लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों लौटाए

Edited By ,Updated: 01 Feb, 2017 12:17 AM

the authors also return the sahitya akademi award

जब लेखक और कलाकारों ने अकादमी को वे सम्मान लौटाए थे जो उन्हें दिया गया था, तो उनसे यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए था कि उन्होंने आपातकाल ...

जब लेखक और कलाकारों ने अकादमी को वे सम्मान लौटाए थे जो उन्हें दिया गया था, तो उनसे यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए था कि उन्होंने आपातकाल जैसे परीक्षा के अन्य अवसरों पर ऐसा क्यों नहीं किया। लेखक और कलाकार संवेदनशील लोग हैं, जब और जिस तरह उन्हें लगता है, वे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं।

वास्तव में, यह पता लगाना सरकार का कत्र्तव्य था कि उन्हें ऐसा क्यों लगा कि स्थिति इस हद तक पहुंच गई है कि पुरस्कार वापस करने के अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं रह गया। जवाहर लाल नेहरू की भतीजी नयनतारा सहगल जिन्होंने सबसे पहले पुरस्कार लौटाया, ने कहा था कि भाजपा शासन में विरोध के लिए जगह नहीं है। कई कलाकारों ने उन्हीं का रास्ता अपनाया।

पुरस्कार लौटाते समय अकादमी को लिखे गए पत्र में हिन्दी कवि मनमोहन ने वर्तमान स्थिति के बारे में कहा कि यह परेशान करने वाला है  कि ‘‘विरोध की आवाज और अपनी बात कहने की आजादी पर रोक लग रही है जो नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एम.एम. कलबुर्गी जैसे बुद्धिजीवियों-लेखकों की हत्या में साफ दिखाई देती है।’’

‘‘भारतीयों को विरोध दर्ज कराने का अनुभव है। हाल में कई लेखकों और कलाकारों ने मौजूदा परिस्थितियों के विरोध में अकादमियों की ओर से मिले सम्मान लौटाए हैं। मैं भी हरियाणा साहित्य अकादमी को पुरस्कार लौटा रहा हूं,’’ लेखक ने अपने पत्र में कहा। निश्चित तौर पर, साम्प्रदायिक धुव्रीकरण, नफरत के कारण अपराध, असुरक्षा और ङ्क्षहसा देश में काफी घनी हो रही है।

राजनेता इसे बढ़ावा या संरक्षण देते दिखाई देते हैं। सरकार कलाकारों और लेखकों की सिर्फङ्क्षनदा करने में लगी रहती है। अपनी बात कहने की आजादी वह नींव है जिस पर लोकतंत्र का ढांचा खड़ा किया गया है। अगर इसे नुक्सान पहुंचाया गया तो पूरा का पूरा ढांचा ढह जाएगा। दुर्भाग्य से, यही हो रहा है।

घुटन की यह भावना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के आने के बाद से उभरी है। अलग राय पेश करने में डर लगता है। हिन्दू समुदाय के उन्मादी कट्टरपंथी ज्यादा उत्साही हो गए हैं और ऐसे कामों में लगे हुए हैं जो सैकुलरिज्म के खिलाफ है और जो अल्पसंख्यकों के मन में डर पैदा करता है।दादरी की घटना इतनी शर्मनाक है कि यह याद करने लायक भी नहीं है। एक मुस्लिम युवक की पीटकर हत्या कर दी गई क्योंकि उसके रैफ्रिजरेटर में बीफ (गोमांस) मिला।  यह उस अफवाह के आधार पर किया गया था जिसे गलत पाया गया।

बीफ खाना चाहिए या नहीं, यह व्यक्तिगत पसंद का मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसी विचार का समर्थन किया है। अल्पसंख्यकों में ज्यादा लोग इसे नहीं खाते क्योंकि देश ने सबको साथ लेकर चलने वाली संस्कृति विकसित की है। यही वजह है कि मुसलमानों की आस्था को ध्यान में रख कर हिन्दू सूअर का मांस नहीं खाते। वास्तव में, अपनी तमाम अनेकताओं के बावजूद भारत एक राष्ट्र के रूप में बचा रह गया क्योंकि इसने अलग-अलग भावनाओं और पहचानों का सम्मान किया है। अगर ऐसा नहीं होता तो भारत जैसा विशाल देश काफी पहले बिखर गया होता।

लंदन में भारतीय उच्चायुक्त का अपना छोटा कार्यकाल मुझे याद आता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मारग्रेट थैचर के मन में हमारे देश के लिए कितना सम्मान था। उन्होंने एक बार बताया कि भारत दुनिया के लिए उदाहरण है कि किस तरह पिछड़ेपन के बावजूद भारत लोकतांत्रिक और एकजुट बना रहा। उन्होंने एक बार मुझसे पूछा कि मेरी राय में इसकी वजह क्या है? मैंने उन्हें बताया कि भारत में हम ऐसा नहीं सोचते कि कोई चीज काली या सफेद होती है। हम एक विशाल धूसर रंग को देखते हैं जिसका आकार हम बढ़ते देखना चाहते हैं। यही हमारी अनेकता या सैकुलरिज्म है।

दुर्भाग्य से, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा अनेकतावाद की विरोधी है। यह पार्टी ध्रुवीकरण में यकीन करती है। हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का उदाहरण लें। राष्ट्रीय समाचारपत्रों में उनका बयान आया था कि, ‘‘मुसलमान इस देश में रह सकते हैं लेकिन उन्हें बीफ खाना छोडऩा पड़ेगा क्योंकि गाय हमारे लिए आस्था का विषय है।’’

बेशक, हरियाणा के मुख्यमंत्री ने नाराजगी पैदा की और कांग्रेस ने इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए दुख का दिन बताया था और उनके ‘‘असंवैधानिक’’ विचार की आलोचना की थी लेकिन जैसी संभावना थी, भाजपा नेता ने कह दिया कि मेरे शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा गया है। ‘‘मैंने कभी ऐसा बयान नहीं दिया लेकिन अगर किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो मैं खेद प्रकट करने के लिए तैयार हूं’’, खट्टर ने कहा।

जाहिर है, पार्टी ने खट्टर के विचारों से यह कह कर अपने को अलग कर लिया था कि यह पार्टी की राय नहीं है। इसके तुरन्त बाद संसदीय कार्य मंत्री एम. वैंकेया नायडू ने कहा कि खट्टर की ओर से व्यक्त किए गए विचार पार्टी के नहीं हैं। ‘‘मैं उनसे बात करूंगा और उन्हें सलाह दूंगा। किसी के खानपान की आदत को धर्म से जोडऩा सही नहीं है। लोगों को दूसरे की भावनाओं का ध्यान रखना होगा और भोजन लोगों की व्यक्तिगत रुचि है।’’

लेकिन मुझे सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात पर हुआ कि नायडू ने दादरी की घटना को राज्य सरकार की जिम्मेदारी बताकर निपटा दिया था। उन्होंने कहा कि यह उत्तर प्रदेश और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से संबंधित मामला है और केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार पर दोष मढऩे के बदले समाजवादी पार्टी से सवाल किए जाने चाहिएं।

इसी तरह, बढ़ती असहनशीलता के खिलाफ लेखकों के विरोध और पुरस्कार लौटाए जाने के बारे में उन्होंने कहा था कि यह सरकार के खिलाफ सुनियोजित और दुर्भावना से भरा प्रचार है ताकि विकास से इसका ध्यान हटाया जा सके और भारत को विकसित करने व तरक्की की ओर ले जाने के प्रयासों को पटरी से उतारा जा सके।मैं एक बिन्दु पर नायडू से सहमत हूं। पुरस्कार लौटाने की होड़ में शामिल लेखकों में से कुछ ने आपातकाल लगाए जाने और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों के समय कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। इस घटना के बाद सिर्फ दिल्ली में 3 हजार सिखों का कत्लेआम हुआ।

लेकिन हर समय सभी को शामिल करने वाली सरकार की बात करने वाले प्रधानमंत्री की खामोशी का मतलब मैं समझ नहीं पाया। मैं चाहता था कि वह उफान पैदा करने वाले मामलों पर बोलते। उसी तरह मैं यह समझ नहीं पाया कि इस मुद्दे पर साहित्य अकादमी क्यों चुप्पी लगा गई। राष्ट्र के इतिहास में ऐसे मौके आते हैं जब लोगों को अपनी बात कहनी चाहिए। अगर वे ऐसा नहीं करते तो राष्ट्र को इसका नुक्सान उठाना पड़ता है।

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