख अपना सकता है कि वह आय और ऐसे अन्य मानदंडों के आधार पर प्रत्येक श्रेणी में केवल निचले 10 प्रतिशत लोगों तक लाभ पहुंचाने का प्रयास करेगा। 

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘जब भी आप संदेह में हों या जब स्वयं आप पर हावी हो जाए, तो निम्नलिखित परीक्षण अपनाएं। सबसे गरीब और कमजोर आदमी का चेहरा याद करें जिसे आपने देखा है और अपने आप से पूछें कि क्या आप जो कदम उठाने पर विचार कर रहे हैं क्या वह सही  है? वह किस काम आनेे वाला है। क्या इससे उसे कुछ हासिल होगा?’’हमारे नेताओं और सत्ता में बैठे लोगों को इसे ध्यान में रखना चाहिए और प्रतिज्ञा करनी चाहिए कि आरक्षण का लाभ हमारे सबसे गरीब और सबसे कमजोर साथी नागरिकों को मिले।-विपिन पब्बी
 

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