न्यायपालिका को कार्यपालिका से ‘स्वतंत्र’ कराने की जरूरत

Edited By Pardeep,Updated: 12 May, 2018 03:14 AM

the judiciary needs to get independent from the executive

भारतीय संविधान के अग्रणी नेताओं में से एक बाबा साहेब अम्बेदकर, जोकि जीते-जी किंवदंती बन गए थे, की देश के राजनीतिक क्रम विकास के बारे में अपनी अनूठी दिव्यदृष्टि थी। उन्होंने संविधान सभा को बताया था :‘‘भारत में मजहब के क्षेत्र में भक्ति बेशक आत्मा को...

भारतीय संविधान के अग्रणी नेताओं में से एक बाबा साहेब अम्बेदकर, जोकि जीते-जी किंवदंती बन गए थे, की देश के राजनीतिक क्रम विकास के बारे में अपनी अनूठी दिव्यदृष्टि थी। उन्होंने संविधान सभा को बताया था :

‘‘भारत में मजहब के क्षेत्र में भक्ति बेशक आत्मा को मुक्ति मार्ग पर अग्रसर करती हो लेकिन राजनीति में भक्ति या नायक पूजा एक तरह के पतन की सूचक है, जोकि कालांतर में तानाशाही की ओर ले जाती है। भारतीय राजनीति में नायक पूजा का आकार किसी अन्य देश में देखने को नहीं मिलता।’’ बाबा साहेब अम्बेदकर का स्वतंत्रता के बाद की राजनीति के बारे में यह आकलन बिल्कुल सही था। हमने भी इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल दौरान वफादारी, प्रतिबद्धता तथा नायक पूजा के बहुत सटीक उदाहरण देखे हैं। 

आपातकाल का दौर न्यायिक गरिमा के साथ-साथ कुछ जजों की विश्वसनीयता की दृष्टि से विनाशकारी था क्योंकि ऐसे जज राजनीतिक दबाव के आगे बहुत विनम्रता से नतमस्तक हो गए थे और सत्ताधीशों के हाथों की कठपुतलियां बन गए थे। आजकल भी हम अक्सर प्रधानमंत्री मोदी के अंतर्गत भाजपा नीत राजग शासन में ऐसे अप्रिय रुझानों की झलकियां देखते हैं। एक बहुत उम्दा उदाहरण है सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच हाईकोर्टों एवं शीर्षस्थ अदालतों में जजों के चयन एवं नियुक्ति को लेकर पैदा हुआ व्यवधान। यह भाषणबाजी का मुद्दा नहीं और न ही इस मामले में किसी उपदेश की जरूरत है। हम जानते हैं कि आपातकाल के दौरान व्यक्तिगत स्वतंत्रता, मीडिया की स्वतंत्रता के साथ-साथ न्यायिक स्वतंत्रता को भी विकराल आघात पहुंचा था। हम सभी को भारतीय इतिहास के इस काले दौर से सबक सीखने की जरूरत है। 

मेरा मानना है कि कोलिजियम प्रणाली के अंतर्गत भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को बिना किसी डर-भय के बिल्कुल स्वतंत्र रूप में अथवा बिना पक्षपात के पूरी तरह मैरिट के आधार पर कार्य करना चाहिए। इस काम में किसी तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए और न ही मुख्य न्यायाधीश या कोलिजियम के अन्य किसी सदस्य को जाति, मजहब या क्षेत्र आधारित अथवा किसी राजनीतिक गणित के अंतर्गत काम करने की जरूरत है। न्यायपालिका के लिए प्रत्येक चयन प्रक्रिया पूरी तरह संविधान की भावना के अनुरूप होनी चाहिए। इस बात में कोई संदेह नहीं कि भारत की संस्थागत शक्ति गत अनेक वर्षों दौरान कमजोर पड़ गई है। बेशक कार्यपालिका अक्सर ‘प्रतिबद्ध जज’ नियुक्त करने को लालायित रहती है लेकिन ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं होने देना चाहिए। हमें न्यायपालिका की स्वतंत्रता और संस्थागत सिद्धांतवादिता अवश्य ही सुनिश्चित करनी होगी। न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा को लिखे पत्र में इस तथ्य को रेखांकित किया है। 

यह स्पष्ट है कि कार्यपालिका न्याय नियुक्ति प्रक्रिया और इसके पुष्टिकरण के मामले में उच्चतम पदों से भी छेड़छाड़ करती है। उत्तराखंड हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के.एम. जोसेफ का ही उदाहरण लें, जिनके नाम की सुप्रीम कोर्ट के जज के रूप में सिफारिश की गई थी। कहा जा रहा है कि जस्टिस जोसेफ को इस बात के लिए दंडित किया जा रहा है कि उन्होंने प्रदेश की विधानसभा में मत परीक्षण के बिना राष्ट्रपति शासन लागू किए जाने के फैसले को रद्द कर दिया था।जिम्मेदार नागरिकों के रूप में हमें न्याय प्रक्रिया के साथ होने वाली इस तरह की छेड़छाड़ के केवल मूकदर्शक नहीं बने रहना चाहिए। हमें भी संविधान के शब्दों और भावना से मार्गदर्शन लेते हुए देश की जनता और लोकतंत्र के भविष्य के हित में सच्चाई बोलने की हिम्मत दिखानी चाहिए। यह संज्ञान लेना असंगत नहीं होगा कि 1993 में एक फैसला सुनाते हुए जस्टिस जे.एस. वर्मा ने टिप्पणी की थी: ‘‘कोलिजियम का फैसला पत्थर पर लकीर होता है। कोलिजियम जो कहता है वही कानून है।’’ मैं लगभग दो दशकों तक वकालत और न्यायिक नियुक्ति का अनुभव रखने वाले जस्टिस रामावे पांडियन द्वारा 1993 के एक मामले के आधार पर दी गई सशक्त दलील का स्मरण करवाना चाहूंगा: 

‘‘कुछ मौकों पर यह बात देखने में आई है कि कुछ ऐसे उम्मीदवार जजों की कुर्सियों तक पहुंचने में सफल रहे हैं, जिनकी नियुक्ति क्षेत्रीय अथवा जातिगत अथवा साम्प्रदायिक या किसी अन्य आधार पर की गई थी। ऐसी शिकायतें मिलती रही हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती, कि कुछ सिफारिश भाई-भतीजावाद और लिहाजदारी से दागदार थीं। यहां तक कि आज भी ऐसी शिकायतें मिलती हैं कि एक ही परिवार अथवा जाति या बिरादरी या मजहब से संबंधित लोगों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी न्यायमूर्ति के पद पर नियुक्त किया जाता है और इस तरह ‘न्यायिक रिश्तेदारियों’ का एक नया सिद्धांत सृजित किया जा रहा है।’’ कितनी विडंबना की बात है कि जजों के पद वर्षों-वर्षों तक खाली पड़े रहते हैं। आज की तारीख में देश की 24 हाईकोर्टों में जजों के 413 पद खाली पड़े हैं, जबकि निचली अदालतों में कम से कम 5984 पदों पर कोई जज तैनात नहीं है। ऐसे में यदि लाखों-करोड़ों मामले वर्ष-दर-वर्ष अटके रहते हैं तो यह कोई हैरानी की बात नहीं। वैसे इस विलम्ब से मुद्दइयों को ही नुक्सान पहुंचता है। 2017 में सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ देश की हाईकोर्टों व निचली अदालतों में कम से कम 3.2 करोड़ मामले लंबित चल रहे थे। 

यह कहा जाता है कि जेलों में बंद लोगों में से 93 प्रतिशत ऐसे होते हैं जो केवल संदेह के आधार पर गिरफ्तार किए गए होते हैं और न्यायिक प्रक्रिया की सुस्ती के कारण ही 2 से लेकर 30 वर्षों तक जेलों में सड़ते रहते हैं। इन कैदियों को तो व्यथा भुगतनी पड़ती है लेकिन इनके अलावा करदाताओं को भी इनके भोजन, आश्रय तथा अन्य जरूरतों के लिए टैक्सों के माध्यम से बोझ उठाना पड़ता है। यदि इस स्थिति को ठीक करना है तो सबसे पहली शर्त यह है कि न्यायपालिका को आत्मनिर्भर तथा कार्यपालिका से पूरी तरह स्वतंत्र बनाना होगा। कार्यपालिका और विधानपालिका जैसे सरकार के अन्य स्तम्भों को भी अवांछित दबावों और विचलनों से स्वतंत्र रहते हुए काम करना होगा। 

जहां तक न्यायपालिका का घर दुरुस्त करने का संबंध है, तो मुख्य लक्ष्य ध्यान में रखे जाने चाहिएं। पहला है विलंब में कमी लाना और दूसरा है गरीब लोगों को कम खर्च पर न्याय उपलब्ध करवाना। इतनी ही जरूरी यह बात है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने परिचालन और क्षेत्राधिकार के सभी स्तरों पर अपना घर ठीक करने के लिए बहुत दूरगामी कदम उठाने होंगे। वस्तुस्थिति यह है कि शीर्षस्थ अदालत ने निचली अदालतों की दयनीय हालत के बारे में कोई खास चिंता नहीं की है, जबकि साधारण लोगों को सबसे अधिक तकलीफें निचली अदालतों में ही भुगतनी पड़ती हैं। वैसे सैमीनारों और सम्मेलनों में इन सभी मुद्दों पर जुबानी जमाखर्च काफी होता है। लेकिन जरूरत इस बात की है कि इन लक्ष्यों को शीघ्रातिशीघ्र एक कार्ययोजना का जामा पहनाया जाए। लेकिन बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? स्पष्ट रूप में यह काम शीर्षस्थ अदालत को ही करना होगा। इससे केवल कार्रवाई ही नहीं करनी होगी बल्कि लोगों को ऐसा आभास करवाना होगा कि अदालत निष्पक्ष ढंग से काम करती है और द्रुतगति से न्याय उपलब्ध करवाया जाता है। हमारे माननीय जजों को संविधान की भावना के आगे उत्तरदायी होना चाहिए और न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।-हरि जयसिंह

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