छोटे किसान सरकारों से पूरी मदद लेने के हकदार

Edited By Punjab Kesari,Updated: 23 Sep, 2017 02:31 AM

small farmers are entitled to take full help from governments

कायदे से तो भारत के गांवों में कोई परेशानी ही नहीं होनी चाहिए थी- आखिर कृषि योग्य भूमि के मामले में हमारा देश दुनिया...

कायदे से तो भारत के गांवों में कोई परेशानी ही नहीं होनी चाहिए थी- आखिर कृषि योग्य भूमि के मामले में हमारा देश दुनिया में दूसरे स्थान पर है लेकिन इस उपजाऊ जमीन के एक-तिहाई हिस्से पर ही सिंचाई की सुविधा है, बाकी इलाका बारिश के उतार-चढ़ाव पर निर्भर रहता है। छोटी होती जोत और खेती की बढ़ती लागत से किसान पर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि से समायोजित करने के बाद वित्त वर्ष 14 से 17 के दौरान कृषि और इससे संबंधित सैक्टर की जी.डी.पी. 17 फीसदी की दर से बढ़ी। इसकी तुलना में ग्रामीण मुद्रास्फीति 16 फीसदी रही। जाहिर है ग्रामीण भारत जहां का तहां पड़ा है, अपनी बदहाली के साथ। 

ग्रामीण कर्ज, जिसका अक्सर रोना रोया जाता है, गांवों की बदहाली की वास्तविक तस्वीर पेश करता है। पंजाब विश्वविद्यालय के 3 साल पुराने अध्ययन में पाया गया था कि पंजाब में बड़े किसानों (10 हैक्टेयर से बड़े खेत) का कर्ज उनकी आय का 0.26 फीसदी है, जबकि मध्यम दर्जे के किसानों (4-10 हैक्टेयर) का कर्ज और आय का अनुपात 0.34 फीसदी है। यह स्थिति बर्दाश्त की सीमा के अंदर है लेकिन छोटे (1-2 हैक्टेयर) और सीमांत किसान (एक हैक्टेयर से कम जोत) पर कर्ज का बोझ ज्यादा है। इनका आय और कर्ज का अनुपात क्रमश: 0.94 और 1.42 है। इस भारी कर्ज में भी 50 फीसदी गैर-बैंकिंग स्रोतों से लिया गया होता है। 

इसका नतीजा किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने आता है। नैशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एन.सी.आर.बी.) के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2015 में कृषि कार्यों से जुड़े  करीब 12,602 लोगों ने आत्महत्या की। यह 2014 की तुलना में 2 फीसदी ज्यादा है। किसानों की आत्महत्या के मामले मोटे तौर पर सीमित सिंचाई सुविधा और बारिश में उतार-चढ़ाव वाले इलाकों (उदाहरण के लिए महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना,  छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश) में बढ़े हैं। वर्ष 2015 में आत्महत्या करने वाले किसानों में 87.5 फीसदी इन्हीं इलाकों से थे। बीते 2 दशकों में 3,21,428 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 

इसकी कई वजहें हैं। पिछले सालों में खाद्यान्न की कीमतों में काफी गिरावट आई है। बीते साल से तुलना करें तो अप्रैल 2017 में अरहर की कीमत में 45 फीसदी की कमी आई है, जबकि उड़द में 29 फीसदी की कमी आई है। (एच. जेठमलानी की जून 2017 की रिपोर्ट)। सोयाबीन के दाम 24 फीसदी गिरे, जबकि इस साल अप्रैल में आलू 41 फीसदी सस्ता हो गया। बुआई क्षेत्र और उपज में वृद्धि, बफर स्टॉक और आयात में बढ़ौतरी, वैश्विक कृषि-उत्पाद के रुझान और नोटबंदी के दौरान सस्ते दाम पर बिक्री के चलते खाद्यान्न की कीमतों में गिरावट आई- खासकर दलहन (बीते साल की तुलना में13.64 फीसदी)और सब्जियों (7.79 फीसदी) की कीमत में (सी.एम.आई.ई.ई. 2017)। इस दौरान खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में 4 फीसदी की बढ़ौतरी हुई, जो 2010 और 2013 के बीच 13-15 फीसदी तक रही थी। 

कृषि संसाधनों तक पहुंच की खाई भी चौड़ी हुई है। महाराष्ट्र में बड़े किसानों को सहजता से आधुनिक पम्प मिल जाते हैं, जिसके नतीजे में वे ज्यादा मात्रा में पानी ले लेते हैं और छोटे व सीमांत किसानों के लिए बहुत थोड़ा, बशर्ते बड़े किसानों ने छोड़ा हो, पानी ही बचता है। (पी. भोगल दिसम्बर, 2016)। बीते कुछ वर्षों में उर्वरक और कीटनाशक के दामों में बेतहाशा बढ़ौतरी हुई है। इसके नतीजे में असम के माजुली जिले में सीमांत किसानों ने उन कीड़ों को ही खाना शुरू कर दिया है, जो उनकी फसलों को नुक्सान पहुंचाते हैं (एन. मित्तल, सितम्बर 2016)। भारत में ज्यादा उपज देने वाले बीज की सीमित उपलब्धता और ऊंची कीमत भी कृषि उत्पादन को प्रभावित करती है। 

इन मुश्किल हालातों में किसानों के पास फसल विविधीकरण के मौके बहुत कम हैं और वे गेहूं-चावल जैसी मुख्य फसलों पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं, जिनके लिए सरकार तय कीमत की गारंटी देती है और जिसको कटाई के बाद रखने के लिए बुनियादी ढांचा भी है। ज्यादा उपज लेने की क्षमता को बढ़ाने, किसानों को शिक्षित करने की योजनाओं पर अमल और विश्व बाजार तक पहुंच अभी बहुत दूर की कौड़ी है। भारत की कृषि रणनीति शुरू से ही लागत कम (खाद पर सबसिडी और बीज पर अनुदान देकर) रखते हुए उत्पादन बढ़ाने (ज्यादा उपज वाली किस्मों की मदद से) के साथ न्यूनतम आय की गारंटी (समर्थन मूल्य) देने पर केन्द्रित रही है। दूसरी तरफ, उपभोक्ता को सार्वजनिक वितरण प्रणाली की मदद से सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाता था लेकिन यह रणनीति धीरे-धीरे अपनी उपयोगिता खो चुकी है। सबसिडी खत्म किए जाने के साथ देश का कृषि संसाधन बाजार धीरे-धीरे नियंत्रणों से मुक्त होता जा रहा है। 

बजट घाटा कम करने के प्रयासों में सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण उपायों और ज्यादा उपज देने वाली किस्मों पर सरकारी निवेश प्रभावित हुआ है। कृषि उत्पादों के आयात में उदारीकरण ने भी घरेलू कीमतों की गिरावट में हिस्सेदारी निभाई। भारत के कृषि क्षेत्र को बाजार के इशारों पर नाचने के लिए छोड़ दिया गया, जिसके लिए वह अभी तैयार नहीं था। इन हालातों में सीमांत किसान के लिए अस्तित्व बचाना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे किसानों की मुश्किलें कम करने के लिए संस्थागत मदद के कई उपाय किए गए हैं। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ट्यूबवैल सिंचाई, कृषि मशीनीकरण और सहायक गतिविधियों के लिए वित्तीय मदद मुहैया कराता है। 

वर्ष 1990 में राष्ट्रीय स्तर पर कृषि ऋण माफी के फैसले ने ग्रामीण ऋण के प्रावधान पर हानिकारक असर डाला। यह एक ऐसा कदम था जिससे फौरी तौर पर तो फायदा हुआ लेकिन इससे ऋण अनुशासन को धक्का लगा और ग्रामीण ऋण विकास में गिरावट आई। सरकार ने इस समस्या के समाधान के लिए 1994-95 में रूरल इंफ्रास्ट्रक्चर डिवैल्पमैंट फंड (आर.आई.डी.एफ.) और 1999 में किसान क्रैडिट कार्ड (के.सी.सी.) की शुरूआत की।

इन दोनों का ही मकसद जरूरतमंद किसानों को ऋण की सुविधा मुहैया कराना था। बाद के बजटों में कृषि ऋण की सीमा बढ़ाए जाने, ब्याज में रियायत और के.सी.सी. का दायरा बढ़ाए जाने से कृषि ऋण (वर्ष 2017 में 10 लाख करोड़) में बढ़ौतरी हुई। अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार की कर्ज माफी योजना का अनुसरण करते हुए महाराष्ट्र, पंजाब और कर्नाटक ने भी कर्जमाफी (देश की जी.डी.पी. का तकरीबन 0.5 फीसदी) का ऐलान किया, जबकि मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में भी ऐसी मांगें उभर रही हैं।

निश्चित रूप से छोटे और सीमांत किसान अपने राज्यों की सरकारों से पूरी मदद के हकदार हैं। वैसे, भारत की कृषि नीति ने देश के किसानों में स्वस्थ ऋण संस्कार पैदा करने को हतोत्साहित ही किया है। जब उन्हें पता है कि अगले चुनाव में फिर कर्ज माफी स्कीम आने वाली है तो कोई किसान क्यों जल्दी अपना कर्ज चुकाना चाहेगा? ऐसे कदमों से किसानों को अपनी हैसियत से आगे बढ़कर जोखिम उठाने का प्रोत्साहन मिलता है। उपाय सबके सामने है। देश के छोटे और सीमांत किसानों को एक और कर्ज माफी की जरूरत है। हालांकि एक बार दिए जाने के बाद यह भविष्य में जारी नहीं रखा जा सकता। उनकी समस्या के समाधान के लिए और भी दूसरे रास्ते हैं। 

कृषि उपकरणों, खाद और कीटनाशकों की खरीद पर ज्यादा सबसिडी दी जा सकती है, जबकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत उन्हें स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जा सकता है। इसके साथ ही मनरेगा का दायरा बढ़ा कर सीमांत किसानों को अपने खेत की जुताई के लिए भुगतान किया जाना चाहिए, जिससे कि उनको लागत घटाने में मदद मिलेगी- वे अपने खेतों पर कृषि मजदूर लगाने का खर्च नहीं उठा सकते और दूसरे का खेत जोतना उनके लिए सामाजिक रूप से अटपटा होगा। ऐसे उपाय उनकी आय बढ़ा सकते हैं और गांवों की बदहाली कम कर सकते हैं। इस तरह के छोटे-छोटे कदमों से उनकी जिंदगी में बड़े बदलाव लाए जा सकते हैं।    

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