बिगड़ी मानसिकता का हल समाज खुद ढूंढे

Edited By Pardeep,Updated: 13 Jul, 2018 03:10 AM

solved society to solve the problem

मात्र 2 दिनों के अंतराल में हुईं चार घटनाओं पर गौर करें। देश की राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्य एक साथ अपनी जीवनलीला समाप्त करते हैं, यह मानते हुए कि उनके परिवार के मृत मुखिया की भटकती आत्मा को मुक्ति मिलेगी और तब वह (मुक्तात्मा) इस...

मात्र 2 दिनों के अंतराल में हुईं चार घटनाओं पर गौर करें। देश की राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्य एक साथ अपनी जीवनलीला समाप्त करते हैं, यह मानते हुए कि उनके परिवार के मृत मुखिया की भटकती आत्मा को मुक्ति मिलेगी और तब वह (मुक्तात्मा) इस सामूहिक आत्महत्या में शामिल हर सदस्य को पुनर्जीवित कर देंगे और सब कुछ  यथावत चलने लगेगा। 

यह परिवार आर्थिक रूप से खुशहाल था और अपेक्षाकृत शिक्षित भी। इसी राजधानी में एक मजदूर बाप शराब के नशे में अपनी पत्नी की पिटाई कर रहा था और जब पांच साल के बेटे ने उसे ऐसा करने से मना किया तो शराबी ने बेटे का सिर दीवार पर दे मारा, बच्चा मर गया। महाराष्ट्र के धुले के एक गांव में 5 मजदूरों को बच्चा चोर समझ कर लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला। उसी दिन तमिलनाडु में भी बाहर से आए मजदूरों की यही गति हुई। इन घटनाओं से कुछ दिन पहले असम और त्रिपुरा में भी बच्चा चोर मान कर कुछ लोगों को भीड़ ने मार दिया। 

सामूहिक आत्महत्या हो या सामूहिक हत्या या फिर शराबी का परिवार के सदस्यों पर अत्याचार, तीन तथ्य साफ दिखाई देते हैं-पहला, कि समाज का एक वर्ग मानसिक रूप से बीमार है, दूसरा, कि इनमें से किसी भी घटना को ‘‘न होने देने में’’ राज्य, उसके अभिकरणों या कानून की कोई भूमिका नहीं है और तीसरा, कि भीड़-न्याय की मानसिकता इसलिए है क्योंकि तार्किक नैतिकता के लोप होने के साथ ही राज्य और न्याय-व्यवस्था पर जन-विश्वास कम होता जा रहा है।
जरा इस मनोदशा का विश्लेषण करें। 

किसी व्यक्ति, परिवार या व्यक्ति -समूह को अगर आत्मा के भटकने, उसके मोक्ष प्राप्त करने में विश्वास है या फिर यह विश्वास भी कि पिता जी की आत्मा को तब शांति मिलेगी जब पुत्र अपना जीवन दान दे या उनको (पिता को)जीवनपर्यंत सताते रहे व्यक्ति की मौत हो जाए और यह विश्वास भी कि पुत्र के रूप में यह काम उसे ही करना होगा तो क्या आई.पी.सी. की धारा उसके विचार को बदल सकती है या थाने का दरोगा उसे समझा सकता है। यानी यह शुद्ध विश्वास का मामला है और अगर उसे यह भी विश्वास हो जाए कि नर-बलि देने से ईश्वर उससे खुश होकर अकूत संपत्ति का स्वामी या अतुलनीय शक्ति का नियंता बना देंगे या ईश्वरीय कार्य के लिए, जैसे अन्य ईश्वर के मानने वालों को खत्म करने से स्वर्ग या जन्नत में जगह मिलेगी तो क्या कोई कलैक्टर या भारत के संविधान का अनुच्छेद 51 (अ) (ज), जो हर नागरिक से अपेक्षा करता है कि वह वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करे, उसका विचार बदल सकता है? 

दरअसल यह बीमारी (अवैज्ञानिक व अतार्किक सोच) केवल अनपढ़ लोगों में हो, ऐसा नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में सालों से बंद आई.ए.एस. दम्पति भी धर्मभीरू थे और पूजा-अर्चना करते थे। देवी के दर्शन करने वाला मंत्री या नेता भी उस क्षेत्र में एक सरकारी मीटिंग रख कर ‘‘देवी की अर्चना कर’’ पुण्य कमाने का भरोसा रखता है। जब चारा घोटाला हो रहा था तब भी उसमें लिप्त तमाम अधिकारी व नेता छठ पूजा करते रहे। दरअसल ठेकेदार के द्वारा खरीदे गए हवाई टिकट पर तिरुपति बालाजी के दर्शन करने वाला इंजीनियर विज्ञान भी पढ़ा होता है, धार्मिक भी होता है, फिर भी भ्रष्टाचार में लिप्त होकर समाज को खोखला करता है।

वास्तव में इस इंजीनियर या नेता, उस सामूहिक आत्महत्या करने वाले परिवार के 11 सदस्यों या फिर नरबलि देकर भगवान को खुश करने वाले व्यक्ति में मनोविकार का केवल डिग्री का अंतर होता है। उस अधिकारी ने शायद ही कभी सोचा हो कि ठेकेदार उस पर जो खर्च तिरुपति यात्रा में कर रहा है, उसका खमियाजा कुछ साल बाद उसके द्वारा बनाए गए घटिया पुल के  गिरने  से आम लोगों को मौत के रूप में मिलेगा। तो क्या धर्म गलत है? क्या ‘‘धर्मंचर’’ के आदेश की परिणति धर्मान्धता, धर्म के नाम पर खून बहाने, नरबलि देने या फिर सामूहिक आत्महत्या करने या भ्रष्ट रह भी सरकारी खर्चे पर मंदिर -मस्जिद जाकर ‘‘पुण्य’’ बटोरने में होती है? शायद हम भूल जाते हैं कि तैत्रियोपनिषद् में इस श्लोक में पहले ‘‘सत्यं वद’’ आता है फिर ‘‘धर्मंचर’’। कोई भी धर्म, ईश्वर-भक्ति, लोक -परलोक का लाभ तब तक संभव नहीं, जब तक व्यक्ति सत्य पर आचरण नहीं करता। 

झारखण्ड या छत्तीसगढ़ के कई सुंदर क्षेत्रों में हर चौथे दिन मानसिक बीमारी से पीड़ित और भटक कर किसी गांव पहुंची महिला की वहां के लोग पत्थरों से मार कर जान ले लेते हैं, यह विश्वास करते हुए कि वह ‘‘डायन’’ है जिसे बगल के प्रतिस्पर्धी गांव वालों ने भेजा है और यह ‘‘डायन’’ हमारे गांव को तबाह कर देगी। मुश्किल यह है कि समाज की व्यक्तिगत आस्था या सामूहिक सोच से धर्मान्धता हटाने और वैज्ञानिक सोच विकसित करने में राज्य की कोई सक्रिय भूमिका संभव नहीं। अगर कोई व्यक्ति किसी तथाकथित संत या बाबा को ईश्वर मान कर अपनी किशोरवय बेटी को ‘‘साधना’’ के लिए भेजता है तो राज्य, कानून या कोई औपचारिक राज्य तंत्र उसे रोक नहीं सकता। 

अगर बेटी चीख-चीख कर कहती भी है कि बाबा उसके साथ बलात्कार करता है तो ‘‘भक्ति’’ में अंधा बाप उसे डांट कर फिर उसी ‘‘भगवान’’ के पास भेज देता है क्योंकि इस ‘‘भगवान’’ रूपी ‘‘बाबा’’ ने बाप को विश्वास दिलाया है कि बेटी पर किसी बुरी आत्मा का साया है जो ‘‘भगवान’’ के खिलाफ  बुलवा रही है। कुछ दिन बाद यह बेटी हमेशा के लिए प्रतिरोध छोड़ कर समर्पण कर देती है। उसे कहीं से भी सहारा नहीं मिलता। तो कैसे बचें इससे ? राज्य, कानून या किसी भी औपचारिक संस्था के व्यक्ति का विश्वास को लेकर कोई रोल नहीं। व्यक्ति की सोच वैज्ञानिक नहीं। 

धर्म का यह विद्रूप चेहरा बाबा के रूप में बेहद प्रभावशाली-इतना कि भक्तों के वोट के लिए मंत्री से मुख्यमंत्री तक को साष्टांग दंडवत् के भाव में ला देता है। दहशत में विरोधी स्वर का निकलना मुश्किल। फिर रास्ता क्या? दूसरा पहलू लें। शराब पीना गैर-कानूनी नहीं, नशे में पत्नी को रोज मारना तब गैर-कानूनी है जब पत्नी थाने तक जाने की हिम्मत जुटाए, यह सोच कर कि वह दो बच्चों के साथ बेसहारा हो भयंकर आर्थिक विपन्नता और सामाजिक अलगाव की शिकार हो सकती है। इसी का लाभ लेकर शराबी पति दुर्दांत पुत्र-हन्ता तक बन जाता है। 

उधर मात्र सोशल मीडिया की गलत जानकारी के आधार पर सामूहिक चेतना उद्वलित कर कुछ लम्पट लोग किसी को पीट-पीट कर मार देते हैं इसलिए नहीं कि उन्हें बच्चों की चिंता है बल्कि वे मूलरूप से अपराधी हैं, जो सड़कों -चौराहों पर खड़े हैं, केवल सामूहिक अपराध करने के लिए किसी बहाने की तलाश में। अखलाक, पहलू खान, जुनैद इसी सामूहिक अपराध के शिकार रहे। समाधान एक ही है। हमें गैर-राज्यीय (नान-स्टेट) लेकिन विश्वसनीय सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं (न कि बाबा) विकसित करनी होंगी जो बाबाओं के चंगुल में फंसे करोड़ों लोगों को धार्मिक अन्धविश्वास से निकाल सकें। इसके लिए हमें समाज की तर्क-शक्ति बढ़ानी होगी, धर्म को बाबाओं के चंगुल से निकाल कर इन संस्थाओं में समाहित करना होगा। लोगों को गीता सरीखे अद्भुत धर्म ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए उन्मुख करना होगा और धर्म के इस विद्रूप चेहरे के खिलाफ  वही आंदोलन छेडऩा होगा जो 15 वीं सदी में मार्टिन लूथर ने ईसाई धर्म के खिलाफ  तार्किकता को लाने के लिए छेड़ा था।-एन.के. सिंह

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