रोहिंग्या घुसपैठियों पर कठोर रुख अपनाने की जरूरत

Edited By Punjab Kesari,Updated: 26 Sep, 2017 12:55 AM

rohingya intruders need to adopt harsh stance

1975 की गर्मियों में राजनीतिक उत्पीडऩ के भय से दक्षिण वियतनाम के हजारों लोगों ने पलायन किया...

1975 की गर्मियों में राजनीतिक उत्पीडऩ के भय से दक्षिण वियतनाम के हजारों लोगों ने पलायन किया। वे लकड़ी की टूटी-फूटी नावों में बैठकर भागे। आधुनिक इतिहास में समुद्री मार्ग से शरण लेने वाले लोगों का यह सबसे बड़ा पलायन था और इसके चलते ही ‘बोट पीपल’ शब्द गढ़ा गया। विश्व के देशों ने उन्हें काफी नाटकबाजी के बाद शरणार्थियों के रूप में अपनाया। 

अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, थाईलैंड, मलेशिया, जापान और बरमूडा जैसे छोटे देश ने भी उन्हें शरण दी। 14 वर्ष बाद 1989 में  लोगों का मन बदला और ये बोट पीपल उनके गले की फांस बन गए। अब नए बोट पीपल जन्म ले रहे थे और ये आर्थिक शरणार्थी थे। इन लोगों में किसान, कारखाना कामगार तथा मजदूर आदि थे, जो सुरक्षित जगहों पर आर्थिक कारणों से पलायन कर रहे थे और उनके पास कोई प्रमाण नहीं था कि उनका उत्पीडऩ हो रहा है। 

वर्ष 2016 में विश्व के समक्ष इन बोट पीपल की एक नई जमात देखने को मिली, जब सीरिया के 22 मिलियन लोगों ने विश्व के विभिन्न भागों में शरण ली। इनमें से 13.5 मिलियन लोगों को मानवीय सहायता चाहिए थी और 5 मिलियन लोग यूरोपीय देशों में शरण मांग रहे थे। एक वर्ष बाद 2017 में इतिहास की पुनरावृत्ति हुई, जब 1 लाख 64 हजार रोहिंग्या मुस्लिम म्यांमार के रखाइन प्रांत से पलायन कर भारत और बंगलादेश में शरण मांगने  लगे। आज भारत में जम्मू, हैदराबाद, दिल्ली और मेवात में 40 हजार से अधिक रोहिंग्या मुस्लिम रह रहे हैं। 

मोदी सरकार ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है कि ये रोहिंग्या मुस्लिम राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं और उन्हें म्यांमार वापस भेजना चाहिए, चाहे मानव अधिकार कार्यकत्र्ता और संयुक्त राष्ट्र इसकी कितनी ही आलोचना क्यों न करें। संयुक्त राष्ट्र ने यहां तक कहा है कि रोहिंग्या मुस्लिम विश्व में सर्वाधिक उत्पीड़ित वर्ग है। भारत में बंगलादेश के अवैध प्रवासियों के कारण पूर्वोत्तर भारत की जनांकिकी बदल गई है जिसके कारण स्थानीय लोगों की आजीविका और पहचान के लिए संकट पैदा हो गया है। असम के 27 जिलों में से 9 जिले पहले ही मुस्लिम बहुल जिले बन गए हैं और राज्य की 126 विधानसभा सीटों में से 60 सीटों पर मुस्लिमों का प्रभाव है। 

राज्य में 85 प्रतिशत अतिक्रमित वन भूमि पर बंगलादेशीयों का कब्जा है। खुफिया रिपोर्टों के अनुसार पिछले 70 वर्षों में असम की जनसंख्या 3.29 मिलियन से बढ़कर 14.6 मिलियन हो गई है अर्थात इस अवधि में राज्य की जनसंख्या में 343.77 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि देश की जनसंख्या में कुल 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई। बिहार, पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर और राजस्थान के 7 जिले अवैध प्रवासियों से प्रभावित हैं। देश की राजधानी में लगभग 10 लाख से अधिक अवैध प्रवासी हैं। महाराष्ट्र में 1 लाख से अधिक हैं। त्रिपुरा स्थानीय पहचान के समाप्त होने का एक दु:खद उदाहरण है। पिछले 2 दशकों में नागालैंड की जनसंख्या में बंगलादेश के अवैध अप्रवासियों की संख्या 20 हजार से बढ़कर 75 हजार से अधिक हो गई है। 

मिजोरम में बाहरी लोगों के विरुद्ध गुस्से के कारण अक्सर हिंसक आंदोलन होते रहते हैं। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी अवैध बंगलादेशीयों ने हमारे कानूनों का फायदा उठाकर राशन कार्ड प्राप्त कर लिए हैं। वे कूड़ा बीनने से लेकर घरेलू नौकर, कृषि कामगार, रिक्शा चलाना आदि कार्य कर रहे हैं और वे देश के वैध नागरिकों के रोजगार को प्रभावित कर रहे हैं। भारत में पहले ही डेढ़ लाख से अधिक तिब्बती शरणार्थी, 70 हजार से अधिक अफगानी शरणार्थी, 1 लाख से अधिक श्रीलंकाई तमिल तथा 35 लाख से अधिक नेपाली प्रवासी रह रहे हैं। भारत की 130 करोड़ की जनसंख्या में अवैध अप्रवासियों की संख्या प्रति 100 नागरिकों पर अढ़ाई है जिससे हमारे संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा है। सूत्रों के अनुसार आई.एस. और पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन रोहिंग्या सहित इन अवैध अप्रवासियों को वरगला रहे हैं जिसके चलते देश की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा पैदा हो गया है। 

यही नहीं, देश की सीमा पार आई.एस.आई. के 200 से अधिक आतंकवादी शिविर चल रहे हैं। आई.एस.आई. ने अनेक बंगलादेशीयों को पाकिस्तान में प्रशिक्षण के लिए भेजा है। रॉ के सूत्रों के अनुसार आई.एस.आई. ने संपूर्ण पूर्वोत्तर क्षेत्र को इस्लामी शासन के अधीन लाने के लिए ऑप्रेशन पिन कोड शुरू किया है। बंगलादेश का धीरे-धीरे तालिबानीकरण हो रहा है और रक्षा अधिकारियों के अनुसार हमारी पूर्वी सीमा पर पश्चिमी सीमा से अधिक गंभीर स्थिति है। इतनी बड़ी संख्या में अवैध अप्रवासियों का आना एक युद्ध से भी भयावह स्थिति है। इससे लोगों में भय की भावना पैदा हो गई है और लोग स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं। 

भारत सरकार दुविधा की स्थिति में है। म्यांमार सरकार रोहिंग्या मुसलमानों को अपना नागरिक नहीं मानती है इसलिए उन्हें वापस भेजना कठिन होगा। हमारे समाज और राजनीति की सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए यह अल्पसंख्यकों के अधिकारों का मुद्दा बन सकता है। आप्रवास के अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ नेरोन वीनर के अनुसार-जनसंख्या का पलायन होता नहीं है अपितु कराया जाता है। कई बार सरकारें सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए या किसी समुदाय पर दूसरे समुदाय का वर्चस्व स्थापित कराने के लिए बलपूर्वक पलायन कराती हैं। वस्तुत: आज विश्व के देश यह महसूस करने लग गए हैं कि शरणाॢथयों के लिए उनके खुले द्वार की नीति एक गंभीर गलती है। जर्मन चांसलर अब अपने निर्णय पर पश्चाताप कर रही हैं। 

फ्रांस अपने यहां इस्लामीकरण से चिंतित है। डेनमार्क और स्कैंडीनेवियन देश शरणाॢथयों को वापस भेज रहे हैं। इनका मानना है कि यह केवल जनांकिकीय बदलाव या सांस्कृतिक अतिक्रमण ही नहीं अपितु उनके देश के संसाधनों पर भी हमला है जिससे वहां बेरोजगारी और अपराध बढ़ रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान ऐसे प्रवासियों को निकालने का वायदा किया था। फिर इन शरणार्थियों का क्या होगा? क्या ये वोट बैंक की राजनीति बन जाएंगे? क्या ऐसे आप्रवासियों के आने-जाने के अवैध कार्य को जारी रखें?

क्या ये लोग भारत की समृद्धि की ओर खिंचे जा रहे हैं? इस समस्या का समाधान भारत की एकता और अखंडता को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। किंतु यह आसान कार्य नहीं है क्योंकि विपक्ष चाहता है कि सरकार मानवीय दृष्टिकोण अपनाए अर्थात विपक्ष वोट बैंक की राजनीति कर रहा है। रोङ्क्षहग्या मुस्लिम भारत में रहने के अधिकार के बदले इन विपक्षी दलों को अपना वोट देंगे। हमारे देश में अधिकतर धर्मनिरपेक्ष पार्टियों ने अपने वोट बैंक को बढ़ाने के लिए अविवेकपूर्ण ढंग से अवैध आप्रवासियों को आने दिया। यह सच है कि उन्हें अब वापस भेजना मुश्किल है किंतु राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले मे सांप्रदायिक एजैंडा के लिए कोई स्थान नहीं है।

क्या सरकार इस बारूद के ढेर को निष्क्रिय करने में सक्षम है? केवल कार्रवाई करने का आश्वासन देने से काम नहीं चलेगा। आवश्यक है कि इन अवैध अप्रवासियों को कड़ा संदेश देने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं। व्यावहारिक दृष्टि से सीमा प्रबंधन सुदृढ़ किया जाए और सीमा पर गश्त बढ़ाई जाए। स्थानीय लोगों को पुलिस में भर्ती किया जाए। यदि सीमा पर घुसपैठियों को नहीं रोका गया तो फिर आगे उन्हें नहीं रोका जा सकता है।

अब यह मुद्दा केवल मानवीय मुद्दा नहीं रह गया है। यह गंभीर जनांकिकीय, आर्थिक और राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा बन गया है। इस मुद्दे पर ढुलमुल रवैया अपनाने से काम नहीं चलेगा। इस संबंध में लम्बे समय तक कोई कार्रवाई न करने से स्थिति गंभीर बन गई है। अत: इस समस्या की गंभीरता को समझा जाना चाहिए और इसका हमेशा के लिए समाधान किया जाना चाहिए। नमो को इन अवैध आप्रवासियों की बिल्ली के गले में घंटी बांधनी ही होगी।
 

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