‘दंगा फसाद और अंधेर नगरी चौपट राजा की मिसाल’

Edited By ,Updated: 06 Mar, 2021 04:02 AM

riot fuss and andher nagari chaupat raja ki parsal

हमारे देश में दंगे विशेषकर वे जिनका आधार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक भावनाआें को ठेस लगाना हो और अचानक वे एक दूसरे को मारने मरने के लिए दुश्मनी का रास्ता अपना लें तो समझना चाहिए कि कहीं तो कुछ एेसा है जिससे

हमारे देश में दंगे विशेषकर वे जिनका आधार विभिन्न धर्मों के अनुयायियों की धार्मिक भावनाआें को ठेस लगाना हो और अचानक वे एक दूसरे को मारने मरने के लिए दुश्मनी का रास्ता अपना लें तो समझना चाहिए कि कहीं तो कुछ एेसा है जिससे कल तक एक दूसरे के पड़ोसी रहे, अचानक शत्रु क्यों बन गए? जहां तक दंगों का इतिहास है तो इसकी शुरूआत भारत विभाजन के दौरान हुए भीषण रक्तपात से लेकर फरवरी 2020 में हुए दिल्ली के एक खास इलाके में हुए हिंदू मुस्लिम संघर्ष तक जाती है। 

जो पीढ़ी इन दंगों की साक्षी रही है और जिन्होंने अपनी आंखों के सामने मारकाट होते देखी है वे इस बात से सहमत होंगे कि इनके पीछे जो सबसे बड़ा कारण है, वह यह है कि एक एेसी अफवाह फैला दी जाती है जो एकदम झूठ होती है लेकिन लोगों को सच्ची लगती है और जब तक सच्चाई सामने आए तब तक विध्वंस हो चुका होता है। प्रश्न उठता है कि इस प्रकार की अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए हमारा खुफिया सरकारी तंत्र क्या कर रहा था कि उसे इसकी भनक तक नहीं लगी और अगर उसे पता था तो समय पर कार्रवाई क्यों नहीं की? क्या उस पर किसी तरह का दबाव था कि हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाए और कुछ न करे, क्या अफवाह से होने वाली हानि का अनुमान तक नहीं लगा पाई और इसलिए उसने इसे हल्के में लेकर कुछ नहीं किया? 

इन प्रश्नों के उत्तर जानने से पहले यह समझ लीजिए कि हमारा खुफिया तंत्र बहुत विशाल है और एेसा संभव नहीं है कि कोई अफवाह उसकी जानकारी में आने से बच जाए। हमारे यहां सी.बी.आई. है जो इंटरपोल के बराबर है, एन.आई.ए. है जो कहीं भी जाकर किसी को भी तनिक सा संदेह होने पर हिरासत में ले सकती है, राज्यों की अपनी सी.आई.डी. टीम हैं, रॉ है जो अंतर्राष्ट्रीय साजिशों की निगरानी करती है। ये संस्थाएं लगभग पच्चीस हैं जिनमें आयकर, आर्थिक घोटाले, सूचना तंत्र का नियंत्रण तथा सभी कुछ आता है। इन संस्थाआें पर अपराधों को होने से पहले रोकने और अगर हो जाएं तो अपराधियों को पकडऩे, सजा दिलाने की जिम्मेदारी है। 

अब हम बात करते हैं पिछले साल दिल्ली में हुए दंगों को लेकर फिल्मकार कमलेश मिश्रा की फिल्म की जो उन्होंने दंगों के बाद बनाई थी लेकिन लॉकडाऊन के कारण अब दर्शकों को दिखा पाए हैं। उनके निमंत्रण पर फिल्म देखी और कुछ सवाल मन में आए जो जानने जरूरी हैं। इस फिल्म में दंगों के दौरान हुई तबाही के दृश्य हैं, किस तरह बरसों से साथ रह रहे पड़ोसी अचानक एक दूसरे की जान लेने पर उतर आए। 

जो लोग मारे गए, उनके परिवार के लोगों का मार्मिक रुदन है, आंखों को नम करने वाले और मन में क्रोध का उबाल पैदा कर सकने की ताकत रखने वाले बयान हैं, करोड़ों की संपत्ति ख़ाक में मिला दिए जाने और अपना कारोबार, व्यापार,दुकान, दफ्तर, स्कूल, शिक्षण संस्थान सब कुछ लूट लिए जाने की दास्तान हैं, जिंदगी भर की कमाई नष्ट कर दिए जाने के प्रमाण हैं, पुरुषों, महिलाआें, बच्चों की आंखों में बेबसी की झलक है और एेसा बहुत कुछ है जो किसी को भी सोचने के लिए मजबूर कर दे कि हम किस युग में जी रह रहे हैं और क्या बिना डरे और सहमे जिया जा सकता है? 

इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ न कहते हुए अब हम इस बात पर आते हैं कि इन दंगों के पीछे क्या था, दामन के नीचे क्या छुपा था और वह किसी को दिखाई क्यों नहीं दिया, अगर पता था तो पहले से कार्रवाई क्यों नहीं हुई? इन दंगों की पृष्ठभूमि में एक अफवाह यह थी कि पांच मार्च को मुसलमानों को देश निकाला दे दिया जाएगा इसलिए सरकार को सबक सिखाया जाए। इसके लिए समय और तारीख एेसी तय की गई जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली कहे जाने वाले देश अमरीका के राष्ट्रपति के भारत दौरे के लिए रखी गई थी। इसे उस समय सुरक्षा एजैंसियों का ध्यान बांटने की कोशिश कही जा सकती है या अमरीका की नजरों में भारत की छवि धूमिल करने का लक्ष्य हो सकता है या फिर पूरे देश को सांप्रदायिक ङ्क्षहसा में झोंक देने की कवायद हो सकती है! 

उल्लेखनीय है कि रिकार्ड के मुताबिक लगभग 700 कॉल पुलिस का ध्यान दिलाने के लिए जागरूक नागरिकों द्वारा 23 फरवरी को की गई थीं जिन पर ध्यान नहीं दिया गया। उससे पहले भी संदिग्ध सामग्री ले जाए जाने और कुछ खास स्थानों पर रखे जाने की सूचना पुलिस को दी गई थी। 5 मार्च की अफवाह की जानकारी पूरे तंत्र को थी। नागरिकता कानून के विरोध में आंदोलन चल ही रहा था और सुरक्षा एजैंसियों से इस सब की जानकारी होने की उम्मीद प्रत्येक नागरिक को थी और उसे अपनी जान और सम्पत्ति की हिफाजत किए जाने का भरोसा था। 

यह सब होते हुए इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हो जाना अपने आप में हमारे खुफिया तंत्र पर सवालिया निशान लगाता है कि उसके फैलाव की विशालता और असीमित शक्तियों के बावजूद यह कांड हो जाना क्या चिराग तले अंधेरा होने की कहावत चरितार्थ नहीं करता? यह प्रश्न स्वाभाविक है कि जो व्यक्ति अपने प्रदेश की सुरक्षा में सेंध न लगने के लिए चाक चौबंद व्यवस्था कर सकता है, वह देश की राजधानी में किस प्रकार चूक गया जिससे दिल्ली को दंगों की विभीषिका से गुजरना पड़ा। इन सभी सवालों के जवाब मिलने ही चाहिएं वरना कहीं अंधेर नगरी चौपट राजा की कहावत आने वाले समय में सिद्ध न हो जाए!-पूरन चंद सरीन
 

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